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Updated: 15 जुलाई, 2021 09:46 PM
रमेश ठाकुर
रमेश ठाकुर
  @ramesh.thakur.7399
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नेपाल में पक्ष और विपक्ष के दरम्यान बीते पांच महीनों से सत्ता को लेकर सियासी जंग छिड़ी हुई थी. प्रधानमंत्री की कुर्सी हथियाने के लिए दोनों में युद्ध जैसी जोर आजमाइश हो रही थीं. अन्त: जंग में आखिरकार सफलता विपक्षी दलों के हाथ लगी. उम्मीद थी नहीं कि शेर बहादुर देउबा को देश की कमान सौंपी जाएगी, ज्यादा उम्मीद तो जल्द संसदीय चुनाव होने की थी. क्योंकि इसके लिए नेपाल चुनाव आयोग ने तारीखें भी मुकर्रर की हुई थीं. संभव: 12 या 19 नवंबर को संसदीय चुनाव होने थे. पर, सुप्रीम कोर्ट ने सब कुछ उलट-पुलट कर रख दिया. फिलहाल, इसके साथ ही एक बार फिर नेपाल में सत्ता परिवर्तन हुआ है.

सुप्रीम कोर्ट ने पुराने मामलों में सीधा दखल देते हुए मौजूदा राष्ट्रपति विधा देवी भंडारी के दोनों महत्वपूर्ण फैसलों को बर्खास्त कर दिया. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने दोनों ही निर्णयों में भंडारी के व्यक्तिगत स्वार्थ को देखा. पहला, उन्होंने गलत तरीके से केपी शर्मा ओली को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने की इजाजत दी. वहीं, दूसरा उनका निर्णय उनके मनमुताबिक वक्त में देश के भीतर चुनाव कराना? हालांकि वैसे विपक्षी दल भी तुरंत चुनाव चाहते थे. लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट ने कोरोना महामारी का हवाला देते हुए चुनाव न कराने और प्रधानमंत्री पद से ओली को हटाकर उनकी जगह उचित व्यक्ति के हाथों सरकार की बागडोर सौंपने का फार्मूला सुझाया तो विपक्षी दल बिना सोचे राजी हो गए. उसके बाद सुप्रीम के आदेश से एक बार फिर नेपाल की सत्ता शेर बहादुर देउबा को सौंपी गई.

KP Oli, Nepal, Prime Minister, Sher Bahadur Deuba, Election, Coronavirus, Lockdownसुप्रीम कोर्ट की बदौलत नेपाल में एक बार फिर सत्ता देउबा को हासिल हुई है

तल्खी के अंदाज में जब चीफ जस्टिस चोलेन्द्र शमशेर राणा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने खुलेआम राष्ट्रपति विधा देवी भंडारी के निर्णयों की आलोचनाएं की तो सत्ता पक्ष के पास कोई दलीलें नहीं बचीं. चीफ जस्टिस ने साफ कहा राष्ट्रपति ने निचले सदन को असंवैधानिक तरीके से भंग किया था, जो नहीं किया जाना चाहिए था.

गौरतलब है, हमारे पहाड़ी राज्य उत्तराखंड की तरह ही नेपाल भी लगातार राजनैतिक अस्थिरता झेल रहा था. फिलहाल दोनों जगहों पर मुखियों की नियुक्तियां हो चुकी हैं. उत्तराखंड  में पुष्कर सिंह धामी के रूप में नए मुख्यमंत्री, तो पड़ोसी देश नेपाल को नया प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के रूप में मिला है. दोनों के क्षेत्र एक दूसरे से जुड़े है, इसलिए इन क्षेत्रों की राजनीति भी कमोबेश एक दूसरे से मेल खाती है. नेपाल की सियासत में भारतीय राजनीति का असर हमेशा रहता है.

जैसे, दोनों मुल्कों की सीमाएं आपस में जुड़ी हैं, ठीक वैसे ही राजनीतिक तार भी आपस में जुड़े रहते हैं. आवाजाही में कोई खलल नहीं होता. आयात-निर्यात भी बेधड़ होता है. पर, बीते कुछ महीनों में इस स्वतंत्रा में कुछ खलल पड़ा था. उसका कारण भी सभी को पता है. दरअसल, ओली का झुकाव चीन की तरफ रहा, चीन जिस हिसाब से नेपाल में अपनी घुसपैठ कर रहा है. उससा नुकसान न सिर्फ उनको होगा, बल्कि उसका अप्रत्यक्ष असर भारत पर भी पड़ेगा. लेकिन शायद नए प्रधान शेर बहादुर देउबा के आने से विराम लगेगा.

सर्वविदित है, देउबा को हमेशा से हिंदुस्तान का हितैषी माना गया है. उनकी दोस्ती भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अच्छी है. दोनों नेता की सियासी केमिस्ट्री आपस में अच्छी है. इस लिहाज से देउबा का प्रधानमंत्री बनाना दोनों के लिए बेहतर है. बहरहाल, नेपाल के भीतर की राजनीति की बात करें तो केपी शर्मा ओली को सत्ता से हटाने के लिए विपक्ष लंबे समय से लामबंद था. विपक्षी दलों के अलावा नेपाली आवाम भी निर्वतमान हुकूमत के विरूद्व हो गई थी.

कोरोना से बचाव और उसके कुप्रबंधन समेत महंगाई, भ्रष्टाचार आदि कई मोर्चों को लेकर लोग सड़कों पर उतरे हुए थे. कई आम लोगों की तरफ से भी सुप्रीम कोर्ट में पीआईएल दाखिल हुईं थी जिसमें ओली को हटाने की मांग थी. कोरोना वैक्सीन को लेकर भी ओली सवालों के घेरे में थे. उन पर आरोप लग रहा था कि भारत से भेजी गई कोरोना वैक्सीन को उन्होंने बेच डाला. इसको लेकर नेपाली लोग अप्रैल-मई से ही सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे.

सुप्रीम कोर्ट ने इस गड़बड़झाले को लेकर एक कमिटी भी बनाई हुई है जिसकी जांच जारी है. बाकी सबसे बड़ा आरोप तो यही था कि ओली और उनकी सरकार चीन के इशारे पर नाचती थी. भारत के खिलाफ गतिविधियां लगातार बढ़ रही थीं. उनको सरकार रोकने के वजाय और बढ़ावा दे रही थी. कई ऐसे मसले थे जिनको देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने देशहित में सुप्रीम निर्णय सुनाया. कोर्ट के निर्णय की नेपाली लोग भी प्रशंसा कर रहे हैं.

शेर बहादुर देउबा नेपाल में सर्वमान्य नेता माने जाते हैं. जनता उनको पसंद करती है. इससे पहले भी चार बार देश के प्रधानमंत्री रहकर देश की बागड़ौर सही से संभाल चुके हैं. ऐसे अनुभवी नेता को ही नेपाल की आवाम प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहती थी. हालांकि इस कार्यकाल में उनके पास ज्यादा कुछ करने के लिए होगा नहीं? क्योंकि सरकार के पास समय कम बचा है, संभवत: अगले साल चुनाव होंगे.

भारत-नेपाल दोनों देशों में देउबा को सूझबूझ वाला जननेता कहा जाता है. उनकी सादगी लोगों को भाती है, मिलनसार तो हैं हीं, बेहद ईमानदारी से अपने काम को अंजाम देते हैं. सबसे बड़ी खासियत ये है वह देशहित के सभी निर्णय सर्वसहमति से लेते हैं. 75 वर्षीय देउबा का जन्म पश्चिमी नेपाल के ददेलधुरा जिले एक छोटे से गांव में हुआ था. स्कूल-कॉलेज के समय से ही वह राजनीति में थे.

सातवें दशक का जब आगमन हुआ, तब वह राजनीति में ठीक-ठाक सक्रिय हो चुके थे. राजधानी काठमांडू की सुदूर-पश्चिमी में उनका आज भी बोलबाला है. छात्र समितियों में भी वह लोकप्रिय रहे. कॉलेज में छात्रसंघ के कई चुनाव जीते. वैसे, देखें तो छात्र समितियां सियासत की मुख्यधारा में आने की मजबूत सीढ़ियां मानी गईं हैं.

सभी जमीनी नेता इस रास्ते को अपनाते आए हैं. बहरहाल, देउबा का प्रधानमंत्री बनना भारत के लिए बेहद सुखद और चीन-पाकिस्तान के नाखुशी जैसा है. देउबा के विचार चीन और पाकिस्तान से मेल नहीं खाते, उनका भारत के प्रति लगाव और हितैषी पन जगजाहिर है. देउबा के जरिए भारत अब निश्चित रूप से नेपाल में चीन की घुसपैठ को रोकने का प्रयास करेगा.

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