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Updated: 18 नवम्बर, 2022 01:19 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मैनपुरी उपचुनाव ने अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के सामने करो या मरो जैसी चुनौती पेश कर दी थी. वैसे भी रामपुर और आजमगढ़ लोक सभा सीट समाजवादी पार्टी के हाथ से निकल जाने के बाद ऐसा होना स्वाभाविक ही था. तभी तो मैनपुरी में समाजवादी पार्टी का गढ़ बचाने के लिए पूरा परिवार एक हो गया. ये एकता महज मौसमी है चुनाव भर के लिए या आगे भी बनी रहेगी, वो बाद की बाद है.

करीब साल भर बाद शिवपाल यादव के घर अखिलेश यादव वैसे ही पहुंचे थे जैसे यूपी चुनावों से पहले. तब अखिलेश यादव अंदर कुछ देर बैठने और चाय नाश्ते के बाद निकल आये थे. इस बार अखिलेश यादव के बाद डिंपल यादव भी वहां पहुंच गयी थीं.

जैसे सब कुछ पहले से तय हो. चाचा शिवपाल यादव (Shivpal Yadav) के घर भतीजे अखिलेश यादव और भाई मुलायम सिंह यादव की बड़ी बहू डिंपल यादव करीब एक घंटे तक तक रहे. आशीर्वाद गोष्ठी के बाद अखिलेश यादव निकले और अपने घर लौट गये. मीडिया ने अखिलेश यादव का रिएक्शन जानने की काफी कोशिशें की, लेकिन वो चुपचाप निकल गये - हो सकता है ये भी पहले से ही तय कर रखा हो कि जो भी कहेंगे ट्विटर पर ही कहेंगे. कहा भी. तस्वीर के साथ. हां, जो लिखा वो पिछली बार से काफी अलग था.

सवाल ये है कि जब सब कुछ पहले से तय था तो अखिलेश यादव और डिंपल यादव (Dimple Yadav) साथ क्यों नहीं पहुंचे थे? क्या अखिलेश यादव को चाचा शिवपाल को लेकर कोई कन्फ्यूजन था? ये सही है कि डिंपल यादव की भी चुनावी व्यस्तता रही होगी, हो सकता है कोई और भी काम ऐन वक्त पर ही आ गया हो - लेकिन ऐसा भी तो हो सकता था कि कुछ देर बाद ही साथ में चले जाते?

हाल के कुछ दिनों से अखिलेश यादव चाचा शिवपाल यादव के सम्मान की बातें जरूर करते रहे, लेकिन पहले तो रिश्ता काफी तनावपूर्ण ही लगता था. लगता ही नहीं था कि अखिलेश यादव के लिए ओम प्रकाश राजभर और शिवपाल यादव में किसी तरह का फर्क है. राष्ट्रपति चुनाव में तो बिलकुल ऐसा ही महसूस किया गया था.

अखिलेश यादव के चले जाने के बाद शिवपाल यादव भी अपने आवास से निकले और ठीक सामने स्कूल में जा पहुंचे. स्कूल कैंपस में, दरअसल, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया (प्रसपा) के कार्यकर्ताओं का सम्मेलन बुलाया गया था. शिवपाल यादव के कुछ ही देर बाद उनके बेटे आदित्य यादव भी स्कूल में कार्यकर्ताओं के बीच जा पहुंचे.

कहते हैं कि प्रसपा के प्रदेश अध्यक्ष आदित्य यादव ने नेताओं और कार्यकर्ताओं को मैनपुरी उपचुनाव में डिंपल यादव के पक्ष में कैंपेन करने को कहा है. आदित्य यादव बोले, 'आज नेताजी हम सबके साथ नहीं हैं... ऐसे में उनकी सीट को बचाना ही हम सभी का दायित्व है... मैनपुरी लोक सभा का उपचुनाव बहुत भावुक क्षण है.

शिवपाल यादव ने बेटे आदित्य के साथ प्रसपा कार्यकर्ताओं को जो कुछ समझाया और कहा वो तो अपनी जगह है ही, बाद में शिवपाल यादव ने जो ट्विटर पर लिखा वो काफी महत्वपूर्ण है - अपने ट्वीट में शिवपाल यादव ने मुलायम सिंह यादव को याद करते हुए मैनपुरी को खून पसीने से सींचने का वादा किया है.

अब सवाल ये उठता है कि क्या डिंपल यादव के लिए बीजेपी उम्मीदवार की चुनौती कोई मायने रखती है क्या? ऐसा क्यों लग रहा है कि बीजेपी मैनपुरी उपचुनाव में रस्मअदायगी भर हिस्सा ले रही हो?

मैनपुरी में बीजेपी कौन सा प्रयोग कर रही है?

मैनपुरी उपचुनाव ने अचानक ही 2014 के आम चुनाव की याद दिला दी है. वही आम चुनाव जिसने देश की राजनीति ही बदल डाली. जिस चुनाव में पहली बार बीजेपी को भारी मात्रा में सीटें मिली थीं - और यूपी के रास्ते दिल्ली की गद्दी पक्की हुई थी. बीजेपी के नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने थे.

2014 की मोदी लहर में देश भर में कांग्रेस का तो जो हाल हुआ, हुआ ही, उत्तर प्रदेश में बीएसपी का तो खाता तक न खुल सका - और समाजवादी पार्टी के भी सारे नेता हार गये थे, सिवा मुलायम सिंह यादव के परिवार के सदस्यों के. मुलायम सिंह तो दो दो सीटों पर जीत गये थे. आजमगढ़ और मैनपुरी. 2019 में मुलायम सिंह यादव ने आजमगढ़ की जगह मैनपुरी से ही चुनाव लड़ने का फैसला किया और उनके निधन की वजह से ही वहां उपचुनाव हो रहा है. उपचुनाव 5 दिसंबर को होगा. नतीजे 8 दिसंबर को आएंगे.

dimple yadav, akhilesh yadav, shivpal yadavपरिवार पर राजनीति हावी हो जाये तो मुलाकातें रस्मअदायगी बन जाती हैं.

मोदी लहर में मुलायम सिंह यादव जिस तरीके से पार्टी की हार नहीं बचा पाये और पूरे परिवार को चुनाव जिता दिये, हर किसी को हैरान करने वाला था. मुलायम परिवार की चुनावी जीत को लेकर तमाम तरह के कयास भी लगाये गये थे. एक चर्चा ये भी रही कि बीजेपी की तरफ से मुलायम सिंह यादव को अभयदान दे दिया गया था - हो सकता है 2017 योगी आदित्यनाथ के शपथग्रहण के मौके पर मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कानों में उसी दरियादिली के लिए शुक्रिया कहा हो.

मैनपुरी में बीजेपी के उम्मीदवार को लेकर फैसले ने ही उसी चुनाव की याद दिला दी है. बीजेपी के पास बहुत सारे विकल्प थे. हो सकता है बीजेपी की तरफ से शिवपाल यादव से भी संपर्क किया गया हो, और परिवार की दुहाई देकर वो विनम्रतापूर्वक इनकार कर दिये हों.

ये अखिलेश यादव की भी खास रणनीति ही रही जो डिंपल यादव को समाजवादी पार्टी की तरफ से पहले ही उम्मीदवार घोषित कर दिया. साथ ही, परदे के पीछे की चीजों को मैनेज करने में वो और उनकी टीम जुट गयी हो.

डिंपल यादव के मैदान में उतरते ही बीजेपी की तरफ से अपर्णा यादव की चर्चा शुरू हो गयी थी. हो सकता है बीजेपी ने अपर्णा यादव को आगे के लिए ट्रंप कार्ड के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए बचा रखा हो. ये भी संभव है कि अपर्णा यादव ने भी शिवपाल यादव की ही तरह चुनाव न लड़ने की अपील की हो - क्योंकि अगर बीजेपी नेतृत्व ने तय कर लिया होता तो अपर्णा के लिए मना कर पाना नामुमकिन ही होता. भले ही उनको कोई और कदम उठाना पड़ता.

कहने को तो बीजेपी ने समाजवादी पार्टी को उसी के दांव से चैलेंज किया है. बीजेपी उम्मीदवार रघुराज सिंह शाक्य दो बार इटावा से समाजवादी पार्टी के सासंद रह चुके हैं और बाद में विधायक भी रहे. जब समाजवादी पार्टी में झगड़ा शुरू हुआ और अखिलेश यादव पार्टी पर पूरी तरह काबिज हो गये तो वो शिवपाल यादव के साथ हो गये. समाजवादी पार्टी छोड़ भी दिये.

लेकिन वही शिवपाल यादव जब फिर से 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव से पहले अखिलेश यादव से हाथ मिला लिये तो रघुराज सिंह शाक्य बर्दाश्त नहीं कर पाये - और शिवपाल यादव का साथ छोड़ कर बीजेपी में चले गये. रघुराज सिंह शाक्य अब भी शिवपाल यादव को ही अपना राजनीतिक गुरु बता रहे हैं.

जैसे लोग शाक्य को अखिलेश यादव के खिलाफ एक तीर से दो निशाना मान रहे हैं, क्या बीजेपी के रणनीतिकारों को भी ऐसा ही लगा होगा? ऐसे कच्चे खिलाड़ी तो वे बिलकुल नहीं लगते. 2019 में भोजपुरी स्टार निरहुआ भी आजमगढ़ में अखिलेश यादव को नहीं हरा पाये थे, कन्नौज में डिंपल यादव बीजेपी के सुब्रत पाठक से मात जरूर खा गयी थीं. निरहुआ के लिए भी आजमगढ़ जीतना तभी संभव हो पाया जब मायावती ने गुड्डू जमाली को मैदान में उतार दिया, वरना मुलायम परिवार के धर्मेंद्र यादव ने भी अच्छी खासी टक्कर दी थी.

समाजवादी पार्टी ने डिंपल यादव की मदद के लिए शिवपाल यादव और जया बच्चन सहित कई नेताओं को स्टार प्रचारक बनाया है. स्टार प्रचारकों की सूची में अखिलेश यादव, किरणमय नंदा, रामगोपाल यादव, आजम खान, जया बच्चन, शिवपाल यादव सहित 40 लोगों के नाम शामिल किये गये हैं.

अब तो ये भी माना जा सकता है कि मैनपुरी में डिंपल यादव की जीत तय हो गयी थी, चाचा शिवपाल यादव ने आशीर्वाद देकर पक्की कर दी है. देखा जाये तो डिंपल यादव के लिए कन्नौज का मैदान एक बार फिर करीब करीब 2012 जैसा हो गया है और जीत की राह 2014 के आम चुनाव जैसी. 2012 में डिंपल यादव कन्नौज से निर्विरोध सांसद चुनी गयी थीं. तब यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार भी हुआ करती थी - और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे.

अब तो सवाल यही है कि बीजेपी मैनपुरी में कोई प्रयोग कर रही है या बीजेपी ने एक बार फिर मुलायम सिंह परिवार को राजनीतिक अभयदान दे दिया है?

साल भर में रिश्ता कितना बदल गया?

साल भर के भीतर ही शिवपाल यादव से जुड़े अखिलेश यादव के दो ट्वीट काफी अलग हैं. खासकर पोस्ट की भाषा. यूपी चुनाव के पहले वाले ट्वीट में अखिलेश यादव की भाषा में काफी अकड़ नजर आ रही है - और ताजा ट्वीट में सिर्फ विनम्रता ही नहीं, लगता है जैसे संस्कार कूट कूट कर भरे हैं.

16 नवंबर 2021 को शिवपाल यादव से मिलने के बाद अखिलेश यादव ने लिखा था, "प्रसपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जी से मुलाकात हुई और गठबंधन की बात तय हुई... क्षेत्रीय दलों को साथ लेने की नीति सपा को निरंतर मजबूत कर रही है और सपा और अन्य सहयोगियों को ऐतिहासिक जीत की ओर ले जा रही है."

और 17 नवंबर 2022 के ट्वीट में अखिलेश यादव ने लिखा है, "नेता जी और घर के बड़ों के साथ-साथ मैनपुरी की जनता का भी आशीर्वाद साथ है!"

ध्यान देने वाली बात ये है कि पुराने ट्वीट में अखिलेश यादव ने शिवपाल यादव को 'प्रसपा अध्यक्ष' है, जबकि ताजा ट्वीट में बड़े आदर भाव के साथ 'घर का बड़ा' बताते हुए काफी सम्मान दिया है - और बदलाव की ये अवधि एक साल से भी कम है.

बहरहाल, शिवपाल यादव ने ट्विटर पर जो लिखा है, वो अखिलेश यादव और डिंपल यादव के लिए कहीं ज्यादा मायने रखता है - "जिस बाग को सींचा हो खुद नेता जी ने... उस बाग को अब हम सीचेंगे अपने खून पसीने से..."

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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