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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 28 मई, 2022 03:03 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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कांग्रेस के चिंतन शिविर का कोई स्पष्ट नतीजा तो सामने नहीं आया, लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू देखा जाये तो काफी हद तक फायदेमंद ही लगता है. ठीक वैसे ही राहुल गांधी का लंदन दौरा रहा, जिसमें तमाम सवालों के संजीदे जवाबों पर एक बातचीत में कुछ देर की उनकी चुप्पी ज्यादा चर्चित रही.

लेकिन लंदन में राहुल गांधी (Rahul Gandhi) एक भूल सुधार भी करते देखा गया. ये भूल सुधार उदयपुर के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने अपने बयान को लेकर ही किया है. चिंतन शिविर के मंच से क्षेत्रीय दलों की विचारधारा पर टिप्पणी करने के बाद राहुल गांधी तमाम विपक्षी दलों के नेताओं के निशाने पर आ गये थे, लेकिन अब कांग्रेस नेता ने करीब करीब आश्वस्त कर दिया है कि विपक्षी दलों को लेकर वो किस रणनीति के साथ आगे बढ़ने वाले हैं.

एकबारगी तो ऐसा लगता है जैसे राहुल गांधी और सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) ने आपस में काम बांट लिया हो. ऐसा लगता है जैसे सोनिया गांधी कांग्रेस के भीतर का काम देखने लगी हैं और राहुल गांधी बाहर का. बाहर से मतलब विपक्षी दलों (Opposition Parties) के साथ संबंध से है.

कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के कार्यक्रम में राहुल गांधी का एक बयान काफी महत्वपूर्ण लगता है - 'कांग्रेस कोई बिग डैडी नहीं है.'

विपक्षी दलों के प्रति राहुल गांधी का ताजा रुख निश्चित रूप से असर डाल सकता है - और चिंतन शिविर के बाद सोनिया गांधी जिस तरह से सक्रियता दिखा रही हैं, कांग्रेस को ट्रैक पर लाने की कोशिश तो नजर आती ही है.

कांग्रेस को ट्रैक पर लाने की कोशिश

सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राय कपिल सिब्बल पर अलग अलग रही होगी. तब भी, जबकि देखा जाये तो कपिल सिब्बल का छोड़ कर चले जाना कांग्रेस के लिए बड़ा नुकसान है. चुनावी हार जीत से ज्यादा बड़ा पचड़ा कोर्ट का चक्कर होता है - और कांग्रेस के साथ तो कुछ ज्यादा ही बना हुआ है.

rahul gandhi, sonia gandhiकागज पर तो कांग्रेस की 2024 की तैयारी चल पड़ी है, जमीन पर कब उतरती है ये देखना है

सोनिया गांधी ने कपिल सिब्बल का इस्तीफा मिलते ही राहत भरी गहरी सांस ली होगी, लेकिन राहुल गांधी को जरा भी परवाह नहीं होगी. सिर्फ इसलिए नहीं कि राहुल गांधी भी अब तक मान चुके होंगे कि वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसी को नहीं मिलने वाला है, बल्कि इसलिए क्योंकि वो कपिल सिब्बल को भी डरपोक कैटेगरी में पहले ही डाल चुके होंगे. तब भी, जबकि हर चुनावी हार के बाद कपिल सिब्बल राहुल गांधी को ललकारते रहे हों.

G-23 के अस्तित्व को कैसे समझें: भूपेंद्र सिंह हुड्डा की तरह कपिल सिब्बल जनाधार वाले नेता नहीं हैं, लेकिन दोनों केस में सोनिया गांधी मन ही मन काफी खुश होंगी - हुड्डा को शांत कर और कपिल सिब्बल से पीछा छुड़ा कर. उदयपुर के नव संकल्प चिंतन शिविर से पहले ही हुड्डा के मनमाफिक काम होने लगे थे. हरियाणा में सोनिया गांधी ने अपनी भरोसेमंद कुमार शैलजा को हटाकर हुड्डा के करीबी उदयभान को कांग्रेस अध्यक्ष पहले ही बना दिया था. राहुल गांधी के करीबी अशोक तंवर को तो हुड्डा पहले ही बाहर करा चुके थे - और चिंतन शिविर में भी खूब तवज्जो मिली.

तभी तो G-23 की तरफ से न भूपेंद्र सिंह हुड्डा की आवाज कहीं अलग सुनायी दे रही थी - और न ही गुलाम नबी आजाद या आनंद शर्मा की. कपिल सिब्बल तो खैर पहुंचे ही नहीं थे. चिंतन शिविर से पहले जो छह ग्रुप बनाये गये थे, कृषि और किसानों के मसले पर बने ग्रुप हुड्डा के ही जिम्मे था.

G-23 नेताओं के रुख को कपिल सिब्बल पहले ही भांप चुके थे, वो तो बस चिंतन शिविर में उनकी गतिविधियों को वेरीफाई कर रहे थे. तभी तो शिविर खत्म होने के अगले ही दिन सोनिया गांधी को इस्तीफा सौंप दिया था.

असल में G-23 के ज्यादातर नेताओं के शांत रहने की खास वजह भी लगती है. कुछ नेताओं को तो कांग्रेस नेतृत्व से राज्य सभा भेजे जाने की उम्मीद तो रही ही होगी. मुकुल वासनिक भी सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखने वाले नेताओं में से ही एक हैं, लेकिन वही एक ऐसे नेता भी रहे जो CWC की पहली ही मीटिंग में अफसोस जाहिर करने के अंदाज में इमोशनल तक हो गये थे. मीटिंग से पहले मुकुल वासनिक को अध्यक्ष बनाये जाने के प्रस्ताव की भी खासी चर्चा रही.

अब तो ऐसी भी खबर आ रही है कि मुकुल वासनिक को राज्य सभा भेजे जाने वाले संभावितों की सूची में ऊपर रखा गया है. साथ ही, G-23 के गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा को 2024 के लिए सोनिया गांधी ने पॉलिटिकल अफेयर्स ग्रुप में भी शामिल कर लिया है.

सोनिया गांधी ही पॉलिटिकल अफेयर्स ग्रुप की चेयरपर्सन हैं और राहुल गांधी भी शुमार हैं. बाकी नेताओं में गांधी परिवार के करीबी ही नजर आते हैं - मल्लिकार्जुन खड़्गे, अंबिका सोनी, दिग्विजय सिंह, केसी वेणुगोपाल और भंवर जितेंद्र सिंह. भंवर जितेंद्र सिंह को राहुल का करीबी समझा जाता है.

क्या अब भी G-23 का अस्तितित्व समझ में आ रहा है? कांग्रेस के भीतरी झगड़ों पर काबू पाने की कोशिश में सोनिया गांधी को ये कामयाबी तो मिल ही गयी है कि वो बागियों के बड़े गुट को अपनी सूझ बूझ और काबिलियत से न्यूट्रलाइज कर ही दिया है.

विपक्ष को साधने की नयी कोशिश

सोनिया गांधी और राहुल गांधी की राजनीति में एक बड़ा फर्क ये है कि विपक्षी दलों के नेता दोनों के साथ अलग अलग व्यवहार करते हैं. विपक्ष के ज्यादातर नेताओं को सोनिया गांधी का नेतृत्व तक स्वीकार होता है, लेकिन राहुल गांधी को लेकर ज्यादातर सहज नहीं हो पाते.

ममता बनर्जी और शरद पवार के रुख से तो हर कोई वाकिफ है, कभी कभार तेजस्वी यादव भी तटस्थ लगते हैं. अभी तक सिर्फ तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ही ऐसे विपक्षी नेता हैं जो राहुल गांधी के सपोर्ट में हमेशा खड़े नजर आते हैं - और राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के लायक भी मानते हैं.

राहुल गांधी के साथ लंदन दौरे में तेजस्वी यादव और आरजेडी प्रवक्ता मनोज झा भी गये थे. हालांकि, ये दोनों ही राहुल गांधी के क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लेकर दिये बयान पर कड़ा ऐतराज जताया था. तेजस्वी यादव और मनोज झा दोनों की ही राय रही कि जहां कहीं भी क्षेत्रीय दलों का प्रभाव है, उनके लिए ड्राइविंग सीट छोड़ कर कांग्रेस को सहयात्री बन जाना चाहिये.

चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने संघ और बीजेपी के खिलाफ कांग्रेस की ताकत समझाते हुए क्षेत्रीय दलों में विचारधार की कमी बता डाली थी. राहुल गांधी का कहना रहा कि क्षेत्रीय दल बीजेपी और आरएसएस से नहीं लड़ सकते क्योंकि उनके पास विचारधारा का अभाव है - और कांगेस ये लड़ाई लड़ सकती है क्योंकि ये विचारधारा की लड़ाई है.

संघ और बीजेपी के साथ राहुल गांधी विचारधारा की लड़ाई तो अक्सर ही बताते रहते हैं, लेकिन उसमें क्षेत्रीय दलों को शामिल करके फंस गये थे - और समझदारी ये दिखायी कि लंदन में साथी विपक्षी दलों के बीच ही भूल सुधार कर लिया.

देश में बीजेपी पर जगह जगह केरोसिन छिड़कने की बात करते हुए राहुल गांधी बार बार सबको मिल कर लड़ने पर जोर देते रहे. ऐसा कई बार देखने को मिला जब राहुल गांधी कांग्रेस की बात करते ही सबके साथ की भी बात जरूर करते रहे.

और इस क्रम में राहुल गांधी ने जो सबसे बड़ी बात बोली वो थी - "कांग्रेस कोई बिग डैडी नहीं है."

ये तो राहुल गांधी को भी मालूम होगा ही और सोनिया गांधी को भी कि पूरा विपक्ष कांग्रेस का नेतृत्व आज की तारीख में स्वीकार नहीं करने वाला है. अब तक गांधी परिवार को आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल से परहेज रहा, आगे से वो खुद कांग्रेस नेतृत्व को घास नहीं डालने वाले हैं. और ये भी मान कर चलना चाहिये कि विपक्षी खेमे में अगर कांग्रेस को काट कर तेजी से कोई आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा है तो वो अरविंद केजरीवाल ही हैं.

राहुल गांधी की अब तक कोशिश ममता बनर्जी को ही काउंटर करने की देखी गयी, लेकिन अरविंद केजरीवाल कहीं बड़ा खतरा बन चुके हैं. निश्चित तौर पर ममता बनर्जी भी उन जगहों पर ही धावा बोलने की कोशिश कर रही हैं जहां कांग्रेस कमजोर है, लेकिन अरविंद केजरीवाल की पार्टी अपनी उसी रणनीति को चुनावी जीत में तब्दील करने में भी कामयाब होने लगी है. दिल्ली के बाद पंजाब और उसके बाद कौन राज्य होता है, ये अभी देखना है.

विपक्षी खेमे में राहुल गांधी के लिए ये कम बड़ी उपलब्धि नहीं है कि शरद पवार जैसे नेता और प्रशांत किशोर जैसे चुनाव रणनीतिकार अपने बयानों से कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाये हुए हैं. शरद पवार और प्रशांत किशोर दोनों का ये कहना कि कांग्रेस के बगैर कोई विपक्षी मोर्चा बन ही नहीं सकता, कांग्रेस को बहुत ताकत देता है.

जो हालात हैं, अगर विपक्षी दलों का एक हिस्सा भी कांग्रेस के साथ आगे तक खड़ा रहता है तो ये सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों के लिए सुकून देने वाली बात है - ऐसी सूरत में कम से कम कांग्रेस के हाशिये पर चले जाने का खतरा कम तो हो ही जाता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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