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Updated: 09 सितम्बर, 2021 05:27 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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उत्तर प्रदेश में चुनाव (UP Election 2022) से पहले मुस्लिम समुदाय (Muslim Community) के डीएनए टेस्ट की रिपोर्ट लगातार आ रही है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख ने ही ये पहली बार पेश किया था - और तभी से बार बार बताये जा रहे हैं कि कैसे मुस्लिम समुदाय किसी भी तरीके से हिंदुओं से अलग नहीं है. बल्कि भारत के नागरिक होने के कारण 'हिंदू' ही हैं.

चुनाव से काफी पहले ही यूपी में फिर से श्मशान-कब्रिस्तान को लेकर बराबरी की बहस भी शुरू हो चुकी है. झारखंड की तर्ज पर समाजवादी पार्टी के एक विधायक ने यूपी विधानसभा में भी एक नमाज-कक्ष बनाये जाने की डिमांड पेश कर दी है.

तभी बिहार से एक बीजेपी विधायक ने विधानसभा में हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए एक अलग कमरे के साथ ही हर मंगलवार को संटकमोचन दर्शन के लिए छुट्टी की मांग कर डाली है. विधायक दलील भी बिलकुल वाजिब है - संविधान सभी को बराबरी का हक देता है, अगर नमाज के लिए कमरा मिल रहा है तो हनुमान चालीसा के लिए भी ऐसा होना चाहिये.

वैसे झारखंड विधानसभा के प्रवेश मार्ग पर बैठकर बीजेपी विधायक हनुमान चालीसा का पाठ कर चुके हैं - और पुलिस के वाटर कैनन के इस्तेमाल के बावजूद नमाज के लिए अलग कमरे के खिलाफ विरोध प्रदर्शन जारी रखे हुए हैं.

ठीक पांच साल पहले 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी यही तर्क दिया था. फतेहपुर की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कहना था, ''गांव में अगर कब्रिस्तान बनता है तो श्मशान भी बनना चाहिये. रमजान में बिजली मिलती है तो दिवाली में भी मिलनी चाहिये. होली में बिजली आती है तो ईद पर भी आनी चाहिये.'

प्रधानमंत्री का कहना था कि सरकार का काम है कि वो भेदभाव मुक्त शासन चलाये. सही भी है. भला कौन इससे इनकार करेगा - सत्यमेव जयते. ये बात अलग है कि संदेश अपनी मंजिल तक अलग तरीके से पहुंचता है और उसके खास सियासी मायने होते हैं.

आखिर संघ प्रमुख भी तो ऐसी ही बराबरी की बातें कर रहे हैं. जाहिर है संघ प्रमुख की बातें भी बीजेपी के वोट बैंक तक वैसे ही एनक्रिप्टेड पहुंचती होंगी, जैसे प्रधानमंत्री मोदी की.

लेकिन ताजा मुद्दा ये है कि संघ प्रमुख मोहन भागवत (Mohan Bhagwat) की तरफ से थोड़ी 'समझदारी' की बातें भी होने लगी हैं. आखिर संघ प्रमुख मुस्लिम समुदाय से कैसी समझदारी की अपेक्षा कर रहे हैं - और अगले यूपी चुनाव में बीजेपी की तरफ से भी मुस्लिम उम्मीदवारों को लेकर कंसेप्ट में कोई बदलाव होने वाला है क्या?

'समझदार' मुस्लिम कौन हैं?

राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के कार्यक्रम में इसी साल जुलाई में संघ प्रमुख मोहन भागवत के एक बयान ने नये सिरे से बहस छेड़ दी थी - "सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों."

संघ प्रमुख के बयान को तभी से यूपी में अगले साल होने जा रहे चुनाव से जोड़ कर देखा जाने लगा था. अब तो यूपी में मुस्लिम पॉलिटिक्स अलग ही जोर पकड़ने लगी है - और आलम ये है कि जेल में बंद बाहुबली पूर्व सांसद अतीक अहमद को AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी ने न सिर्फ पार्टी की सदस्यता दिलायी है, बल्कि विधानसभा तक पहुंचाने का दावा भी कर रहे हैं. अतीक अहमद को लेकर भी यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार की कोशिश यही रही है कि कैसे साबरमती जेल से उनको भी माफिया विधायक मुख्तार अंसारी की तरह यूपी की जेल में शिफ्ट किया जाये.

मोहन भागवत का ताजा बयान पुणे में ग्लोबल स्ट्रेटेजिक पॉलिसी फाउंडेशन की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम के जरिये आया है जिसका विषय था - 'राष्ट्र सबसे पहले, राष्ट्र सबसे ऊपर.' इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, ऑडिएंस में प्रमुख रूप से कश्मीरी छात्र, रिटायर्ड डिफेंस अफसर और संघ के कार्यकर्ता शामिल थे.

mohan bhagwat, mohsin razaयूपी में मुस्लिम पॉलिटिक्स तो जोर पकड़ चुकी है, लेकिन संघ की सक्रियता ज्यादा दिलचस्प लग रही है

पुणे में हुए इस कार्यक्रम की अहमियत वैसे भी बढ़ जाती है क्योंकि जावेद अख्तर के एक बयान को लेकर महाराष्ट्र के बीजेपी विधायक माफी मंगवाने पर अड़े हुए हैं. लिहाजा जावेद अख्तर के घर पर सुरक्षा बंदोबस्त करने पड़े हैं. साथ ही, अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता में वापसी को लेकर भारत में मुस्लिम समुदाय के रिएक्शन को लेकर भी बहस चल रही है.

हाल ही में एक इंटरव्‍यू में जावेद अख्‍तर ने कहा था, 'जिस तरह तालिबान एक इस्‍लामिक स्‍टेट चाहता है, उसी तरह कुछ लोग हैं जो हिंदू राष्‍ट्र चाहते हैं - ये लोग भी उसी माइंडसेट के हैं, फिर चाहे वे मुस्‍लिम हों, ईसाई हों, यहूदी हों या फिर हिंदू!'

मोहन भागवत ने फिर से अपनी बात दोहरायी है कि हिंदू और मुसलमानों के पुरखे एक ही थे - और हर भारतीय 'हिंदू' है, लेकिन लगे हाथ, संघ प्रमुख ने मुस्लिम समुदाय से समझदारी की भी अपेक्षा जतायी है.

संघ प्रमुख का नया संदेश 'समझदार' मुस्लिम नेताओं को संबोधित है. ऐसे लोगों को भागवत ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंदू शब्द मातृभूमि, पूर्वज और संस्कृति के बराबर है - और ये किसी भी तरीके से बाकी विचारों का अपमान नहीं है.

मोहन भागवत जोर देकर कहते हैं, 'हमें मुस्लिम वर्चस्व के बारे में नहीं, बल्कि भारतीय वर्चस्व के बारे में सोचना है.'

और साथ में एक सलाहियत भी है - ‘समझदार’ मुस्लिम नेताओं को कट्टरपंथियों के खिलाफ मजबूती से खड़ा होना चाहिये.

कट्टरपंथी तो सीधे सीधे समझ में आ जाते हैं. मुस्लिम कट्टरपंथी भी और हिंदू कट्टरपंथी भी, लेकिन अब ये 'समझदार' मुस्लिम नेता कौन हैं - ये कौन सी नयी जमात है?

कहीं ये आरक्षण के मामले में प्रचलित शब्द क्रीमी लेयर जैसा ही तो नहीं है, जिसे लेकर अब तक सब कुछ अस्पष्ट है. अगर नियमों के ड्राफ्ट में कुछ लिखा भी गया है तो उसके राजनीतिक मतलब अलग अलग तरीके से निकाल लिये जाते हैं. राजनीतिक दल भी ऐसा करते हैं और जातीय राजनीति करने वाले नेता भी.

बड़ा सवाल ये है कि जिस समझदार मुस्लिम नेता की परिकल्पना मोहन भागवत कर रहे हैं वो अकेला चना भाड़ फोड़ने की कोशिश करने वाला ही होगा या दो-चार लोगों का सपोर्ट भी उसे हासिल होगा? या सिर्फ संघ के सपोर्ट सिस्टम से वो भी एक चेहरा बन कर रह जाएगा.

सिकंदर बख्त और नजमा हेपतुल्ला से लेकर मुख्तार अब्बास नकवी, सैयद शाहनवाज हुसैन, जफर इस्लाम - और 2017 के यूपी चुनाव के बाद एक नया चेहरा मोहसिन रजा सामने आया है - अब जानने और समझने की जरूरत ये है कि इनसे इतर वे कौन समझदार नेता होंगे जो कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं का विरोध कर पाएंगे?

वैसे नये दौर में कट्टरपंथियों को भी गुजरे जमाने जैसा सपोर्ट बेस हासिल नही रहा - जब किसी एक राजनीतिक दल को वोट देने के लिए भी फतवा जारी हुआ करता था, लेकिन ये भी सच है कि मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण बीजेपी को भारी पड़ता है - और ये भी किसी सर्वे का नतीजा नहीं बल्कि बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा की तरफ से बंगाल चुनाव में हार की समीक्षा के बाद बनी पार्टी की राय है. आने वाला यूपी चुनाव उसके आगे की बात होगी.

मोहन भागवत ने मुस्लिम वर्चस्व और भारतीय वर्चस्व की भी बात की है. भारतीय वर्चस्व की बात में तो राष्ट्रवाद साफ साफ समझ में आता है, लेकिन ये भी एक मुश्किल सवाल ही खड़ा कर रहा है - संघ प्रमुख के मुस्लिम वर्चस्व का संदेश किसके लिए है? जो देश की सत्ता पर संघ के प्रभाव से हिंदू खुश हो रहा हिंदू है? या जो डरा हुआ मुस्लिम है?

संघ प्रमुख सांप्रदायिक सद्भाव जैसी चीजों को भी खारिज करने लगे हैं. कहते हैं, 'हिंदू-मुस्लिम एकता की बात भ्रामक है क्योंकि वे अलग नहीं, बल्कि एक हैं... सभी भारतीयों का डीएनए एक है, चाहे वे किसी भी धर्म के हों.'

2022 में मुस्लिम उम्मीदवारों की तैयारी है क्या?

चुनावों में जीत के बाद 2017 में जब उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार बनने का रास्ता साफ हुआ और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ होंगे ये भी तय हो गया तो मंत्रिमंडल गठन से पहले अचानक एक मुश्किल आ गयी - वक्फ और हज विभाग कौन संभालेगा? नियमों के अनुसान कोई मुस्लिम नेता ही उस विभाग का मंत्री होता है.

मुश्किल ये थी कि कोई मुस्लिम विधायक कहां से बने, बीजेपी ने कोई मुस्लिम उम्मीदवार खड़ा तो किया ही नहीं था. बीजेपी के बचाव में तब मुस्लिम चेहरे मुख्तार अब्बास नकवी सामने आये और समझाने लगे कि बीजेपी को कोई जिताऊ मुस्लिम उम्मीदवार मिला ही नहीं तो टिकट किसे दिया जाता?

बहरहाल, ज्यादा परेशान नहीं होना पड़ा बगल में ही मोहसिन रजा मिल गये, लेकिन वो किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. छह महीने तक तो वैसे भी काम चल ही जाता, लिहाजा मंत्री बना दिये गये और कालांतर में मोहसिन रजा को भी यूपी में मुख्तार अब्बास नकवी का रोल भी मिल गया.

मुस्लिम समदाय को प्रभावित करने वाले ज्यादातर मामलों में यूपी बीजेपी के बचाव में मोहसिन रजा ही मीडिया से मुखातिब होते हैं और पार्टी का पक्ष रखते हैं. ये मामले लव जिहाद से लेकर जनसंख्या कानून तक कुछ भी हो सकते हैं.

मोहसिन रजा यूपी में विधान परिषद के सदस्य हैं और ऐसे में जबकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के भी अयोध्या से लेकर गोरखपुर तक किसी भी सीट से विधानसभा चुनाव लड़ने की चर्चा चल रही है, मुस्लिम उम्मीदवार भी मैदान में उतारे जाएंगे क्या?

लेकिन अगर कोई 'समझदार' मुस्लिम मिल भी गया और जिताऊ नहीं समझ में आया तो क्या होगा?

कट्टर हिंदुत्व की राजनीति की बदौलत सत्ता की सीढ़ियां चढ़ती आयी बीजेपी को हमेशा ही एक सर्व स्वीकार्य चेहरे की जरूरत रही है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद अब तक बीजेपी की तलाश पूरी नहीं हो सकी है. वाजपेयी बनने की कोशिश में ही सीनियर बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्युलर बताया और मार्गदर्शक मंडल में उनकी सीट पक्की हो गयी.

गुजरात से दिल्ली के सफर में ही नरेंद्र मोदी के लिए बीजेपी ने एक नारा गढ़ा था - सबका साथ, सबका विकास. जाहिर है अलग थलग समझने या समझाये जाने वाले मुस्लिम समुदाय को साथ रहने या साथ रह कर विकास का भागीदार बनने या बनाने का मैसेज देने की कोशिश रही.

2019 के आम चुनाव में 'सबका साथ, सबका विकास' के साथ एक नया टैग 'सबका विश्वास' भी जोड़ा गया - और 15 अगस्त 2021 को इस कड़ी एक और जोड़ शामिल हुआ - 'सबका प्रयास.'

'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास' के आगे क्या है? और ये मुस्लिम समुदाय से ही जुड़ा होगा या जोड़ने की कोशिश होगी? क्या वाकई ये श्मशान-कब्रिस्तान वाली बहस से कोई अलग चीज है?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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