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Updated: 19 जुलाई, 2022 10:01 PM
बिलाल एम जाफ़री
बिलाल एम जाफ़री
  @bilal.jafri.7
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उप-राष्ट्रपति पद और राष्ट्रपति पद के लिए मार्गरेट अल्वा और यशवंत सिन्हा का चयन, विपक्ष के भीतर कांग्रेस के बिगड़ते और घटते दबदबे को इंगित करता है. कांग्रेस नेतृत्व के पास प्रतिष्ठित पदों के लिए उम्मीदवारों की पसंद के बारे में गैर-एनडीए दलों के साथ बातचीत करने और उन्हें मनाने के लिए महीनों का समय था. लेकिन वही हुआ जिसका अंदेशा पहले था. बात नहीं बनी. सोनिया और राहुल गांधी दोनों सक्रिय होने में विफल रहे, उन्होंने शरद पवार, ममता बनर्जी और सीताराम येचुरी को सारी जिम्मेदारी सौंप दी. कांग्रेस, जिसमें मल्लिकार्जुन खड़गे और जयराम रमेश शामिल थे, पवार और येचुरी के साथ गए.

अल्वा, जो खुद एक अनुभवी कांग्रेसी नेता हैं, गांधी परिवार की जानी-मानी आलोचक रही हैं. ध्यान रहे जुलाई 2016 में प्रकाशित उनके संस्मरण - 'साहस और प्रतिबद्धता' ने एक नयी बहस का आगाज किया था. तब उन्होंने कांग्रेस नेतृत्व पर कुछ प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षक कटाक्ष किये थे. जनता दल और भाजपा जैसी कांग्रेस विरोधी पार्टियों से आने वाले सिन्हा का गांधी परिवार - इंदिरा, राजीव, सोनिया और राहुल का विरोध करने का एक लंबा और ठोस ट्रैक रिकॉर्ड है. अल्वा ने अपने संस्मरण में अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले के आरोपी क्रिश्चियन मिशेल के पिता वोल्फगैंग मिशेल से कांग्रेस के संबंधों के बारे में भी लिखा था.

Congress, Margret Alva, Vice President, Yashwant Sinha, Sonia Gandhi, Rahul Gandhi, BJP, Narendra Modiर्व में तमाम मौके आए हैं जब अल्वा सोनिया गांधी की तीखीं स=आलोचना कर चुके हैं

कांग्रेस का एक वर्ग एक और कारण से गांधी परिवार की निष्क्रियता पर अफसोस जताता है. उनके अनुसार, कांग्रेस और गांधीवादी खुद को लोकतंत्र के डेविड के रूप में दिखा सकते थे, उपाध्यक्ष और अध्यक्ष के पद के लिए आलोचकों और असंतुष्टों को मैदान में उतार सकते थे. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए के वफादारों को चुनने में कांग्रेस भी कई महत्वपूर्ण जगहों पर चूकि, जबकि विपक्ष ने मुखर विरोधियों का विकल्प चुना.

संयोग से, अल्वा की सास, वायलेट, एक स्वतंत्रता सेनानी और राज्यसभा की डिप्टी चेयरपर्सन, 1969 में उपराष्ट्रपति चुनाव के लिए उम्मीदवार रह चुकी थीं, ये वो समय था जब राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु हो गई थी और मौजूदा उपराष्ट्रपति वीवी गिरी को उप-राष्ट्रपति पद की आवश्यकता के कारण पदोन्नत किया गया था. चुनाव. इंदिरा ने कथित तौर पर वायलेट के दावे को खारिज कर दिया था, और पूर्व केंद्रीय मंत्री और राज्यपाल जीएस पाठक को मैदान में उतारा था. बमुश्किल चार महीने बाद, वायलेट ने नवंबर 1969 में राज्यसभा के उप सभापति के रूप में इस्तीफा दे दिया था और फिर कुछ दिनों बाद ही उनकी मौत हो गयी थी. 

कांग्रेस को लेकर अल्वा में बेचैनी और असंतोष 

कांग्रेस में मार्गरेट अल्वा का लंबा और प्रतिष्ठित करियर असंतोष और बेचैनी से भरा रहा है. 1978 में, जब 1977 की चुनावी हार के बाद कांग्रेस का विभाजन हुआ, अल्वा ने देवराज उर्स और शरद पवार के साथ हाथ मिलाने के लिए इंदिरा गांधी के समूह को छोड़ दिया था. हालांकि, वह कांग्रेस में लौट आईं और उन्हें राजीव गांधी सरकार में मंत्री की जिम्मेदारी दी गई.

आने वाले वर्षों और दशकों में, अल्वा की कांग्रेस में उच्च और शक्तिशाली लोगों के साथ कई झड़पें हुईं. 2008 में, जब यूपीए सत्ता में थी, उन्होंने पार्टी की कर्नाटक इकाई पर 'विधानसभा टिकट बेचने' का आरोप लगाया, जिसने पार्टी के आकाओं को आहत किया और इसने अल्वा की राजनीति तक को प्रभावित किया.

अल्वा हालांकि अचंभित रहीं. अपने संस्मरणों में, उन्होंने दावा किया कि उनके परिवार और उसकी प्रतिष्ठा को एक चुनौती के रूप में देखा गया था. अपने संस्मरण में उन्होंने लिखा है कि 'एक बार मैंने यह कहने की गलती की थी कि 'अल्वास एकमात्र राजनीतिक परिवार है जिसके पास संसद में लगभग आधी सदी के लिए ब्रेक के बिना सदस्य हैं और ये पूरे परिवार के लिए एक बड़ी चुनौती है. बाद में अपने इस बयान के लिए अल्वा को तमाम तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा.

जब राव ने सोनिया के सचिव का राज्यसभा का नामांकन ठुकराया

दिलचस्प बात यह है कि 1992 में राज्यसभा के लिए अल्वा की उम्मीदवारी ने तत्कालीन प्रधान मंत्री पीवी नरसिम्हा राव और सोनिया गांधी के बीच खूब खटास भी पैदा की. राव ने जनवरी 1992 में मार्गरेट अल्वा के पक्ष में सोनिया के निजी सचिव विंसेंट जॉर्ज के लिए राज्यसभा के नामांकन से इनकार कर दिया, जो उनके लिए खासा महंगा साबित हुआ.

तब हुआ कुछ यूं था कि कांग्रेस को कर्नाटक से राज्यसभा के लिए पार्टी के उम्मीदवारों का चयन करना था, और पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं ने मार्गरेट अल्वा के खिलाफ गुटबंदी की, इन लोगों ने जॉर्ज का प्रचार किया, मामले में दिलचस्प ये रहा कि जॉर्ज केरल के रहने वाले थे. राव जॉर्ज के नाम को स्पष्ट करने में झिझक रहे थे, हालांकि पार्टी के लगभग सभी बड़े लोग, विशेष रूप से के करुणाकरण और अर्जुन सिंह, चाहते थे कि उन्हें नामांकित किया जाए.

सोनिया गांधी की ओर से न तो जॉर्ज के पक्ष में और न ही विरोध में कोई शब्द था. जब राव रूस के लिए जा रहे थे, तो उन्होंने सोनिया से बात की और पूछा कि क्या वह चाहती हैं कि जॉर्ज उच्च सदन में रहे. सोनिया, जिन्होंने मई 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस का नेतृत्व करने से इनकार कर दिया था, ने स्पष्ट किया कि यदि पार्टी जॉर्ज को टिकट देना चाहती है, तो निर्णय योग्यता और राजनीतिक विचारों को ध्यान में रखते हुए होना चाहिए. राव बात समझ गए. जब विदेश से उम्मीदवारों की सूची फैक्स की गई तो जॉर्ज को टिकट से वंचित कर दिया गया और सूची में अल्वा का नाम था.

यह मुद्दा अविश्वास का एक प्रमुख कारक था जिसने अगले चार वर्षों (1992-96) में 10 जनपथ और 7 रेस कोर्स रोड के बीच संबंधों की विशेषता बताई. यह दावा किया गया था कि सोनिया के निजी सचिव, राव को लगभग अपना दुशमन मान बैठे थे . जॉर्ज दोनों के बीच की खाई को चौड़ा करने के लिए अकेले जिम्मेदार थे, और उन घटनाओं में उनकी भूमिका थी जो अंततः 1995 में पार्टी के विभाजन का कारण बनी जब कांग्रेस (तिवारी) का गठन हुआ और 1996 के आम चुनावों में पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा. 

अपने संस्मरण में सोनिया को भी निशाने पर ले चुकी हैं अल्वा'

अपने संस्मरणों में अल्वा ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर कई कटाक्ष किए हैं. उन्होंने सोनिया पर 'मनमाने ढंग से' पार्टी चलाने का आरोप लगाया और दावा किया कि उन्हें अक्सर मनमोहन सिंह ने कहा था कि वह उन्हें (अल्वा) अपने मंत्रिमंडल में चाहते हैं, लेकिन सोनिया ने इसे वीटो कर दिया.

अल्वा के संस्मरणों में एक घटना का उल्लेख है जब राव सरकार ने बोफोर्स मामले में शिकायतों को खारिज करने के दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की और सोनिया को यह कहते हुए उद्धृत किया,'प्रधानमंत्री क्या करना चाहते हैं? क्या वो मुझे जेल भेजना चाहते हैं?

अल्वा ने सोनिया गांधी को कोट करते हुए संस्मरण में कहा था कि "कांग्रेस सरकार (राव शासन) ने मेरे लिए क्या किया है? यह घर (10 जनपथ) मुझे चंद्रशेखर सरकार ने आवंटित किया था.

बहरहाल, उपरोक्त बातों से साफ़ है कि चाहे वो अल्वा हों या सोनिया गांधी दोनों के बीच गहरी खाई है. ऐसे में जब विपक्ष ने अल्वा को उप राष्ट्रपति का उम्मीदवार बना ही दिया है तो सोनिया गांधी को यूं भी शांत रहना चाहिए क्योंकि कांग्रेस और विपक्ष की मंशा पीएम मोदी को हार का मजा चखाना है. ऐसे में सोनिया के पास अल्वा को बर्दाश्त करने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है.

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लेखक

बिलाल एम जाफ़री बिलाल एम जाफ़री @bilal.jafri.7

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं.

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