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Updated: 15 जनवरी, 2019 10:44 PM
नवेद शिकोह
नवेद शिकोह
  @naved.shikoh
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भारतीय सियासत में उतरी सबसे ताजातरीन पार्टी- प्रगतिशील समाजवादी पार्टी-लोहिया (प्रसपा) - के अध्यक्ष शिवपाल यादव आगामी लोकसभा चुनाव में किंग मेकर होने का दावा कर रहे हैं. यानी 2019 लोकसभा चुनाव के लिए सत्ता की चाबी उनके पास ही होगी. शिवपाल के इस बयान के चौबीस घंटे बाद चुनाव आयोग ने प्रसपा को चाबी चुनाव चिन्ह दे दिया. इस बात में कोई शक नहीं कि चाबी वाकई बहुत अच्छा चुनाव चिन्ह है. अर्थपूर्ण है. खास-ओ-आम के उपयोग की चीज है. हर जुबान पर आसानी से आ जाने वाला चिन्ह है. हर राजनीतिक दल यही चाहता है कि उसे आम इंसान की जुबां पर आने वाला और अर्थपूर्ण चुनाव चिन्ह मिले. शिवपाल भी यही चाहते थे. वो तो पहले से ही कह रहे थे कि वो सत्ता की चाबी बनने जा रहे हैं. अब जब उन्‍हें चुनाव आयोग से चाबी के रूप में चुनाव चिन्ह मिल गया है, तो चर्चा चल रही है कि ऐसा केंद्र की मेहरबानी के बिना नहीं हो सकता.

भाजपा से उनका अंदरूनी रिश्ता है या मिलीभगत है. लेकिन जरूरी नहीं कि लोगों की इस किस्म की शंकाओं में कोई दम हो. ये भी हो सकता है कि प्रसपा प्रमुख की अटूट कोशिश-चाहत, विवेक और भाग्य से उन्हें ये चुनाव चिन्ह मिला हो. ये तमाम बातें तो चुनाव चिन्ह की थीं. अब उनके राजनीतिक भविष्य और मौजूदा वक्त की बात की जाये तो ये भी नजर आ रहा है कि शिवपाल यादव के हाथों से सत्ता की चाबी खो भी सकती है. उनके राजनीतिक भविष्य की भी चाबी गुम हो सकती है.

शिवपाल यादव, प्रगतिशील समाजवादी पार्टी, चाभी, चुनाव चिन्ह  शिवपाल यादव की नई पार्टी का चुनाव चिन्ह भी ठीक उसी तरह सुर्खियों में है जैसे उनकी राजनीति

बेटे समान भतीजे और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने शिवपाल को इसकद्र नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था कि मजबूरन उन्हें अपनी पार्टी का गठन करना पड़ा. इसके बाद भी शिवपाल यादव नम्र रहे और सपा में अपनी सम्मानजनक वापसी के लिए अखिलेश यादव को संकेत देते रहे. फिर उन्होंने साफ कहा कि वो सपा-बसपा गठबंधन में शामिल होना चाहते हैं. इस सब के बावजूद सपा-बसपा गठबंधन के एलान वाली अखिलेश-मायावती की पहली प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने शिवपाल पर भाजपा की मिलीभगत के आरोप लगाये.

जबकि सच ये है कि सपा-बसपा नेताओं से ज्यादा शिवपाल भाजपा सरकार के खिलाफ जहर उगल रहे हैं. जिससे ये जाहिर होता है कि शिवपाल यादव भाजपा के गठबंधन में शामिल नहीं हो सकते और ना ही फ्रेंडली फाइट की कोई गुंजाइश है. क्षेत्रीय राजनीति करने वाले दलों के बड़े नेताओं के लिए भी लोकसभा सीट जीतना आसान नहीं होता है, ऐसे में नवगठित प्रसपा के लिए बिना गठबंधन के एक भी सीट भी जीतना आसान नहीं है.

और तब जब दलितों-पिछड़ों के वोट बैंक को गोलबंद करने के लिए यूपी की एक एक सीट पर सपा-बसपा गठबंधन मजबूती से लड़ने जा रहा है. भाजपा की लहर भी अभी बहुत कमजोर नहीं हुई है और भाजपा गठबंधन भी मजबूती से लड़ेगा. कहने को तो यूपी में कांग्रेस भी जोर लगाने जा रही है, लेकिन उसकी कोशिश यही है कि उसके किसी दाव से सपा-बसपा गठबंधन का ऐसा नुकसान न हो, जिसका फायदा भाजपा उठा ले जाए. अब इसी कड़ी में शिवपाल यादव का दाव मोदी-विरोधी पार्टियों के लिए नई चुनौती बन गया है.

शिवपाल यादव मंगलवार को कह चुके हैं कि वे राज्‍य की 79 सीटों पर अपने उम्‍मीदवार उतारेंगे. हालांकि, कहा ये भी जा रहा है कि उनकी कोशिश कांग्रेस के साथ तालमेल करने की है. क्‍योंकि, सपा-बसपा गठबंधन में जगह न मिलने के बाद उनके पास कांग्रेस ही एकमात्र सहारा है सूबे की राजनीति में सम्‍मानजनक वापसी का. लेकिन राजनीतिक जानकार शिवपाल के इस दाव को भाजपा की रणनीति का ही हिस्‍सा मान रहे हैं. यदि शिवपाल यादव कांग्रेस के साथ मिलकर उत्‍तर प्रदेश में तीसरी ताकत बनते हैं, तो वे सपा-बसपा का ही वोट काटेंगे.

शिवपाल यादव लगातार इस कोशिश में लगे हैं कि कांग्रेस उनके लिए सम्मानजनक कुछ सीटें छोड़ दें. कांग्रेस नेता अहमद पटेल, सलमान खुर्शीद और राजबब्बर से उनकी बात हो चुकी है. लेकिन राहुल गांधी ने अभी इस पर कोई फैसला नहीं किया है. यदि कांग्रेस ने प्रसपा के लिए चंद सीटें नहीं छोड़ीं तो शिवपाल यादव की सत्ता की चाबी ही नहीं उनके राजनीतिक भविष्य की भी चाबी गुमनामी के अंधेरों में खो सकती है. हां, लोकसभा चुनाव 2019 के लिए प्रसपा वोट-कटवा तो बन ही सकती है.

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नवेद शिकोह नवेद शिकोह @naved.shikoh

लेखक पत्रकार हैं

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