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Updated: 14 नवम्बर, 2022 01:00 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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देर से ही सही, डिंपल यादव (Dimple Yadav) को आखिरकार चुनाव मैदान में उतार ही दिया गया. अब ये दुरूस्त भी है या नहीं, ये जानने के लिए चुनाव नतीजों का इंतजार तो करना ही पड़ेगा. डिंपल यादव की चुनावी राजनीति की शुरुआत ऐसी ही परिस्थितियों में हुई थी, लेकिन पहला अनुभव बहुत बुरा रहा और अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) के लिए वो किसी सदमे से कम नहीं था.

आजमगढ़ उपचुनाव में भी आखिर तक डिंपल यादव के चुनाव लड़ने की काफी चर्चा रही, लेकिन अखिलेश यादव ने अपने चचेरे भाई धर्मेंद्र यादव को उम्मीदवार घोषित कर दिया. तब समझा गया कि वो डिंपल यादव को राज्य सभा भेजने के बारे में सोच रहे हैं - लेकिन वहां भी समाजवादी पार्टी के कोटे से आरएलडी नेता जयंत चौधरी को भेज कर अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी नेताओं को एक और सरप्राइज दे डाला.

अखिलेश यादव को आजमगढ़ की अपनी सीट तो गंवानी ही पड़ी थी, आजम खान की रामपुर लोक सभा सीट से भी हाथ धोना पड़ा था. अब उसी रामपुर की विधानसभा सीट पर उपचुनाव होने जा रहा है. साथ ही, यूपी में एक और विधानसभा सीट खतौली में भी उपचुनाव होना है - ये तो ऐसा लगता है जैसे अखिलेश यादव के सामने यूपी चुनाव 2022 जैसी ही चुनौती फिर से खड़ी हो गयी हो.

मैनपुरी (Mainpuri Bypoll) लोक सभा सीट समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव के निधन से खाली हुई है और वहां से डिंपल यादव के चुनाव लड़ने को उनके उत्तराधिकारी के रूप में देखा जा रहा है. ध्यान देने वाली बात ये है कि मैनपुरी की ही करहल विधानसभा सीट से अखिलेश यादव फिलहाल विधायक हैं - और डिंपल यादव के लिए राहत देने वाली बस इतनी ही बात है.

बीजेपी की तो 2014 से ही यूपी की ऐसी सीटों पर नजर रही जिन पर बड़े राजनीतिक विरोधी काबिज हुआ करते थे. 2019 में बीजेपी ने अमेठी हथिया लिया और 2022 में आजमगढ़ और रामपुर - बीजेपी का अगला निशाना मैनपुरी ही है.

अखिलेश यादव जहां मैनपुरी के लिए डिंपल यादव का नाम उम्मीदवार के रूप में घोषित कर चुके हैं, बीजेपी की तरफ से साफ तौर पर कोई संकेत भी नहीं दिया गया है. कयास लगाये जाने की बात और है. कहने को तो लोग मैनपुरी में मुलायम सिंह यादव की दो बहुओं के बीच जंग की संभावना भी जताने लगे हैं.

निश्चित तौर पर मुलायम सिंह की दूसरी बहू अपर्णा यादव को बीजेपी समाजवादी पार्टी के खिलाफ ट्रंप कार्ड समझ रही हो, लेकिन मैनपुरी की लड़ाई बीजेपी के लिए आजमगढ़ जैसी आसान तो नहीं होगी. भले ही मायावती ने यूपी विधानसभा चुनाव 2022 की ही तरह आजमगढ़ उपचुनाव में भी बीजेपी की मददगार की भूमिका में देखी गयी हों, लेकिन मैनपुरी में भी वो बिलकुल वैसा ही करेंगी, ऐसा तो नहीं लगता.

बाकी सीटों पर जो भी गुणा गणित किया हो, लेकिन करहल विधानसभा सीट पर मायावती ने अखिलेश यादव की राह में कोई रोड़ा नहीं अटकाया था. उम्मीदवार उतारने के नाम पर सिर्फ रस्मअदायगी की थी. कांग्रेस ने तो वो भी नहीं किया था.

मायावती को ये भी मालूम है कि 2019 में कन्नौज सीट पर डिंपल यादव की हार के लिए अखिलेश यादव कहीं न कहीं मायावती को ही जिम्मेदार मानते हैं. ये ठीक है कि मुलायम सिंह यादव के लिए मायावती मैनपुरी तक वोट मांगने गयी थीं, लेकिन अखिलेश यादव के मन में ये रहता है कि समाजवादी पार्टी को बीएसपी के वोट ट्रांसफर नहीं हो पाये, वरना कन्नौज को भी तो मुलायम सिंह परिवार गढ़ ही माना जाता रहा है.

जब पहला ही चुनाव हार गयी थीं डिंपल

2019 के आम चुनाव के नतीजे आने के कुछ दिन बाद ही मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन तोड़ दिया था. असली वजह जो भी रही हो, लेकिन अखिलेश यादव के लिए कन्नौज में भी डिंपल यादव की हार ठीक दस साल पहले हुए फिरोजाबाद जैसा ही अनुभव रहा.

akhilesh yadav, dimple yadavमैनपुरी उपचुनाव को लेकर यही कहा जा सकता है कि अखिलेश यादव खुद नामांकन नहीं दाखिल करने जा रहे

ये 2009 की बात है. तब अखिलेश यादव फिरोजाबाद और कन्नौज दो लोक सभा सीटों से चुनाव लड़े थे. दोनों सीटों से जीते भी, लेकिन बाद में फिरोजाबाद छोड़ दी थी. जब उपचुनाव की घोषणा हुई तो परिवार में डिंपल यादव को चुनाव लड़ाने पर सहमति बनी - ये डिंपल यादव का पहला चुनाव था.

लेकिन तभी राज बब्बर भी कांग्रेस से टिकट लेकर मैदान में कूद पड़े. मुलायम परिवार में किसी ने भी राज बब्बर की परवाह नहीं की. असल में राज बब्बर पहले समाजवादी पार्टी के ही नेता हुआ करते थे, लेकिन पार्टी में उनको लाने वाले अमर सिंह से तकरार बढ़ जाने पर निकाल दिया गया था.

राज बब्बर के बाद ही अमर सिंह ने अमिताभ बच्चन और जया बच्चन को मुलायम सिंह यादव के परिवार और पार्टी से जोड़ा था, लेकिन उनके बढ़ते प्रभाव से राज बब्बर को घुटन होने लगी थी - और फिर नौबत ये आ गयी कि पार्टी से ही बेदखल होना पड़ा - फिरोजाबाद उपचुनाव राज बब्बर के लिए बदला लेने का बड़ा मौका समझ में आया.

चुनाव प्रचार के लिए जब राज बब्बर ने सलमान खान को बुला लिया तो, अमर सिंह ने संजय दत्त को बुला लिया डिंपल यादव के लिए वोट मांगने. अमर सिंह ने भी संजय दत्त के साथ रैली की, लेकिन सलमान खान को वॉन्टेड बोल कर सारे किये कराये पर खुद ही पानी फेर दिया.

नतीजा आया तो डिंपल यादव चुनाव हार चुकी थीं और राज बब्बर जीत कर हिसाब बराबर कर चुके थे. पूरे परिवार में मायूसी छा गयी और उबरने में तीन साल लग गये - लेकिन ये भी है कि डिंपल की वो हार समाजवादी पार्टी के लिए संजीवनी बूटी साबित हुई.

अखिलेश यादव के लिए डिंपल यादव की हार बहुत बड़ा सदमा रही. तब समाजवादी पार्टी यूपी की सत्ता से बाहर हो चुकी थी और मायावती अपनी सोशल इंजीनियरिंग के जरिये बीएसपी की सरकार बनवा चुकी थीं - अखिलेश यादव ने सलाह मशविरा किया और साइकिल लेकर निकल पड़े.

उसके बाद तो अगले विधानसभा चुनाव की तारीख आने तक अखिलेश यादव साइकिल पर ही सवार रहे और गांव गांव घूम कर लोगों से समाजवादी पार्टी के लिए वोट मांगते रहे. और तब तक मैदान में डटे रहे जब तक लोगों ने समाजवादी पार्टी को सत्ता नहीं सौंप दी.

चुनाव में जीत के बाद आजम खान और शिवपाल यादव से लेकर तमाम सीनियर समाजवादी पार्टी नेता चाहते थे कि मुलायम सिंह यादव ही मुख्यमंत्री बनें, लेकिन वो साफ तौर पर बोल दिये के ये अखिलेश की मेहनत का नतीजा है - और कुर्सी के भी वही हकदार हैं.

ये तो मुलायम सिंह का दबदबा ही रहा जो सारी चीजें मैनेज कर दिये और 2012 में डिंपल यादव को निर्विरोध विजेता घोषित किया गया और वो संसद पहुंच गयीं. खास बात ये है कि तब भी डिंपल यादव को उपचुनाव में ही उतारा गया था और वो भी अखिलेश यादव की ही खाली की हुई सीट से. असल में 2012 में जब यूपी में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी तो मुलायम सिंह यादव पीछे हट गये और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने गये - और उसी के चलते उनकी कन्नौज सीट खाली हो गयी थी.

अव्वल को मुलायम परिवार को छाछ फूंक कर पीने की जरूरत नहीं थी, लेकिन सच तो यही रहा कि फिरोजबाद चुनाव का नतीजा दूध से जलने जैसा ही रहा. फिर क्या था, मुलायम सिंह यादव ने पूरी ताकत झोंक दी. फिर भी एक आदमी चुनाव मैदान में टपक पड़ा था. बहरहाल जैसे तैसे वो भी मैनेज हो गया - और डिंपल यादव निर्विरोध चुनाव जीत कर संसद पहुंच गयीं.

डिंपल के मैदान में उतरने का मतलब

फिरोजाबाद की ही तरह पिछले आम चुनाव में हार का मुंह देख चुकीं डिंपल यादव के लिए मैनपुरी का मैदान कोई नया नहीं है, लेकिन कन्नौज की तरह तो वो मैनेज होने से रहा. बल्कि, ये लड़ाई तो और भी ज्यादा मुश्किल होने वाली है.

मुलायम सिंह ने तो 2019 में ही मैनपुरी के लोगों से बोल दिया था कि वो अपना आखिरी चुनाव लड़ रहे हैं. हालांकि, वो अपना कार्यकाल भी नहीं पूरा कर पाये. और अब उनके विरासत को बचाने और बनाये रखने की जिम्मेदारी बेटे अखिलेश यादव पर आ चुकी है - और यही वजह है कि अखिलेश यादव ने अपने बाद समाजवादी पार्टी का सबसे मजबूत चेहरा मैदान में उतार दिया है.

हो सकता है अखिलेश यादव ने मुलायम सिंह यादव के आखिरी चुनाव लड़ने की बात सोच कर ही मैनपुरी संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीट करहल से चुनाव लड़ने का फैसला किया हो - ये तो है ही कि आजमगढ़ के मुकाबले अखिलेश यादव के लिए मैनपुरी का किला बचाना कहीं ज्यादा जरूरी है.

मैनपुरी संसदीय क्षेत्र में पांच विधानसभा सीटें हैं, जिनमें अखिलेश यादव की करहल सहित तीन विधानसभा सीटें समाजवादी पार्टी के पास हैं, जबकि दो सीटों पर बीजेपी काबिज है. इस लिहाज से देखा जाये तो इलाके में आधे से ज्यादा दखल तो समाजवादी पार्टी का ही है, लेकिन चुनाव भी तो सर्जरी की ही तरह होता है जिसमें हमेशा ही जोखिम बना रहता है.

मैनपुरी सीट पर समाजवादी पार्टी का 1996 से ही कब्जा रहा है, जब मुलायम सिंह यादव खुद वहां से सांसद बने थे - अब तक मैनपुरी लोक सभा सीट पर दो बार उपचुनाव भी हो चुके हैं और ये तब से तीसरा उपचुनाव है.

2004 में हुआ उपचुनाव जीत कर धर्मेंद्र यादव संसद पहुंचे थे, लेकिन 2022 के आजमगढ़ उपचुनाव में वो बीजेपी के दिनेश लाल निरहुआ से मात खा गये.

2014 में मुलायम सिंह यादव मैनपुरी और आजमगढ़ दो सीटों से चुनाव लड़े और जीतने के बाद मैनपुरी सीट छोड़ दी थी. तब मुलायम परिवार के ही तेज प्रताप यादव सांसद बने - और अब उनकी बहू डिंपल यादव मैदान में उतर चुकी हैं.

हाल फिलहाल हो रहे उपचुनाव एक हिसाब से 2024 के आम चुनाव के लिए फीडबैक माने जा रहे हैं, लेकिन मैनपुरी उपचुनाव का नतीजा तो अखिलेश यादव और यूपी में समाजवादी पार्टी के भविष्य की राह दिखाने वाला लगता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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