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शिवाजी महाराज या औरंगजेब में भारत का बड़ा 'हीरो' कौन, दोनों का एक साथ हीरो बनना क्यों असंभव है?
यह हैरानी का विषय है कि एक दूसरे के खिलाफ खूनी संघर्ष करने वाले और जान लेने वाले सभी पक्षों को देश का नायक कैसे माना जा सकता है. यह बिल्कुल असंभव धारणा है बावजूद शिवाजी को हीरो मानने वालों के साथ ही औरंगजेब को भी हीरो मानने वाले लोग हैं. औरंगजेब को हीरो मानने वाले लोग कौन हो सकते हैं आइए इस बारे में जानते हैं.
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मध्यकालीन इतिहास ने आज के भारत के सामने एक बहुत ज्यादा परेशान करने वाला और चिंताजनक सवाल खड़ा कर दिया है. खासकर ज्ञानवापी विवाद के बाद सवाल से जुड़े खतरनाक नतीजों की आशंका परेशान कर रही है. दुर्भाग्यपूर्ण है कि सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी से बचने की कोशिश कर रहे हैं. और शहरी भारत में एक भय का माहौल नजर आने लगा है. छत्रपति शिवाजी महाराज और औरंगजेब में भारत का हीरो कौन हो सकता है?
किसी विकल्प या तुलना में औरंगजेब बार-बार क्यों आ रहा है, अब इस ओर संवेदनशीलता और जिम्मेदारी से देखने की सख्त जरूरत है. या फिर भविष्य में भड़काऊ चीजों से बचने के लिए संसद एक क़ानून बनाकर औरंगजेब को हीरो घोषित कर दे. समूचा देश उसे मान लेगा. जब सार्वजनिक और आधिकारिक रूप से देश में औरंगजेब को हीरो नहीं माना जाता फिर इतना भ्रम बार-बार लगातार क्यों उपज रहा है भला? क्या इसकी वजह मुग़ल बादशाह का धर्म है. या फिर इसके पीछे भूगोल और दूसरी वैज्ञानिक चिंताएं हैं.
देश के जिम्मेदार नेताओं का तो नहीं पता. लेकिन मुझे लगता है कि धर्म वजह नहीं है. ऐसा होता तो निकहत जरीन के बहाने एमसी मैरिकॉम पर निशाना नहीं साधा जाता. मैरिकॉम ने 9-1 से रौंदकर निकहत की अंधी धारणाओं का जवाब पहले भी दे चुकी हैं. बावजूद अभी भी निकहत बनाम मैरिकॉम के उदाहरण से एक 'भूगोल की श्रेष्ठता' के नाम पर एक धार्मिक मकसद को लोकप्रिय बनाने की कोशिशें हो रही हैं. दुर्भाग्य से वह अपनी संकीर्णता की वजह से 'अलोकप्रिय' ही साबित हुई. यह औरंगजेब को जबरदस्ती विकल्प देने का ही नतीजा है कि हिजाब को लेकर निकहत और असदुद्दीन ओवैसी की राय में कोई फर्क नहीं है. हिजाब में भारतीय प्रधानमंत्री देखने से जुड़ा ओवैसी जैसे लोगों का मकसद तो समझा जा सकता है भला निकहत का मकसद क्या है? जब बताया जा रहा कि खतरनाक नतीजों की आशंका से परेशान होना चाहिए तो हम अब भी हाथ पर हाथ धरे रखकर क्यों बैठना चाहते हैं भला?
निकहत जरीन
कितने झूठे और नकली हैं हम लोग. वाकई सोचने वाली और हैरान करने वाली भी. एक ही दौर में शिवाजी महाराज-संभाजी महाराज जिस आततायी औरंगजेब के खिलाफ संघर्ष करते हैं- हमारा देश तीनों को हीरो मान बैठा है. सबसे बड़े झूठ की कडुवी सच्चाई यह है कि तीनों को मानने वालों की कमी नहीं है. एक ऐसी सच्चाई जिसे मूर्त कर पाना असंभव है. बिल्कुल उसी तरह कि आप सूरज को रात में वाट्सएप कर दें कि वह अगली सुबह पश्चिम में उगे. फिर उसे उत्तर-दक्षिण में भी उगने के लिए कहें और 'सूरज अंकल' मान भी लें. तीनों उसी स्थिति में एक साथ हीरो रह सकते हैं- जब सूरज भारत के महानगरीय अंग्रेजीपरस्त अभिजात्य बुद्धिजीवी वर्ग के कहने पर अपनी दिशाएं बदलने में सक्षम हो जाएगा. कौन इस तरह के असंभव के इंतज़ार में बैठा है?
हां एक गुंजाइश है. लेकिन उस गुंजाइश में भी औरंगजेब को हीरो साबित करने की प्रक्रिया में लंबा समय लगेगा. अगर औरंगजेब के प्रशंसक भारत के भूगोल में अनुवांशिकी के लक्ष्य हासिल कर लेते हैं तो जो ज्यादा से ज्यादा 50 या सौ साल की बात होगी. उस स्थिति में औरंगजेब या अकबर के सामने किसी शिवाजी-संभाजी या महाराणा प्रताप के तर्क रखे भी नहीं जाएंगे. तब हिम्मत भी नहीं करेगा कोई. कश्मीर का सबसे ज्वलंत उदाहरण सामने है. और मौजूदा भारत में सबसे चिंताजनक स्थितियां केरल, पश्चिम बंगाल, आसाम, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार के कई हिस्सों में हैं. महाराष्ट्र में भी. इन जगहों पर पिछले तीन दशक से मुखर होकर भारत विरोधी धार्मिक लक्ष्य की दिशा में काम हो रहा है. संवैधानिक दायरे में ही. यहां ज्यादा से ज्यादा दो से तीन दशक में नासूर दिखने लगेगा. हो सकता है कि पहले ही हो जाए. कई अर्थ में ये इलाके कश्मीर से भी ज्यादा खतरनाक रूप ले सकते हैं अगर लोकतंत्र अस्थायीत्व का शिकार हुआ तो. कश्मीर में कम से कम प्राचीन सरनेम का 'पुछल्ला' शांतिदूतों को बार-बार अलकायदा या 'ISIS' होने की ताकत नहीं दे पाता. जो इलाके मैंने बताए वहां अनुवांशिकी दीवार लगातार कमजोर हो रही है.
औरंगजेब
अकबर औरंगजेब की तुलना में क्यों महाराणा और शिवाजी भारत के हीरो हैं?
औरंगजेब के सामने सिर्फ और सिर्फ शिवाजी महाराज और उनके बेटे संभाजी महाराज बड़ी चुनौती बनकर खड़े हैं. ठीक उसी तरह जैसे अकबर के सामने चुनौती बनकर महाराणा प्रताप खड़े होते हैं. ठीक उसी तरह जैसे देवबंद में दारूल उलूम के सामने चुनौती बनकर आर्यसमाज के साथ दयानंद सरस्वती खड़े हो जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे खिलाफत की दीर्घकालिक योजनाओं के सामने सबसे मुश्किल चुनौती बनकर सावरकर और डॉ. भीमराव अंबेडकर ही खड़े नजर आते हैं. ठीक उसी तरह भारत के भविष्य के रूप में सरदार भगत सिंह खड़े होते हैं. असल में भगत सिंह, सावरकर और अंबेडकर का मिलन बिंदु हैं. भगवंत मान के पीछे गांधी के गायब होने की सही वजह अब भी नहीं समझ पा रहे तो इसके लिए विपक्ष ईवीएम को दोष देना बंद कर दे. आपकी पहुंच अब भी अपने कुनबे से बाहर निकलकर साधारण घरों तक नहीं हो पाई है. माफ़ कीजिएगा, खिलाफत में महात्मा गांधी जी श्रद्धेय से ज्यादा पात्रता हासिल करते नहीं दिखते.
औरंगजेब निश्चित ही वीर और साहसी रहा होगा. उसके पास बेशुमार संसाधन थे. एक विशाल सल्तनत का बादशाह. तुर्की-ईरान-अरब तक मित्र. दुनिया के बड़े इस्लामिक नेताओं का आशीर्वाद. लेकिन वह जैसे ही शिवाजी या संभाजी के सामने आता है बौना बन जाता है. वह बुरी तरह से धर्मांध, कपटी, कमजोर, डरा हुआ और अन्यायी नजर आता है. इतिहास में उसकी सबसे बड़ी कमजोरी शिवाजी और संभाजी के सामने ही दिखती है. महान अकबर भी महाराणा के सामने इसी मजबूरी का शिकार बन जाता है. अकाल में पेड़ों की छाल पीसकर और चूहे खाकर रहने वाले देश को महाराणा की 'घास की रोटी' को झूठा बताकर खारिज नहीं किया जा सकता. औरंगजेब का गोवर्धन के मंदिरों को दान देने (जिसे कांग्रेस की एक वेबसाईट खूब प्रचारित कर रही है) का तर्क नहीं काम आएगा. ना ही टोपी सिलने, कच्ची कब्र गढ़ने के ऐतिहासिक तथ्य ही. भारत को पता होना चाहिए कि औरंगजेब, अकबर की तरह इस्लाम का 'रोमांटिक क्रांतिकारी' नहीं था बल्की सच्चे अर्थ में 'रिवोल्यूशनरी' था.
भारत पर अब भी जारी हैं औरंगजेब के प्राचीन वॉर क्राइम
इसी डर में उसने अपनी ही रियाया पर अनुवांशिकी बदलने के लिए 'वॉर क्राइम' के सबसे घिनौने और वीभत्स हथियार को योजनाबद्ध तरीके से लागू किया. इतिहासकार कैसे भूल जाते हैं कि मुगलों के साथ शिवाजी या महाराणा का टकराव घनानंद और चंद्रगुप्त मौर्य के बीच की राजनीतिक रस्साकसी नहीं थी जो एक हार-जीत के निष्कर्ष के साथ अपनी गति से आगे जाती दिखती है. वह युद्ध भारतीयता को नष्ट करने का था जो आज भी जारी है- नतीजों से आगे का युद्ध है. इसमें धर्मभर तो बिल्कुल नहीं है. स्वाभाविक है कि उस 'वॉर क्राइम' की 'अभारतीय उपज' औरंगजेब में हीरो का चेहरा देखती होगी. अच्छी खासी संख्या में होगी. लेकिन यह असंभव है कि 'वॉर क्राइम के विक्टिम्स' की तरह समूचा देश भी औरंगजेब को हीरो मान बकिठे. और जब मैं यह लिख रहा हूं तो अपनी भौगोलिक और वैज्ञानिक सत्य को उठाने की जिम्मेदारी के साथ समझ रहा हूं फिर लिख रहा हूं.
देश का हीरो शिवाजी या संभाजी महाराज ही होंगे और किसी नेता की कृपा से नहीं, बल्कि अपनी महानता की वजह से हैं. डॉ. अंबेडकर को ही देख लीजिए. कोई पार्टी अगर शिवाजी या अंबेडकर या भगत सिंह के चित्र को राजनीतिक रूप से इस्तेमाल कर रही है तो उसे भलीभांति पता है कि आम भारतीय के दिमाग में तीन दशक से कौन सी आशंकाएं घर किए बैठी हैं.
शिवाजी एक योद्धा के रूप में भारत के सबसे बुरे दौर में हिंदवी साम्राज्य का सपना देखते हैं. उसे पूरा भी करते हैं. समूचे भारत के लिए उनके महान लक्ष्य उनके हासिल से भी ज्यादा बड़े हैं. उन्होंने जो कुनबा बनाया वह दिल्ली की बर्बादी के सबसे वीभत्स रूप को दक्षिण में व्यापक होने से रोके रहता है. तब तक जबकि थोड़ा मानवीय दिखने वाले अंग्रेज नहीं आ जाते. भारत के बीचो-बीच अरब महासागर से लेकर बंगाल की खाड़ी तक मराठों ने एक सुरक्षित पट्टी खींची. नागपुर में भोंसले राज परिवार ने दक्षिण को बचाने के लिए किस तरह ऐतिहासक उपक्रम किए थे उस पर कभी चिंतन करना चाहिए. शायद तब कोई नेता किसी उत्तर भारतीय के पानीपुरी बेचने का मजाक नहीं उड़ाएगा और उसे अपनी मौजूदा सांस्कृतिक-औद्योगिक समृद्धि में उत्तर के ऐतिहासिक दर्द का अनुभव मिलेगा.
शिवाजी महाराज. प्रतीकात्मक फोटो.
शिवाजी जिस वजह से हीरो हैं वह भारत में जन्म लेने भर से नहीं मिलता
शिवाजी के पास कुछ नहीं था. उन्होंने लोगों को जोड़कर संगठन बनाया. सेना बनाई और साम्राज्य खड़ा कर दिया. उनका खौफ ऐसा था कि उनसे कहीं कहीं ज्यादा ताकतवर बादशाह बातचीत की कोशिश कर रहा था. मित्रता करना चाहता था. इसलिए कि मुगलों के पास सामरिक जवाब था ही नहीं. क्या औरंगजेब ने कम लालच दिए होंगे शिवाजी महाराज को? शिवाजी के पास ऐसे बहुत से मौके थे जब वे धर्म परिवर्तन के खूंखार अभियान चला सकते थे या फिर युद्ध में हासिल स्त्रियों से अनुवांशिकी लक्ष्य हासिल कर सकते थे. और मुगलों से इर्ष्या होती भी तो बदला ले सकते थे. लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति का अनुसरण किया और महिलाओं को ससम्मान वापस पहुंचाया. आक्रांता संस्कृतियों में ऐसा उदाहरण खोजे नहीं मिलेगा.
संभाजी को तड़पा-तड़पाकर मारा गया. आख़िरी हमले में उनकी जान तब ली गई थी जब वो भयावह पीड़ा झेलने के बावजूद धर्मपरिवर्तन को राजी नहीं हुए. संभाजी को टुकड़ों-टुकड़ों में काटकर चीलकौवों और मछलियों को खाने के लिए फेंका गया था जिसे बाद में वहां के लोगों ने इकट्ठा किया और सनातन संस्कार किया.
मुगलों से संघर्ष रजवाड़ों की सत्ताभर का नहीं है ज्ञानियों
मुगलों के साथ संघर्ष रजवाड़ों की सत्ता संघर्ष भर नहीं था, शिवाजी महाराज यह बात बेहतर जानते थे. उन्होंने इनकार कर दिया और उन्हें आगरा के किले में गिरफ्तार कर लिया गया. दूत तो रावण ने भी गिरफ्तार नहीं किया था. औरंगजेब के रूप में भारत को मिलने वाला यह शत्रु एक अलग भूगोल के प्रभाव में था. सोचने वाली बात है कि उस जमाने में शिवाजी महाराज ने बल बुद्धि और ज्ञान किस तरह रहा होगा कि वो आगरा के किले से निकल आते हैं. मुगलों के एक भारतीय गुलाम 'मदारी मेहतर' के साहस की वजह से अभेद्य सुरक्षा तोड़कर बाहर निकले थे शिवाजी महाराज. मुगलों की सच्चाई और न्यायप्रियता किसी सवर्ण से ज्यादा उत्तर का वाल्मीकि समुदाय आज भी याद करता है.
शिवाजी महाराज महान इसलिए हैं कि वह भारतीय परंपरा में ही आदर्श रखते हैं. उनकी सेना में भील और लड़ाकू आदिवासी बहुत संख्या में हैं. ये मुसलमान बन चुके थे. अफ़्रीकी मूल के सिदी लड़ाके भी थे जो मुसलमान बन चुके थे. हिंदवी सेना की बड़ी-बड़ी कमान इनके हाथ में थी. शिवाजी महाराज ने उनके धर्म परिवर्तन की कोशिश कभी नहीं की. वे चाहते थे कि जैसे सब भारत के होकर रहते आए हैं तो ये भी रह ही सकते हैं. उनके लिए मस्जिदें तक बनवाई उन्होंने.
शिवाजी महाराज के पास ऐतिहासिक वक्त था. वे 'अनुवांशिकी विश्वयुद्ध' पर जवाब दे सकते थे. मगर उन्होंने न्यायप्रियता दिखाई और फैसला भविष्य पर छोड़ा. वे भविष्य को भांपने में भूल कर बैठे शायद. हमारा दुर्भाग्य है कि शिवाजी के बाद मराठों में छोटे मकसद प्रभावी हुए. बंटवारा हुआ और साहसी विद्वान संभाजी महाराज भी मात्र 31 साल की उम्र में क़त्ल कर दिए गए.
औरंगजेब और शिवाजी महाराज को लेकर नेताओं-जनता के विचार में इतना बड़ा अंतर क्यों है
ओवैसी के अलावा किसी नेता को औरंगजेब की सार्वजनिक प्रशंसा करते नहीं देखा गया है. भारत का कोई मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री नहीं दिखता. जो उसकी निंदा करने से बचते हैं- वे भी शिवाजी का महिमामंडन करके संतुलन बनाने की कोशिश में रहते हैं. बावजूद वो संतुलन आम जनता के विचारों से मेल नहीं खाता. यह वो बिंदु है जहां शरद पवार, एमके स्टालिन, चंद्रशेखर राव, ममता बनर्जी और अखिलेश यादव जैसे ना जाने कितने नेताओं को हार मान लेनी चाहिए. सच उन्हें पता है, लेकिन उनके छोटे-छोटे मकसद देश को अराजकता के अंधे कुएं में धकेलते नजर आ रहे हैं.
दूसरी तरफ खड़े शिवाजी महाराज को किसी आधिकारिक घोषणा की जरूरत भी है क्या? सरकारें, नेता और एकेडमिक्स उनका नाम नहीं भी लें बावजूद कोई असर नहीं पड़ता. शिवाजी, शिवाजी होने की वजह से हीरो हैं इसलिए नहीं कि कोई संघ, कोई शरद पवार या कोई राज ठाकरे उनका नाम लेते रहते हैं. नेताओं को समझना चाहिए देश में अब शिक्षा का स्तर बहुत बेहतर है और हर आदमी के हाथ में मोबाइल के रूप में चलती फिरती पुस्तकालय है. इतिहास और भूगोल पर आधारित दुनियाभर की फ़िल्में हैं. जैसे पहले जनता को बहलाया जाता था- अब नहीं बहलाया जा सकता.
झगड़ा हिंदू मुस्लिम का या कुछ और?
रैलियों में झूठी लाल डायरी और कागज़ के टुकड़ों को लहराकर चुनाव नहीं जीता जा सकता. कागज़ की पर्ची से इमरान खान भी अपनी कुर्सी नहीं बचा पाया- ताजा उदाहरण है. तो निश्चित ही यह कुर्सी की राजनीतिक लड़ाई को अलग रखने का वक्त है. यह अनुवांशिकी के खिलाफ 'धर्म युद्ध' है जो हिंदू मुस्लिम सिख या ईसाई जैसे पंथों से कहीं-कहीं ज्यादा हजारों साल से सुरक्षित डीएनए को फिर से संक्रमित होने से बचाने को लेकर भी है. पुरानी सामजिक अंधता को तोड़ने का है और उनका कड़ुआ सच बताने का है. हमारी सभ्यता में हजारों साल के संघर्ष से जो श्रेष्ठ 'मानवीय संस्कृति' निकली है उसे बचाने का भी है. उन्हें सच के साथ आगे आना चाहिए और दयानंद सरस्वती ने क्या काम किया उसे बताना चाहिए. हकीकत में ज्योतिबा फुले किसलिए अपने आप में महान बन जाते हैं उसे बताना चाहिए. डॉ. अंबेडकर, ईसाई या मुसलमान क्यों नहीं बनते हैं उसे भी बताना चाहिए. और यह भी बताना चाहिए कि 90 के दशक में वीपी सिंह का मंडल लाना और पीवी नरसिम्हा राव का उदारवाद के लिए कालीन बिछाने के पीछे मकसद क्या है.
नेता अब भी पता नहीं क्यों इस बात पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं कि भारत में हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई का झगड़ा राजनीतिक धार्मिक है. जबकि हकीकत में यह मानवीय व्यवस्था में अनुवांशिकी बदलने का वह 'विश्वयुद्ध' है जो इस्लाम के उदय से कई कई हजार साल पहले से जारी है. हमेशा उसके निशाने पर भारत और उसकी सभ्य समृद्ध संस्कृति ही रही है. भारत का दुर्भाग्य है कि मुगलों की सत्ता जाने के बावजूद 'अनुवांशिकी' के विश्वयुद्ध में यौन अपराधों के ऐतिहासिक प्रयास रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं. वह भी उस स्थिति में जब कृष्ण आधुनिक भारत के भी आदर्श नजर आते हैं. हम किन वजहों से भूल जाते हैं कि नरकासुर के खिलाफ निर्णायक असीरियाई युद्ध में कृष्ण ने एक निष्कर्ष दिया था.
पक्ष-विपक्ष के नेता सच्चाई को देखकर जिस तरह मुंह मोड़ रहे हैं- उन्हें नहीं पता कि 'अनुवांशिकी विश्वयुद्ध' देश में सबसे खतरनाक नतीजे पर है जिसके आगे बर्बादी के अलावा कुछ और हो ही नहीं सकता. ईरान अफगानिस्तान इसका बड़ा सबूत हैं. पाकिस्तान और बांग्लादेश की स्थितियों पर परदा डालकर बात करने की जरूरत वहां के जनसांख्यिकीय बदलाव ने बहुत पहले ही ख़त्म कर दी है. श्रीलंका ने उसे अपनी तरह से डील करना चाहा और दुष्परिणाम सामने हैं. इन सबमें म्यांमार का मॉडल है जो हमारा कभी नहीं होना चाहिए.
हमारा मॉडल संविधान और क़ानून है. भारत का हीरो औरंगजेब की बजाय शिवाजी ही रहें इसके लिए संविधान और क़ानून का डर और सम्मान दोनों जरूरी है. डर या सम्मान का ज्यादा और कम होना भी बुरा है. कॉमन सिविल कोड के लिए सर्वश्रेष्ठ समय है. सवाल है कि सत्तालोलुप नेता तैयार हैं क्या?