CM का पद देने पर भी एकनाथ शिंदे नहीं आ रहे, यानी बागियों की चिंता सत्ता नहीं कुछ और है
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और उनके सलाहकार संजय राऊत, एकनाथ शिंदे की बगावत को नारायण राणे और छगन भुजबल की बगावत जैसा मानने की भूल कर रहे हैं. राणे और भुजबल सेना छोड़कर ऐसे दलों में गए थे, जिसे रौंदते हुए महाराष्ट्र में सेना ताकत बनी थी. या तो सेना सरेआम हिंदुत्व की राजनीति से तौबा कर ले वरना एनसीपी-कांग्रेस से गठबंधन में उद्धव ठाकरे का भविष्य फिलहाल तो नहीं है.
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विधानपरिषद चुनाव के बाद महाराष्ट्र का राजनीतिक सर्कस हर दिन नया रंग बदल रहा है. महाराष्ट्र विकास आघाड़ी का अहम घटक एनसीपी तो बिना उद्धव ठाकरे के भी एकनाथ शिंदे गुट के साथ सरकार चलाने को राजी है. डिप्टी सीएम और वरिष्ठ एनसीपी नेता अजित पवार ने कहा- "वे (एकनाथ शिंदे गुट) कह रहे हैं कि वही शिवसेना हैं. तो शिवसेना+एनसीपी+कांग्रेस साथ हैं. हमारे पास बहुमत है." संकेतों में अजित पवार ने उद्धव ठाकरे से नाराज गुट के लिए एनसीपी की तरफ से भी सत्ता का एक फ़ॉर्मूला भेज दिया है. इससे पहले कांग्रेस नेता नाना पटोले ने भी कहा था कि मुख्यमंत्री शिवसेना के कोटे से तय था. उन्हें फैसला लेना है कि सीएम की कुर्सी पर कौन बैठेगा. यह उनका आतंरिक मामला है. अगर शिंदे मुख्यमंत्री बनते हैं तो भी उन्हें स्वीकार है.
भले ही राज्य में मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की महाराष्ट्र विकास आघाड़ी सरकार खतरे में हो, बावजूद सरकार के कई विभाग राजनीतिक अनिश्चितता में भी धड़ल्ले से विकास योजनाओं के लिए बजट जारी कर रहे हैं. भाजपा की तरफ से सवाल उठाए जाने पर अजित पवार ने सफाई दी कि उनकी सरकार सत्ता में बहुमत के साथ है. हम फैसले ले रहे हैं जैसे एक सरकार लेती है. आघाड़ी सरकार के पास ऐसा करने का हक़ है. एनसीपी किसी तरह सत्ता के बने रहने का फ़ॉर्मूला तलाश रही है और उधर, शिवसेना के वरिष्ठ नेता संजय राऊत का एकनाथ शिंदे और बागी धड़े को हड़काना जारी है.
पत्रकारों से बातचीत में आज भी राऊत ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि इस तरह की बगावत से सेना की राजनीतिक सेहत पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है. उन्होंने कहा- पहले भी नारायण राणे और छगन भुजबल ने शिवसेना से अलग होने का फैसला लिया था. पार्टी ख़त्म नहीं हुई. हम फिर वापसी करेंगे. पार्टी किसी के आने या जाने से ख़त्म नहीं होती. राऊत जिस तरह नारायण राणे और छगन भुजबल से एकनाथ शिंदे के बगावत की तुलना कर रहे- उनके राजनीतिक कौशल पर संदेह किया जाना चाहिए. क्या उद्धव ठाकरे के भरोसेमंद सहयोगी को यह नहीं पता कि नारायण राणे और छगन भुजबल की बगावत सीमित स्तर पर थी. दोनों नेताओं ने शिवसेना के बाद जिन दलों की शरण ली, वह सेना की परंपरागत प्रतिद्वंद्वी पार्टियां थीं.
संजय राऊत और एकनाथ शिंदे.
सेना ने इन्हीं प्रतिद्वन्द्वियों- पहले कांग्रेस और बाद में एनसीपी से राजनीतिक मोर्चे पर दो-दो हाथ करके अपने लिए जगह बनाई. संजय भला यह भी कैसे भूल सकते हैं कि तब पार्टी का नेतृत्व कोई और नहीं खुद बाला साहब ठाकरे कर रहे थे. दुर्भाग्य से शिवसेना के पास आज कोई बाला साहेब नहीं है. राज्य की सियासत जिस तरह करवट ले रही है उसमें उद्धव के अलावा कोई भी दल, मोर्चा या नेता नुकसान उठाते नजर नहीं आ रहा. बावजूद मुख्यमंत्री जिद पर अड़े हैं. यहां तक कि उन्होंने बागियों की शर्तों को मानने की सार्वजनिक घोषणा भी की है. लेकिन साथ सिर्फ आघाड़ी का चाहिए उन्हें.
शिवसेना के बागी सिर्फ सत्ता की मलाई भर के लिए ठाकरे के खिलाफ नहीं खड़े हैं
आघाड़ी गठबंधन बचाए रखने के लिए उद्धव ने शिंदे को मुख्यमंत्री तक बनाने का ऑफर दिया. उद्धव चाहते हैं कि एकनाथ बगावती रास्ते पर भाजपा के साथ ना बढ़े. नए सत्ता समीकरण में भाजपा उन्हें जो देगी उससे कहीं ज्यादा वे आघाड़ी सरकार में ही रहते हुए पा सकते हैं. पार्टी के एक दूत के जरिए ठाकरे ने शिंदे तक मैसेज भिजवाया. हालांकि बागी नेता को उद्धव का ऑफर बिल्कुल भी पसंद नहीं आया. शिंदे ने एनसीपी/कांग्रेस के साथ गठबंधन तोड़ने की जिद पाल ली है. उन्हें किसी भी सूरत में एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार में बने रहने की दिलचस्पी नहीं है.
इससे यह तो पता चलता है कि शिंदे और उनके सहयोगी विधायक केवल सत्ता की मलाई भर खाने के लिए पार्टी के खिलाफ बगावती तेवर में नहीं हैं. बल्कि बागी नेताओं को भविष्य की चिंताएं और अंदर ही अंदर लगातार चीजों को खोते जाने का डर सता रहा है. बागी नेताओं का दुर्भाग्य है कि उद्धव उनकी चिंताओं पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं. एनसीपी-कांग्रेस के साथ आघाड़ी सरकार चलाते हुए पिछले ढाई साल में उनका जैसा रवैया था अभी भी लगभग वैसा ही है. महाराष्ट्र में राजनीति को करीब से देखने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि शिवसेना का एनसीपी और कांग्रेस से कभी तालमेल हो ही नहीं सकता.
विरासत, विचारधारा और शैली के मामले में सेना का दोनों दलों के साथ नदी के दो किनारों जैसा संबंध है. जैसे नदी के दोनों किनारे कभी मिल नहीं सकते वैसे ही तीनों दलों में ठोस राजनीतिक रिश्ता भी नहीं बन सकता. यह उसी स्थिति में संभव है कि शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे को पूरी तरह से छोड़ दे. शिवसेना का हिंदुत्व के मुद्दे को छोड़ देने का मतलब है कि राजनीति में उसके लिए कुछ शेष नहीं बचेगा. या फिर एनसीपी और कांग्रेस हिंदुत्व के मुद्दे को स्वीकार कर लें जो कि लगभग असंभव है.
भाजपा नहीं, कांग्रेस और एनसीपी से हमेशा रही है शिवसेना की राजनीतिक शत्रुता
कांग्रेस और एनसीपी राजनीति में शिवसेना के पारंपरिक शत्रु रहे हैं. यहां तक कि 2019 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा के साथ गठबंधन में शिवसेना विधायकों ने किसी एनसीपी या कांग्रेस के उम्मीदवार को हराकर जीत हासिल की है. लेकिन जिस तरह गठबंधन बना, विधायकों को अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अजीब राजनीतिक स्थितियों का सामना करना पड़ा है. पार्टी के सरकार में हिस्सा होने की वजह से शिवसेना विधायकों से हारे एनसीपी कांग्रेस के नेताओं की सक्रियता वजनदार है. स्थानीय कामों में उनका दखल भी है और यह चीज सेना विधायकों को लगातार असहज कर रही है. एनसीपी कांग्रेस के दबाव में पिछले ढाई साल में शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर जिस तरह दबाव में है- विधायकों, संगठन के बड़े नेताओं को स्थानीय कार्यकर्ताओं के सवाल से जूझना पड़ रहा है. कई मामले तो ऐसे हुए जिसे चाहकर भी शिवसैनिक भुला नहीं पा रहा है.
मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे.
सेना के विधायक आघाड़ी गठबंधन में अपने भविष्य को लेकर भी अनिश्चय के शिकार हैं. विधायकों के मन में बड़ा सवाल है कि अगर आघाड़ी का हिस्सा बने रहते हैं फिर ऐसी स्थिति में चुनाव के दौरान सीटों का तालमेल किस तरह होगा और पार्टी के सीटिंग विधायकों को कैसे एडजस्ट किया जाएगा? सेना ने हिंदुत्व के कोर मुद्दे पर चुनाव जीता है. मतदाताओं का दबाव अलग है. आघाड़ी में बने रहने पर हिंदुत्व के मुद्दे पर जुड़ा कोर वोटर पूरी तरह से पार्टी से दूर हो जाएगा. हाल ही में औरंगजेब की कब्र पर फूल चढ़ाने तक समूचे महाराष्ट्र में जिस तरह का माहौल बना, शिवसैनिकों पर कुछ ज्यादा ही दबाव देखा जा सकता है. बागी विधायक लोकल समीकरण अच्छी तरह से समझ रहे हैं. उन्होंने भले बगावती तेवर दिखाया, बावजूद उद्धव से आघाड़ी गठबंधन छोड़ने की मनुहार ही करते रहे.
एनसीपी-कांग्रेस के खिलाफ ही मिला था शिवसेना को जनादेश
यह सच्चाई भी है कि शिवसेना के सांसदों और विधायकों को एनसीपी और कांग्रेस के खिलाफ प्रचंड जनादेश मिला था. लेकिन उद्धव की जल्दबाजियों और जिद की वजह से जनादेश का एक तरह से दुरुपयोग ही हुआ लगता है. उलटे एनसीपी ने जिस तरह उद्धव को भरोसे में लेकर शिवसेना की राजनीति को जमीन पर तोड़ने की कवायद शुरू की- वह भी सेना के बागियों को अखर रहा. उद्धव का अपने नेताओं से ना मिलना जुलना अब महज राजनीतिक आरोप भर नहीं हैं. खुद राऊत ने पुष्ट कर दिया कि करीब छह महीने से ज्यादा वक्त तक ठाकरे कथित बीमारी की वजह से विधायकों से मिल नहीं पाए थे. हालांकि राऊत ने शिंदे को धोखेबाज साबित करने के लिए यह जरूर जोड़ दिया कि उद्धव ने एकनाथ शिंदे को विधायकों की समस्याओं के निराकरण का जिम्मा सौंपा था. मगर उन्होंने विधायकों को भड़काकर छुरा घोंपा.
क्या राजनीति में उद्धव जैसे बादशाही रवैये की गुंजाइश होती है? जब मुख्यमंत्री अपने ही विधायकों की पहुंच से दूर होगा, ऐसे में बागियों की मांगे जायज नजर आती हैं. शिवसेना में आदित्य ठाकरे भी नंबर दो की हैसियत रखते हैं. अगर मुख्यमंत्री बीमारी की वजह से नेताओं से मिलने में असमर्थ थे तो उन्हें अपने बेटे को आगे करना था. आदित्य के नेतृत्व में चुनाव पार्टी चुनाव लड़ने की तैयारी कर सकती है फिर उन्हें कार्यकर्ताओं से मिलने में क्या दिक्कत थी? इससे तो सेना विधायकों का अपने नेता के प्रति भरोसा और बढ़ता ही. लेकिन उद्धव ने ऐसा नहीं किया और आज जब संकट भयावह स्तर पर पहुंच चुका है- बागियों की वापसी के लिए सबकुछ छोड़ने को तैयार हैं.
ना सरकार और ना ही पार्टी, किसी भी जगह उद्धव ठाकरे का नियंत्रण नजर नहीं दिख रहा है. उन्हें इस वक्त पार्टी बचाने पर ध्यान देना चाहिए. उन्हें सोचना चाहिए कि आखिर क्यों पार्टी के विधायक आघाड़ी सरकार से बाहर निकलना चाहते हैं? जमीन पर फायदे नुकसान का मूल्यांकन करना चाहिए. उद्धव ठाकरे के अड़े रहने से सिर्फ और सिर्फ उनका ही निजी नुकसान है- किसी एकनाथ शिंदे, संजय राऊत, शरद पवार ह्या देवेंद्र फडणवीस का नहीं.
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