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Updated: 16 फरवरी, 2022 06:40 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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यूक्रेन को लेकर दुनिया की दो परमाणु शक्तियां अमेरिका और रूस आमने-सामने आ चुके हैं. तनावपूर्ण हालातों के बीच अमेरिका और रूस के राष्ट्राध्यक्षों की भाषा में अब सिर्फ तेवर नजर आ रहे हैं. रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन एक-दूसरे को गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दे चुके हैं. हर बदलते दिन के साथ रूस और यूक्रेन के बीच संकट गहराता ही जा रहा है. रूस की सेना ने सैनिकों की एक बड़ी तादात के जरिये यूक्रेन की अलग-अलग सीमाओं पर घेराबंदी कर ली है. यूक्रेन की सीमा पर रूस ने हाइपरसोनिक मिसाइलों के साथ ही हवाई हमलों से निपटने के लिए एयर डिफेंस सिस्टम भी तैनात कर दिए हैं. वहीं, यूरोपीय देशों के आकाश में उड़ान भर रहे अमेरिका के लड़ाकू विमान भी पूरी तैयारी में नजर आ रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो यूक्रेन और रूस विवाद से तनाव बढ़ता जा रहा है. और, संभावना जताई जाने लगी है कि रूस कभी भी यूक्रेन पर हमला कर सकता है. अगर ऐसा होता है, तो पूरी दुनिया पर तीसरे विश्व युद्ध का खतरा मंडरा सकता है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर यूक्रेन को लेकर तीसरे विश्व युद्ध के हालात क्यों बन रहे हैं?

Russia Ukraine Conflict संभावना जताई जा रही है कि रूस कभी भी यूक्रेन पर हमला कर सकता है.

यूक्रेन-रूस विवाद का इतिहास

यूक्रेन-रूस विवाद को समझने के लिए कुछ दशक पहले के इतिहास के पन्नों को खंगालना होगा. दरअसल, आज का यूक्रेन 1991 तक सोवियत संघ का सदस्य था. हालांकि, सोवियत संघ से अलग होने के बाद भी यूक्रेन में लंबे समय तक रूस का असर बना रहा. लेकिन, रूस और यूक्रेन के बीच विवाद की शुरुआत 2013 में हुई थी. 2013 में यूक्रेन में रूस का समर्थन करने वाले तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच का विरोध शुरू हो गया. अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने प्रदर्शनकारियों का समर्थन किया. फरवरी 2014 में भीषण विरोध प्रदर्शन के चलते यानुकोविच को देश छोड़कर भागना पड़ा था. इससे नाराज हुए रूस ने यूक्रेन के क्रीमिया पर कब्जा कर लिया. 1954 में क्रीमिया को सोवियत संघ के सर्वोच्च नेता ने यूक्रेन को बतौर तोहफे में दिया था. रूस के लिए सामरिक लिहाज से यह प्रायद्वीप बहुत ही महत्वपूर्ण है. इसके साथ ही रूस ने यूक्रेन के अलगाववादियों को समर्थन देकर पूर्वी यूक्रेन के भी कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया. रूस समर्थित अलगाववादियों और यूक्रेन के बीच जारी जंग को रोकने के लिए फ्रांस और जर्मनी ने बेलारूस की राजधानी मिंस्क में शांति समझौता के जरिये संघर्ष विराम करवा दिया.

यूक्रेन की 'नाटो सदस्य' बनने की चाहत

लेकिन, बीते कुछ समय में यूक्रेन पश्चिमी देशों के सैन्य संगठन 'नाटो' का सदस्य बनने की कोशिश में जुटा हुआ है. पश्चिमी देशों से अच्छे संबंधों की वजह से ही इस तनावपूर्ण माहौल के बावजूद अमेरिका-ब्रिटेन ने यूक्रेन को हथियारों की बड़ी खेप पहुंचाई है. यूक्रेन में नाटो की एंट्री सीधे तौर पर रूस की सुपरपावर देश के रूप में बने दबदबे को खत्म कर सकती है. लेकिन, रूस ने इस पर आपत्ति जताते हुए मांग की है कि यूक्रेन को नाटो सदस्य के तौर पर शामिल न किया जाए. साथ ही नाटो यूरोपीय देशों में अपने विस्तार पर रोक लगाए. इसी के चलते रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने चेतावनी दी थी कि अगर रूस के खिलाफ यूक्रेन की जमीन का इस्तेमाल नाटो द्वारा किया जाता है, तो इसके परिणाम भुगतने के लिए सभी को तैयार रहना होगा.

दरअसल, द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद 1949 में बने नाटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (NATO) का मकसद ही सोवियत संघ के बढ़ते दायरे को सीमित करना था. और, इस सैन्य संगठन में शामिल होने की सबसे जरूरी शर्त यूरोपीय देश होना ही है. क्योंकि, यूरोपीय देशों में नाटो के जरिये ही रूस पर लगाम लगाई जा सकती है. फिलहाल अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनिया के 30 देश इस संगठन के सदस्य हैं. और, नाटो दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य संगठन है. नाटो की सुरक्षा नीति है कि इसमें शामिल किसी देश पर अगर कोई बाहरी देश हमला करता है, तो नाटो के सभी सदस्य देश उस देश की सैन्य और राजनीतिक मदद के साथ एकजुट होकर मुकाबला करेंगे.

अगर यूक्रेन को नाटो सदस्य बना दिया जाता है, तो भविष्य में युद्ध की स्थिति पैदा होने पर सभी नाटो सदस्य देश इस सैन्य संगठन की सुरक्षा नीति के अनुसार रूस के खिलाफ युद्ध छेड़ देंगे. और, अगर ऐसा होता है, तो दुनिया में तीसरा विश्व युद्ध छिड़ जाएगा. हालांकि, रूस नहीं चाहता है कि अमेरिका समेत नाटो देश उसके सुपरपावर टैग को किसी भी हाल में चुनौती दे सकें. यही कारण है कि बीते दिनों व्लादिमीर पुतिन ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मुलाकात कर मामले को और हवा दे दी थी.

नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन परियोजना के जरिये रूस कर रहा खुद को मजबूत

रूस ने नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन परियोजना के जरिये यूरोप के सबसे अमीर देश जर्मनी पर अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए उसे की जाने वाली गैस आपूर्ति को दोगुना करने की कोशिश की है. 1200 किमी लंबी यह पाइपलाइन बाल्टिक सागर से होती हुई जर्मनी तक जाती है. रूस चाहता है कि नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन परियोजना के जरिये जर्मनी को गैस आपूर्ति के मामले में पूरी तरह से खुद पर निर्भर कर ले. क्योंकि, फिलहाल यूरोप की कुल ऊर्जा जरूरतों (तेल-गैस) की 40 फीसदी से ज्यादा आपूर्ति रूस द्वारा ही की जा रही है. इस परियोजना के सहारे रूस भविष्य में जर्मनी को आपूर्ति रुकने का डर दिखा कर अपने साथ बने रहने पर मजबूर कर सकता है.

हालांकि, अमेरिका की ओर से यही कोशिश की जा रही है कि नॉर्ड स्ट्रीम पाइपलाइन परियोजना (Nord Stream 2 Pipeline Project) पर आर्थिक प्रतिबंध का डर दिखा कर रूस को यूक्रेन के खिलाफ युद्ध छेड़ने से रोका जा सके. लेकिन, ये इतना भी आसान नहीं है. क्योंकि, अगर ऐसे हालात पैदा होते हैं, तो रूस यूरोपीय देशों को गैस और तेल की आपूर्ति रोक सकता है. जिससे वहां अन्य तरह के संकट खड़े हो सकते हैं. और, इस संकट को खत्म करने के लिए अमेरिका समेत अन्य नाटो देश कुछ बहुत ज्यादा नहीं कर सकते हैं. यह एक तरह से नाटो के जरिये यूरोपीय देशों में बढ़ रही अमेरिका की धमक को खत्म करने का प्रयास है.

अमेरिका हथियार दे रहा है, लेकिन देश छोड़ रहा है

यूक्रेन और रूस के बीच जारी तनाव के बीच अमेरिका समेत कई देशों ने अपने नागरिकों के लिए वापस आने का अलर्ट जारी कर दिया है. मीडिया रिपोर्टों की मानें, तो संभावित युद्ध के खतरे को देखते हुए यूक्रेन की राजधानी कीव में स्थित अमेरिकी दूतावास को भी खाली कराया जा रहा है. हाल ही में अमेरिका ने यूक्रेन को भारी मात्रा में सैन्य सामग्री और हथियार भेजे हैं. अगर अमेरिका किसी भी तरह से यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध में कूदता है, तो राष्ट्रपति जो बाइडेन अपने ही देश में घिर सकते हैं. क्योंकि, उनकी कई नीतियों का अमेरिकी जनता भरपूर विरोध कर रही है. इस युद्ध से पैदा होने वाले संकट से शांतिपूर्ण तरीके से निपटने का दबाव केवल रूस पर नहीं है. बल्कि, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन पर भी है.

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लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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