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Updated: 01 मार्च, 2017 02:42 PM
लोहा सिंह
लोहा सिंह
 
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सच कहूं तो आज के छात्र नेताओं की खेप को देखकर मैं बड़ा ही दुखी हूं. खासकर दिल्ली के छात्र नेता तो बहुत निराश करते हैं. मैं गुरमेहर की बात नहीं कर रहा. गुरमेहर तो एक शांतिवादी है, कागज़ की तख्ती पर कपोत उड़ाने वाली. उसकी समझ और उम्र के हिसाब से मैं तो उसे पूरे नंबर दूंगा. इस उम्र में अगर आप थोड़े वामपंथी नहीं हुए तो कब होंगे, बत्तीस होने पर?

मेरी परेशानी तो दोनों खेमों के युवाओं से है. दक्षिणपंथियों और वामपंथियों से. इन दोनों ही खेमों के युवा बंदरों की तरह अपने आकाओं की धुन पर सिर्फ नाचने का काम कर रहे हैं. इनसे अच्छी तो बार बालाएं हैं. और मैं उनकी इज्जत करता हूं. वो अपना पेट पालने और परिवार चलाने के लिए नाचती हैं. लेकिन ये राजनीतिक पालतू खाते अपने मां-बाप की हैं और गाते-बजाते उन आकाओं की जो न्हें धरती के सबसे निकृष्ट नालियों के कीड़े से बेहतर नहीं.

अगर देश के युवा नेतृत्व के बारे में चिंता करना आपने अभी तक शुरू नहीं किया है तो यही समय है, जाग जाइए. रामजस कॉलेज में एक गुट ने दूसरे पर पत्थर फेंका! आप स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे हैं क्या? कोई भी स्वाभिमानी छात्र नेता कभी भी पत्थरों कंकड़ों से झगड़ा नहीं करता. अरे अपना कट्टा निकालो. मुझे लगता है ये दीवाली के पटाखे भी दस फुट दूर से जलाते होंगे. अगर शक हो तो किसी से एक देसी बम बनवा कर दिखा दो. नानचाकू या साइकिल की चेन के लिए प्रतिभा चाहिए, जिगरा चाहिए. ये तो नारे लगाने वाले टट्टू हैं.

मैं अराजकता फैलाने की बात नहीं कर रहा. लेकिन यार जीवन के हर पड़ाव के लिए कुछ काम तय होते हैं. और वो उसी समय किए जाएं तो शोभा देते हैं. अगर आप पढ़ने-लिखने वाले हो तो चुपचाप जाकर पढ़ाई में मन लगाओ और इस ड्रामे से दूर रहो. लेकिन अगर आपने ये तय ही कर लिया है कि छात्र राजनीति करनी है तो कुछ पात्रता भी बना लो. छात्र नेतागिरी के गुर सीखने के लिए इलाहाबाद यूनीवर्सिटी, भागलपुर यूनीवर्सिटी या अगर मां-बाप घर से ज्यादा दूर नहीं जाने देंगे तो मेरठ तक ही चले जाओ यार. इन जगहों पर जाकर पता चलेगा कि नेतागिरी किस खेत की मूली है और इसके क्या नियम और कायदे हैं.

ramjas-2_650_022817081025.jpgनेतागिरी नहीं आसान इक आग का दरिया है

आप मुझे गलत मत समझिए. मैं कानून की बहुत इज्जत करता हूं और भारत की न्यायपालिका पर मुझे पूरा भरोसा है. लेकिन हर उस छात्र नेता को चुल्लू भर पानी में डूबकर मर जाना चाहिए जो पुलिस के सामने नहीं बल्कि साथ खड़े होता है. सत्ता के साथ मिलकर कोई लड़ाई थोड़े लड़ी जा सकती है. विरोधी गुटों से लगी चोट नहीं पुलिस की लाठी से हुई धुलाई के घाव दिखाओ तो बात बने. पुलिस के पास चिचिया रहे हैं. किसी ने पीट दिया तो घाव मत दिखाओ, बदले की आग दिखाओ. शर्म से बंद करलो खुद को एक कमरे में और रणनीति बनाओ बदले की.

चोट लगी नहीं कि टीवी, मीडिया की गोद में बैठकर रोना धोना शुरू कर दिया. ये भी कोई नेतागिरी है ? अपने साथियों के साथ मिलकर घात लगाकर हमला करो और सबूत लेकर फिर आओ. एक दांत या अंगुली नहीं तो नाखून सही. तब बने ना कोई बात. खोखले नारे वाले तो एमबीए बनने के लायक नहीं. एमबीए बनोगे तो त्तीस साल की उम्र तक आते-आते जिंदगीं में कई रिस्क लेने पड़ेंगे. अगर तीस साल के हो गए तो जाओ और कोई नौकरी खोज लो.

छात्र नेताओं के चरित्र में तेजी से आई इस गिरावट का एक कारण इडियट बॉक्स पर मिलने वाली आसान पब्लिसिटी भी है. इन नाकारे नेताओं को टीवी वाले रातों-रात स्टार बना देते हैं. पहले छात्र नेताओं को फेमस होने के लिए पसीना बहाना पड़ता था और खून भी. लेकिन अब सोशल मीडिया और कुछ तथाकथित बेवकूफ सेलिब्रिटी इन गधों को चुटकी बजाते ही फेमस बना देते हैं या फिर इनका फालूदा निकाल देते हैं. फिर सब शुरू हो जाएंगे नरेटिव का रोना लेकर. ये एक नया शब्द घुस गया है हमारी बोलचाल में. भाड़ में जाओ तुम और तुम्हारे नरेटिव. जो चीज सुबह होते ही बदल जाए उसे कूड़े में फेंकना ही सही होता है.

अगर तुम रामजस में हुई घटना को हिंसा कहते हो तो बता दूं कि हिंसा के भी अपने रूल होते हैं. किसी भी लड़की पर हाथ उठाना हिंसा नहीं. लड़की पर हाथ उठाया मतलब- याचना नहीं, अब रण होगा. और अबतक तुम्हारे खेमे के लड़के को और कुछ नहीं तो सामने वाले के चार-पांच दांत तो तोड़ ही देने चाहिए थे. किसी टीचर पर हाथ उठाने की सजा अंधेरे, बदबूदार कमरे में दो घंटे बंद करके अच्छे से हजामत-मरम्मत होनी चाहिए थी. इस कदर तुम्हारी आरती उतारी जानी चाहिए थी कि तुम 20 उंगलियों के नाखून खोने के बाद भी भगवान को लड्डू चढ़ा रहे होते. क्योंकि तुम्हें पता है कि अच्छी किस्मत और भगवान की दया के कारण ही तुम यौन हिंसा से बच गए.

मैं समझता हूं कि दिल्ली राजनीति का अड्डा है. यहां के लोगों को ये रोग जल्दी पकड़ता है. लेकिन अपने कैंपसों में इस पागलपन के कारण हम सिर्फ स्लोगन लिखने और उसको ही गला फाड़कर चिल्लाने वाला देश बनते जा रहे हैं. पांच दिन से प्रदर्शन हो रहे हैं और जिनको अस्पताल जाना चाहिए वे घर जा रहे हैं. अस्पताल जा रहा है एक प्रोफेसर. शर्म नहीं आती इन तथाकथित छात्रों को.

छात्र राजनीति जैसी है बड़ी भद्दी है. इनमें जो लचर-पचर हैं उन्हें बीन कर बाहर करो. प्रतियोगिता करवा लो. दोनों ही गुटों को अपने-अपने हथियारों के साथ जवाहर लाल नेहरू स्टेडियम में जमा होना चाहिए. जो जीता वही सिकंदर घोषित होगा और बॉर्डर पर देश की सेवा का मौका पाएगा. और जो हार गया उसे तो मुक्ति मिल ही जाएगी. मैं वादा करता हूं कि इस प्रतियोगिता को देखने के लिए फ्रंट रो की टिकट खरीदूंगा.

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लेखक

लोहा सिंह लोहा सिंह

तुम लोहे की बात करते हो. मैंने लोहा खाया है.

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