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Updated: 02 अगस्त, 2020 09:27 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमि पूजन (Ram Mandir Bhumi Poojan) से पहले गैर-दक्षिणपंथी विक्षोभ के चलते छिटपुट विवाद जब तब नजर आ रहे हैं - जो किसी भी काम के लिए अंतिम आहुति से पहले स्वाभाविक प्रतीत होते हैं. ये विवाद कभी कोरोना काल को राहु काल की तरह पेश करने की कोशिश के रूप में सामने आ रहा है तो कभी मंदिर आंदोलन के रथयात्री लालकृष्ण आडवाणी की वर्चुअल मौजूदगी को लेकर.

ये भी सच है कि जब बीजेपी का एजेंडा हकीकत बनने जा रहा हो तो विवाद और विरोध के एजेंडे में बधाई का स्कोप तो बचता नहीं. हर किसी का अपना अपना एजेंडा है. किसी के एजेंडे का विरोध भी तो एक एजेंडा ही है और इस मौके पर भी वही सारी बातें परिलक्षित हो रही हैं.

अव्वल तो RSS और VHP के फैसले के बाद बीजेपी ने भी 2019 के चुनाव के पहले ही मंदिर आंदोलन के मुद्दे को खूंटी पर टांग दिया था. हालात भी कुछ ऐसे रहे कि मोदी लहर के जोश में मंदिर मुद्दे की खास जरूरत भी नहीं रही और पूर्वानुमान सच भी साबित हुआ. नतीजा तो उम्मीद से भी ज्यादा सीटों के रूप में मिला ही.

बीजेपी अब सारे सवालों को भी काफी पीछे छोड़ चुकी है - आम चुनाव से पहले जोर शोर से पूछे जाते रहे कि केंद्र में नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की सरकार है और यूपी में योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की, फिर भी मंदिर अभी नहीं तो कब बनेगा?

सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद बीजेपी नेता अमित शाह ने चुनावी रैलियों में मंदिर मुद्दे को भुनाने की कोशिश तो पूरी की, लेकिन झारखंड और दिल्ली दोनों ही जगह अनुभव बहुत बुरा रहा - हालांकि, अभी 'बिहार 2020' है और 'UP-2022' में परीक्षण होना बाकी है.

भूमि पूजन के साथ ही राम मंदिर आंदोलन की राजनीतिक पूर्णाहुति के बाद, ये सवाल निश्चित तौर पर बचा हुआ है कि अयोध्या के बाद मथुरा और काशी भी एजेंडे में तो नहीं हैं?

मंदिर आंदोलन की पूर्णाहुति

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन 5 अगस्त को होना निश्चित हुआ है, लिहाजा तैयारियां जोरों पर है. भूमि पूजन के साथ ही राम मंदिर का निर्माण भी शुरू हो जाएगा - मंदिर बन कर तैयार होने में 3-4 साल का वक्त लगने की अपेक्षा है.

भूमि पूजन के लिए 5 अगस्त की तारीख तय किये जाने के पीछे निश्चित तौर पर मुहूर्त का अच्छा होना मायने रखता है, लेकिन उसके राजनीतिक मायने भी हैं. अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण बीजेपी का बरसों पुराना चुनावी एजेंडा रहा जिसने केंद्र की सत्ता की वैतरणी पार कराया. भूमि पूजन की धार्मिक अहमियत अपनी जगह कायम है, लेकिन राजनीतिक हिसाब से ये बीजेपी के चुनावी वादा पूरा करने जैसा ही है. ठीक एक साल पहले इसी तारीख को बीजेपी ने एक अन्य चुनावी वादा पूरा किया था - जम्मू और कश्मीर से धारा 370 खत्म करने का. एक चुनावी वादे पूरे करने की सालगिरह का जश्न मनाने का ये तरीका बीजेपी के लिए आने वाली चुनावी रैलियों में ये दावा करने की भी मजबूती देता है कि 'जो कहा, सो किया'. आने वाले चुनाव बीजेपी के लिए जीतना इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि तभी पार्टी पंचायत से पार्लियामेंट तक के स्वर्णिम काल तक की मंजिल हासिल कर सकेगी.

5 अगस्त के मुहूर्त पर सवाल तो दिग्विजय सिंह ने भी उठाया है और कोरोना वायरस की महामारी के बीच भूमि पूजन को लेकर शरद पवार ने भी पूछा है - राम मंदिर बनने से कोरोना भाग जाएगा क्या?

narendra modi, yogi adityanathअयोध्या बीजेपी के राजनीतिक एजेंडे की झांकी भर है या पूर्णाहुति?

सलाह तो उद्धव ठाकरे की तरफ से भी आयी है - जब वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये भी भूमि पूजन हो सकता है तो वहां जाने की जरूरत क्या है?

उद्धव ठाकरे के ऐसे बयान के पीछे महाराष्ट्र में गठबंधन सरकार की मजबूरी भी हो सकती है. ये वही उद्धव ठाकरे हैं जो अपनी सरकार के 100 दिन पूरे होने का जश्न मनाने भी अयोध्या गये थे. आम चुनाव से पहले तो अयोध्या के दौरे पर गये ही, चुनाव बाद शिवसेना के नये सांसदों के साथ भी अयोध्या पहुंचे थे. उद्धव ठाकरे को तो नहीं, लेकिन शरद पवार को महाराष्‍ट्र बीजेपी युवा मोर्चा के नेता 10 लाख पोस्‍टकार्ड भेजने का अभियान शुरू कर चुके हैं - सभी पोस्‍टकार्ड 'जय श्रीराम' लिख कर भेजे जा रहे हैं.

उद्धव ठाकरे भले ही वर्चुअल भूमि पूजन का सुझाव दे रहे हों, लेकिन शिवसेना के कुछ नेतओं ने भूमि पूजन के मौके पर अपने नेता को बुलाये जाने की मांग भी की है. शिवसेना प्रवक्ता संजय राउत भी कह रहे हैं कि शिवसेना का अयोध्या से एक नाता रहा है जिसे कोई तोड़ नहीं सकता.

याद कीजिये 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद ढहाये जाने के बाद सीबीआई ने 1993 में जब पहली चार्जशीट दाखिल की थी तो 48 आरोपियों में 8 तो शिवसैनिक ही रहे. उद्धव ठाकरे के पिता और शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे तो यहां तक कह डाले थे कि अगर बाबरी ढांचा गिराने में शिवसैनिकों की कोई भूमिका रही है तो उस पर उनको गर्व है. दरअसल, बीजेपी के साथ ही साथ कट्टर हिंदुत्व की राजनीति करने वाली शिवसेना ने भी मंदिर आंदोलन पर दावा ठोक दिया था. कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर महाविकास आघाड़ी सरकार बनाने के बावजूद शिवसेना जहां तक संभव हो पाता है, हिंदुत्व की राजनीति पर दावेदारी जताती आयी है. ऐसे भी मौके आये हैं जब कांग्रेस को शिवसेना का स्टैंड नागवार गुजरा है, लेकिन शिवसेना अपने एजेंडे को पर कायम रही है. क्या पता कल को फिर बीजेपी के साथ सरकार बनानी पड़े. बीजेपी की तरफ से तो हाल फिलहाल ये दावा भी शुरू हो चुका है.

भूमि पूजन के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आम चुनाव से पहले उठने वाले सवालों का अपने तरीके से जवाब दे रहे हैं - और देखा जाये तो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए भूमि पूजन बीजेपी के अयोध्या एजेंडे की राजनीतिक पूर्णाहुति ही है. धारा 370 और राम मंदिर निर्माण का चुनावी वादा पूरा करने के बाद बीजेपी का एक एजेंडा अभी बाकी है - यूनिफॉर्म सिविल कोड. देखतें हैं आगे की सालगिरह के जश्न का पैटर्न भी ऐसा ही रहता है क्या?

अयोध्या के आगे क्या है?

90 के दशक में राम मंदिर आंदोलन चरम पर रहा. ये वो दौर रहा जब बीजेपी के बुजुर्ग नेता लालकृष्ण आडवाणी रथयात्रा पर निकले थे. आडवाणी की रथयात्रा अयोध्या नहीं पहुंच सकी क्योंकि बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने रास्ते में ही रोक दिया. लालू प्रसाद ने भले ही अपने हिसाब से राजनीतिक फैसला लिया हो, लेकिन बीजेपी को रथयात्रा का जितना फायदा मिलना था उससे ज्यादा ही मिला. ये किस्मत की बात है कि लालकृष्ण आडवाणी एक चुनाव में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होने के बावजूद सपने को पूरा नहीं कर सके और पांच साल बाद ऐसे हालात बने कि सपना तो दूर बीजेपी के नये नेतृत्व ने मार्गदर्शक मंडल में ही पहुंचा दिया. बीजेपी के विरोधी सवाल तो आडवाणी के भूमि पूजन में नहीं पहुंचने पर भी उठा रहे हैं - लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिये पूजा में शामिल होकर वो कुछ राहत जरूर महसूस कर सकते हैं.

रथयात्रा के दौर में एक नारा लगता था - 'अयोध्या तो झांकी है, मथुरा और काशी भी बाकी है'.

अब सवाल यही है कि अयोध्या के बाद बीजेपी के एजेंडे में मथुरा और काशी रहने वाला है या नहीं? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला आते ही पूर्णाहुति मान ली थी. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने मीडिया के सवालों पर कहा था कि संघ अयोध्या आंदोलन से जुड़ा था और वो पूरा हो गया. आगे को लेकर उसका ऐसा कोई इरादा नहीं है. अयोध्या आंदोलन के पीछे प्रेरणास्रोत भले ही संघ ही रहा हो, लेकिन संदेश यही देने की कोशिश रही कि मंदिर आंदोलन विश्व हिंदू परिषद का रहा है - और संघ या बीजेपी उससे जुड़े रहे हैं.

जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया तब महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभाओं के चुनाव हो चुके थे - और झारखंड में चुनावी माहौल जोर पकड़ने लगा था. झारखंड में बीजेपी की चुनावी रैलियों में अमित शाह ने जोर शोर से मंदिर निर्माण की क्रेडिट लेने की कोशिश की और उसके नाम पर वोट भी मांगे, लेकिन मिला नहीं. दिल्ली में भी वही हाल हुआ. मंदिर निर्माण के मुद्दे को अहमियत दिलाने के लिए शाहीन बाग को भी खूब हवा देने की कोशिश हुई, लेकिन बीजेपी के लिए दिल्ली के नतीजे भी झारखंड जैसे ही रहे.

अयोध्या में भूमि पूजन ऐसे वक्त हो रहा है जब बीजपी नेतृत्व बिहार विधानसभा चुनाव की तैयारी कर रहा है. चुनाव तो बिहार के बाद बंगाल और दूसरे कई राज्यों में भी हैं, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण 2022 में होने वाला उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो पहले से ही चुनावी तैयारियों में जुटे हुए हैं.

अयोध्या में दिवाली के साथ साथ योगी आदित्यनाथ होली मनाने मथुरा भी जाने लगे हैं, रही बात काशी की तो प्रधानमंत्री मोदी का चुनाव क्षेत्र होने के नाते अक्सर देर शाम या रात को योगी आदित्यानाथ का दौरा होता ही रहता है. अब सवाल ये है कि अयोध्या आंदोलन क्या योगी आदित्यनाथ के लिए भी बीजेपी के एजेंडे पूर्णाहूति है - या योगी आदित्यनाथ के लिए मथुरा और काशी बाकी है? UP-2022 के हिसाब से महत्वपूर्ण सवाल तो यही है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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