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सोनिया-राहुल से ED की पूछताछ के दौरान कांग्रेस ने क्या खोया - और क्या पाया?
प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने सोनिया गांधी (Sonia Rahul) और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को ऐसे नोटिस भेजा जब वे चुनावी तैयारियों में जुटे हुए थे - देखा जाये तो कांग्रेस को नाराज नेताओं का साथ तो मिला, लेकिन राष्ट्रपति चुनाव जैसा बेहतरीन मौका गंवाना पड़ा है.
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सोनिया गांधी (Sonia Rahul) से प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों की पूछताछ फिलहाल पूरी मानी जा रही है - और अभी कोई ऐसी आशंका भी नहीं जतायी जा रही है, जैसी राहुल गांधी से पूछताछ के दौरान कांग्रेस में भी कई नेता डरे हुए थे. दरअसल, राहुल गांधी की गिरफ्तारी की आशंका जतायी जा रही थी. हालांकि, तभी कुछ कांग्रेस नेताओं का मीडिया से अनौपचारिक बातचीत में कहना रहा कि अगर गिरफ्तारी होनी भी होगी तो सोनिया गांधी से पूछताछ पूरी हो जाने के बाद ही.
सोनिया गांधी से तीन दिन में कुल 11 घंटे पूछताछ चली है. राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के साथ पांच दिन में 50 घंटे पूछताछ हुई थी - और दोनों पूछताछ को लेकर बताया जा रहा है कि गांधी परिवार के दोनों ही सदस्यों ने एक जैसी ही बातें बतायी हैं.
खास बात ये भी है कि दोनों का कहना है कि सारे वित्तीय लेनदेन मोतीलाल वोरा ही किया करते थे. मोतीलाल वोरा लंबे समय तक कांग्रेस के कोषाध्यक्ष रहे हैं और 2020 में उनका निधन हो गया था. बताते हैं कि सोनिया और राहुल के अलावा कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और पवन कुमार बंसल ने भी ईडी के सामने पेशी के दौरान यही जवाब दिया था.
कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता सोनिया गांधी और राहुल गांधी दोनों की पेशी के दौरान सड़क पर नजर आये, लेकिन एक बड़ा फर्क भी महसूस किया गया - और विपक्ष की तरफ से भी दोनों को मिले सपोर्ट में भी बिलकुल वैसा ही फर्क देखने को मिला.
प्रवर्तन निदेशालय (ED) की तरफ से मिली मुश्किलों की वजह से बेशक राष्ट्रपति चुनाव जैसे महत्वपूर्ण मौके का कांग्रेस फायदा नहीं उठा सकी, लेकिन G-23 को मुख्यधारा में समायोजित किया जाना कोई कम भी तो नहीं है.
बड़ा मौका हाथ से फिसल गया
सोनिया गांधी कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर से काफी उत्साहित लगी थीं. तीन दिन के कैंप के दौरान कांग्रेस में कई मुद्दों पर बात करीब करीब खुल कर बातें हुईं. अगर ऐसा न होता तो क्या आचार्य प्रमोद कृष्णन डिमांड रख पाते कि अगर राहुल गांधी राजी न हों तो प्रियंका गांधी वाड्रा को ही कांग्रेस अध्यक्ष क्यों नहीं बना दिया जाता.
ये भी रहा कि पंजाब में सुनील जाखड़ जैसा नेता कद्दावर नेता ने कांग्रेस छोड़ने की घोषणा कर डाली थी, हार्दिक पटेल और कपिल सिब्बल ने भी दूरी बनाकर बॉय बोलने का संकेत तो दे ही चुके थे.
शरद पवार अगर साथ डटे हुए हैं तो ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी की आंखें खोल दी है.
सोनिया गांधी ने शिविर के बाद तय चीजों के हिसाब से कमेटियां भी बना दीं और 2 अक्टूबर कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा के लिए भी नेताओं को काम पर लगा दिया था, ये बात और है कि अब तक ये तय नहीं हो पाया है कि राहुल गांधी की प्रस्तावित यात्रा का नेतृत्व करेंगे या हरी झंडी दिखा कर रवाना कर देंगे. कंफर्म तो ये भी नहीं है कि हरी झंडी दिखाने भी जाएंगे या नहीं?
प्रवर्तन निदेशालय के नोटिस मिलने से लेकर पेशी और तीन की पूछताछ तक सोनिया गांधी को कांग्रेस नेताओं का जबरदस्त सपोर्ट तो मिला ही है, विपक्षी खेमे से भी जो मिला है वो कम नहीं है. हां, कुछ तस्वीरें साफ भी हो गयी हैं. सबसे बड़ी बात रही, सोनिया गांधी के सपोर्ट में विपक्ष की तरफ से जारी किया गया साझा बयान.
राष्ट्रपति चुनाव का मौका तो हाथ से फिसल गया: कांग्रेस सहित पूरे विपक्ष के लिए राष्ट्रपति चुनाव एकजुट होने का बेहतरीन मौका रहा. सोनिया गांधी की तरफ से तैयारियों की शुरुआत भी ठीक ठाक ही हुई थी - और काफी हद तक वैसा ही हुआ जैसा वो चाहती थीं.
सबसे पहले तो सोनिया गांधी यही चाहती थीं कि विपक्ष की तरफ से राष्ट्रपति चुनाव में कोई एक ही उम्मीदवार मैदान में उतरे, हुआ भी वैसा ही. सोनिया गांधी ये नहीं चाहती थीं कि कांग्रेस का कोई नेता उम्मीदवार बने, वजह जो भी हो हुआ तो वही.
सोनिया गांधी ने अपने भरोसेमंद नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को विपक्षी नेताओं से संपर्क करने की जिम्मेदारी सौंपी, लेकिन तभी तबीयत ज्यादा खराब हो गयी और अस्पताल में भर्ती होना पड़ा - और राहुल गांधी की प्रवर्तन निदेशालय के सामने पेशी शुरू हो गयी थी.
कोई विकल्प भी नहीं बचा था, इसलिए सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी से संपर्क कर पूरा मामला हैंडओवर कर दिया - साथ में एनसीपी नेता शरद पवार, मल्लिकार्जुन खड़गे भी आगे पीछे अपनी तरफ से प्रयासरत रहे.
ममता बनर्जी का रुख भी साफ हो गया है: मीटिंग तो ममता बनर्जी ने ही होस्ट की और सबने ये भी देखा कि उम्मीदवार भी तृणमूल कांग्रेस से ही आया - यशवंत सिन्हा, लेकिन मालूम हुआ कि वो ममता बनर्जी की पसंद नहीं थे.
बताते हैं कि यशवंत सिन्हा असल में कांग्रेस और सीपीएम की पसंद रहे - और नतीजा ये हुआ कि ममता बनर्जी ने एनडीए उम्मीदवार (अब राष्ट्रपति) द्रौपदी मूर्मू के नाम पर पूरे विपक्ष को गच्चा दे दिया.
और तो और उपराष्ट्रपति चुनाव से भी दूरी बना ली. भले ही वो कांग्रेस नेता मार्ग्रेट अल्वा के उम्मीदवार बनने की वजह से हुआ हो या फिर किसी और खास वजह से. ये भी दिलचस्प ही है कि एनडीए के उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जगदीप धनखड़ जब तक पश्चिम बंगाल के गवर्नर रहे, हर रोज लड़ाई झगड़ा होता रहा, लेकिन अब तो कोई विरोध ही नहीं है. क्या ऐसा नहीं लगता जैसे ममता बनर्जी ने विपक्ष का साथ छोड़ा और बीजेपी को ही सपोर्ट कर दिया हो.
ममता बनर्जी ने तो दिल्ली आकर सोनिया गांधी से न मिलने के सवाल पर ही साफ कर दिया था कि ऐसा कहां संविधान में लिखा है - उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार को लेकर शरद पवार से भी बात न करके ममता बनर्जी ने मैसेज तो दे ही दिया है.
अब तो शरद पवार को भी समझ लेना चाहिये कि अगर वो कांग्रेस के साथ हर मुश्किल वक्त में खड़े रहने का फैसला करते हैं तो ममता बनर्जी उस रास्ते से नहीं गुजरने वाली हैं - सोनिया के सपोर्ट वाले विपक्ष के साझा बयान से हाथ खींच लेने में भी तो ममता बनर्जी का इशारा ही समझा जाना चाहिये.
शरद पवार पर भरोसा कायम है: ये शरद पवार ही हैं जो सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस से निकाल दिये गये तो एनसीपी बना लिये. और शरद पवार ही हैं जो महाविकास आघाड़ी के गठन से पहले मनमाने तरीके से शिवसेना के साथ डील करा रहे थे, लेकिन बीते साल भर से शरद पवार हर कदम पर सोनिया गांधी के साथ खड़े पाये गये हैं.
पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद ममता बनर्जी के कहने पर शरद पवार कांग्रेस को किनारे रख कर विपक्षी दलों की मीटिंग में सक्रियता दिखा रहे थे, लेकिन कमलनाथ के जरिये सोनिया गांधी का संदेश मिलते ही वो ममता बनर्जी की भी औकात बता डाले. मुंबई जाकर भी ममता बनर्जी ने काफी समझाया बुझाया, लेकिन वो कांग्रेस को छोड़ कर ममता का साथ देने को तैयार नहीं हुए.
और ऐसी मुश्किल घड़ी में ही शरद पवार, सोनिया गांधी के साथ ही खड़े रहे हैं. राष्ट्रपति चुनाव से लेकर उपराष्ट्रपति चुनाव तक हर कदम पर - और ममता बनर्जी दोनों ही नेताओं से दूर जा चुकी हैं. अभी तो ऐसा ही है, आगे जो भी हो.
कांग्रेस में अब सब साथ साथ हैं!
G-23 तो नाम ही रह भी गया था. ग्रुप के सदस्यों की निष्ठा की कौन कहे, कई नेता तो कांग्रेस का साथ भी छोड़ चुके थे. सबसे महत्वपूर्ण रहा कपिल सिब्बल का कांग्रेस छोड़ कर चले जाना. हालांकि, समाजवादी पार्टी का सपोर्ट मिलने के बाद भी वो राज्य सभा सदस्य निर्दलीय ही हैं - और हाल फिलहाल देखा जाये तो बयानों से तो नहीं लगता कि वो कांग्रेस छोड़ चुके हैं. मुद्दे भी वही उठा रहे हैं जो कांग्रेस नेता रहते उठाते रहे. बातें भी बिलकुल वैसी ही हैं. भले ही वो सोनिया गांधी से ईडी की पूछताछ का ही मामला क्यों न हो.
21 जुलाई को सोनिया गांधी से पूछताछ के पहले दिन बागियों के गुट से मनीष तिवारी और शशि थरूर का सड़क पर उतरना भी तो कांग्रेस के उसी खाते में दर्ज माना जाएगा. क्या फर्क पड़ता है कि अग्निवीर योजना के मुद्दे पर वो केंद्र की मोदी सरकार के साथ खड़े दिखायी पड़ रहे हों.
आपको ध्यान होगा, CWC के सदस्यों ने सोनिया गांधी के सपोर्ट में ईडी की पूछताछ के खिलाफ गिरफ्तारी दी थी. राहुल गांधी के लिए ऐसा कुछ भी नहीं किया था. मनीष तिवारी और शशि थरूर ने भी.
लेकिन सबसे खास बात है गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा अरसा बाद कांग्रेस की मुख्यधारा में लौटे दिखायी पड़ रहे हैं. बड़े दिनों बाद दोनों को कांग्रेस दफ्तर में प्रेस कांफ्रेंस करते देखा गया था. 2020 में गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में ही 23 कांग्रेस नेताओं ने सोनिया गांधी को एक पत्र लिख कर पार्टी के लिए स्थायी कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की मांग की थी. एक छोटी सी शर्त भी थी कि ऐसा अध्यक्ष जो वास्तव में काम करता हुआ भी दिखे. जाहिर है ऐसी बात नेताओं ने राहुल गांधी के अध्यक्ष रहते उनके कामकाज को देख कर ही दिया था.
तभी से गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा को कांग्रेस दफ्तर में बैठ कर प्रेस कांफ्रेंस करते नहीं देखा गया था. ऐसे भी समझ सकते हैं कि दोनों नेताओं की नाराजगी खत्म हो गयी है. ये भी हो सकता है कि दोनों के पास कोई विकल्प भी न बचा हो - वैसे भी उदयपुर के कांग्रेस चिंतन शिविर में ही कांग्रेस की बागी नेताओं के शांत होने के संकेत मिल गये थे.
समझने का ये भी तरीका हो सकता है कि सोनिया गांधी की राजनीति कौशल के शिकार होकर सारे बागी एक एक करके बिखर गये. मुकुल वासनिक तो बागियों की चिट्ठी पर साइन करने के फौरन बाद ही इमोशनल अत्याचार करने लगे थे. बाद में शायद ही कभी वो बागी नेताओं के साथ खड़े दिखायी दिये हों, तभी तो राज्य सभा के लिए सोनिया गांधी को मुकुल वासनिक का ही नाम सबसे फायदेमंद लगा.
बागियों में जनाधार वाले मजबूत नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा, सोनिया गांधी के लिए बड़े सिरदर्द रहे. 2019 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में उनका जौहर सबने देखा ही था. तब तो ये भी चर्चा रही कि अगर सोनिया गांधी ने समय से उनको सूबे में पार्टी की कमान सौंप दी होती तो कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो सकती थी - बीजेपी बहुमत से पीछे रह गयी थी तो ये हुड्डा का ही कमाल था.
चिट्ठी लिखने के बाद केसरिया साफा बांध कर जम्मू-कश्मीर से कांग्रेस नेतृत्व को चैलेंज करने और मोदी सरकार से पद्म पुरस्कार तक हासिल कर लेने वाले गुलाम नबी आजाद का कांग्रेस दफ्तर सोनिया गांधी के बचाव का तरीका भी देखने लायक रहा.
गुलाम नबी आजाद ने कहा, 'जंग में भी नियम होते थे कि औरत और बीमार पर हाथ नहीं उठाना है... तबीयत ठीक नहीं है... उन बेचारी को क्यों परेशान कर रहे हैं? ये जरूरत से ज्यादा हो रहा है... सोनिया गांधी की सेहत के साथ खेलना अच्छा नहीं होगा.'
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