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Updated: 15 मार्च, 2022 07:57 PM
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दुनिया में सारा खेल साहस का है. साहस भरोसे से आता है, भरोसा लोगों का, अपनों का और सबसे ज़्यादा खुद पर खुद का. 2004 का दृश्य कौन भूल सकता है. जब कांग्रेस के बड़े -बड़े नेता सोनिया गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए सेंट्रल हॉल में कुर्सियों और मेज़ पर चढ़कर सोनिया गांधी के लिए चीख चिल्ला रहे थे और सोनिया गांधी ने चट्टानी हौसले के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकरा दी थी. उस वक्त सोनिया गांधी के साथ रहे पूर्व कांग्रेस नेता नटवर सिंह के अनुसार, बेटे राहुल गांधी के मना करने की वजह से सोनिया ने प्रधानमंत्री का पद लेने से इंकार कर दिया था. 19 साल बाद हालात बदल गए हैं. सोनिया गांधी इतनी करारी हार के बाद भी इस्तीफ़ा नहीं देती हैं बल्कि पेशकश करती हैं, और उनके सामने बैठे थके -हारे कांग्रेस नेता उन्हें मना करते हैं और वो मान जाती हैं. इस बार राहुल गांधी वहीं बैठे हैं मगर मां के फ़ैसले पर कुछ नहीं कहते हैं.

बीच नदी नाव में छलांग लगा कर तैरने का साहस और डूबती नाव को पकड़ कर बचने की कोशिश का डर हालात से पैदा होते हैं. अकेले सोनिया गांधी नहीं, कांग्रेस के चुनावी इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा होगा जब इतनी बड़ी हार के बाद एक भी व्यक्ति ने इस्तीफ़ा नहीं दिया है. तो क्या बूढ़ी हो गई कांग्रेस की जुम्बीश भी जाती रही.

Rahul Gandhi, Sonia Gandhi, Congress, Assembly Elections, UP, Rajasthan,  Resignation, Polarizationख़त्म होती कांग्रेस को अगर बचाना है तो राहुल और सोनिया को कई बड़े फैसले लेने होंगे

कांग्रेस की हालत घर की देहरी पर खाट पर पड़े उस बुजुर्ग की तरह हो गई है जो घरवालों को अच्छे -बुरे का ज्ञान तो बताता है मगर घर में कोई उसका सुनने वाला नहीं है. इसी तरह कांग्रेस जनता में जिन मुद्दों को लेकर आगे बढ़ रही है उन मुद्दों में कोई गलती नहीं है बस उन्हें सुनने वाला नहीं बचा है.

पहले लोगों को लगता था कि कांग्रेस की हालत इतनी बुरी होती जा रही है कि दर्द ही दवा बनेगा पर अब लोग कह रहे हैं कि मौत ही सामने है तो फिर दवा क्या करेगी. पांच राज्यों के चुनाव में करारी हार के बाद जितनी तेज़ी के साथ कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलायी गई बहुत सारे लोगों को उम्मीदें बंध गई थी.

हालांकि कांग्रेस और देश की एक बड़ी आबादी को उम्मीद नहीं थी मगर घोर मोदी विरोधी गैर कांग्रेसी कांग्रेस को लेकर हमेशा की तरह होपिंग अगेंस्ट होप(Hoping Against Hope) रखे थे. कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में क्या होगा यह सब जानते थे और जो सब जानते थे ठीक वही हुआ.

हर बार की तरह मीडिया से दूर रहने वाले राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दिल्ली पहुंचे और कहा कि कांग्रेस की हार से गांधी परिवार का कोई लेना देना नहीं है. ध्रुवीकरण और मीडिया इसके लिए ज़िम्मेदार है. बैठक शुरू हुई तो सोनिया गांधी ने कहा कि आप लोगों को लगता है कि हार के लिए गांधी परिवार ज़िम्मेदार है तो मैं इस्तीफ़ा देती हूं.

सब ने कहा नहीं, नहीं, गांधी परिवार के बिना कांग्रेस चल नहीं सकती है और सोनिया गांधी मान गईं. फिर आख़िर में तय हुआ कि इसके लिए जयपुर या उदयपुर में चिंतन करेंगे. राजस्थान में क्यों ? चुनाव तो गुजरात, हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में है. मगर यही कांग्रेस की समस्या है. मुश्किल घड़ी में जब कठिन राह चुननी है तो मौजमस्ती के लिए कांग्रेस शासन वाले राजस्थान की आसान राह पकड़ रहे हैं.

गहलोत ने ये प्रपोज़ल क्यों दिया. कहा जा रहा है कि पंजाब की हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए सोनिया गांधी ने कहा कि अमरिंन्दर सिंह को हटाने में देरी कर दी. तो गुलामनबी आज़ाद ने कहा- हटाया हीं क्यों, इस पर सोनिया गांधी ने कहा कि हमने सर्वे कराया था केवल दो फ़ीसदी लोग कैप्टन के पक्ष में थे.

गहलोत को लगा कि कहीं पंजाब में देरी वाला मसला उछला तो राजस्थान में जल्दी मुख्यमंत्री बदलने की मांग पर विचार न हो जाए. कहीं राजस्थान में भी सर्वे न करा लिया जाए. इसलिए पहले हीं गांधी परिवार के स्वयंभू संकटमोचक बन गए. हार का कारण यूपी में ध्रुवीकरण कह कर बच सकते हैं मगर उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में क्या हुआ.

कांग्रेस यह समझ हीं नहीं रही है कि उसके साथ भरोसे का संकट है. भरोसे से बड़ा दुनिया में कुछ भी नहीं होता जिसे कांग्रेस ने देश के लोगों के बीच खो दिया है. आम आदमी पार्टी पर लोग भरोसा कर रहे हैं क्योंकि उनका आचरण देख रहे हैं . पेट्रोल डीज़ल की क़ीमतें, मंहगाई, बेरोज़गारी के बावजूद लोग बीजेपी को वोट कर रहे हैं क्योंकि मोदी में भरोसा है.

गांधी-नेहरू की विरासत संभालने का दावा करनेवाली कांग्रेस की समस्या उसकी नीति नहीं बल्कि नेता और नीयत हैं. राजस्थान से ही समझते हैं. राजस्थान में भ्रष्टाचार चरम पर है, महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों में देश में नंबर वन है, बेरोज़गारी में देश में नंबर वन है, सबसे मंहगी बिजली है . पेट्रोल-डीज़ल पर सबसे ज़्यादा टैक्स है, तो फिर कांग्रेस के नेताओं पर दूसरे राज्यों के लोग क्यों भरोसा करें.

बानगी के लिए दिखाने लायक़ कोई शासित राज्य कांग्रेस के पास नहीं है. राहुल गांधी की उस फ़ैक्ट्री की खोज किसान कर रहे हैं जो कांग्रेस शासन आने पर किसानों के खेत के पास लगनी थी. क़र्ज़माफी के वादे के समय राहुल गांधी ने यह नहीं कहा था कि राष्ट्रीय बैंकों और निजी बैंकों के लोन माफ़ नहीं होंगे जो किसानों के कुल क़र्ज़ का अस्सी फ़ीसदी है.

कर्जमाफी के बदले में किसानों ने अपनी ज़मीन की कुर्की देखी. मेक इन जयपुर, मेक इन अजमेर आदि-आदि शहरों के मोबाईल फ़ैक्ट्री का वादा हवा में है . चरणजीत सिंह चन्नी के दलित होने को लेकर देश भर में जाति का कार्ड खेल रही कांग्रेस पर लोग जाति-धर्म से उपर उठकर राजनीति करने के वादे पर क्यों भरोसा करें.

ऐसी बात नहीं है कि कांग्रेस की नीतियों में कोई कमी है बल्कि इसके झंडाबरदारों पर लोगों का भरोसा टूट गया है. आइडिया ऑफ इंडिया में केवल हिंदू-मुस्लिम दोस्ती नहीं है बल्कि सुशासन का वह वादा भी है जिसे लेकर बाकि पार्टियां जनता के दिलों में घर कर रही है. गांधी-नेहरू की विरासत संभालने का दावा करने वाली कांग्रेस की समस्या उसकी नीति नहीं बल्कि नेता और नीयत हैं.

पार्टी बुजुर्ग नेताओं की फ़ौज रह गई है जो संन्यास लेने के लिए तैयार नहीं है. गहलोत 73 साल की उम्र में फिर से मुख्यमंत्री बनने के लिए तैयार हैं. हालात ऐसे कर दिए हैं कि सचिन पायलट कांग्रेस को किसी भी दिन टाटा कह दें और राहुल गांधी जवाब में गुड लक.

दुनिया की शायद यह पहली पॉलिटिकल पार्टी होगी जिसकी राष्ट्रीय अध्यक्ष देश भर में हो रहे चुनावों में एक भी सभा या रैली में शामिल नहीं हुई. बीमार और बुजुर्ग सोनिया गांधी में भविष्य खोजने वाली कांग्रेस को देश के लोग किस भरोसे से अपना भविष्य सौंपे. कांग्रेस के लिए चिंतन का वक्त बहुत पहले गुज़र चुका है, अब ऐक्शन का वक्त है. नक्कारखाने से बाहर आकर तूती की आवाज़ सुनने का वक्त है.

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