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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 16 फरवरी, 2018 04:53 PM
राहुल कंवल
राहुल कंवल
  @rahul.kanwal.52
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भारतीय पत्रकारिता को साख के इतने बड़े संकट से पहले कभी सामना नहीं करना पड़ा है. चैनल्स खुले तौर पर राजनीतिक दलों का पक्ष ले रहे हैं या उनके खिलाफ मोर्चा खोले हुए हैं. एंकर्स और एडिटर्स जितनी बेशर्मी से एजेंडा आगे बढ़ा रहे हैं, ऐसा पहले कभी नहीं हुआ. क्या पत्रकार भक्त, आपिए या पिद्दी की पहचान बन कर ही रह जाएंगे? या सही मायने वाली रिपोर्टिंग के लिए अब भी कोई भविष्य बचा है.

भारत में पत्रकारिता मल्टीपल च्वाइस वाला सवाल बन कर रह गई लगती है. क्या आप एक भक्त हैं? क्या आप एक पिद्दी हैं? क्या आप एक आपिए हैं? तो लेडीज़ एंड जेंटलमैन मेरा जवाब है कि मैं इनमें से कोई भी नहीं हूं. मैं ‘नोटा’ हूं. मैं यहां हार्वर्ड कॉन्फ्रेंस में हूं और आप सबसे जो यहां मौजूद हैं या फेसबुक, यू-ट्यूब या ट्विटर पर साथ जुड़े हैं, से कहना चाहूंगा कि ऐसी पत्रकारिता को खारिज़ करें, जो खुले तौर पर पक्ष लेती है या बेहयाई से राजनीतिक प्रोपेगंडा को आगे बढ़ाती है.

ऐसी पत्रकारिता को खारिज़ कीजिए जो नफ़रत फैलाती है. ऐसी पत्रकारिता को दरकिनार कीजिए जो रेटिंग्स की ज़्यादा फ़िक्र करती है और ये नहीं देखती कि भड़काने वाली स्टोरीज और फर्जी विरोधाभास दिखाने का समाज पर क्या असर पड़ता है. मैं यहां आप से आग्रह करने आया हूं कि ऐसी पत्रकारिता को चुनिए जो स्टोरी के दोनों पक्षों को लोगों तक पहुंचाने में विश्वास रखे. ऐसी पत्रकारिता को चुनिए जो सभी पक्षों से तीखे और मुश्किल सवाल करे. ऐसी पत्रकारिता को चुनिए जो सरकार को जवाबदेह ठहराए और हर वक्त विपक्ष को ही कटघरे में खड़ा करने के रास्ते ना तलाशती रहे.

मैं यहां आपसे ये कहने आया हूं कि ऐसी पत्रकारिता को खारिज करें जो सियासी लकीर के दोनों तरफ़ खड़े पक्षों में से किसी एक के लिए अतिवादी रुख अपना लेती है. मैं कहूंगा कि ऐसी पत्रकारिता को चुनिए जो दोनों तरफ के खेमों की खामियों से आपको रू-ब-रू कराती है.

ऐसे पत्रकारों को खारिज़ कीजिए जो एक खास राजनीतिक विचारधारा के ही चीयरलीडर्स बने हुए हैं. ऐसे पत्रकारों को खारिज़ कीजिए जो नफरत से इतने अंधे हो चुके हैं कि वो जिस पार्टी को पसंद नहीं करते, उसके बारे में सिर्फ गलत ही गलत देखते हैं और उसका कोई भी सही पक्ष नहीं देख पाते. निष्पक्ष रहते हुए स्टोरी के दोनों पक्षों को आप तक पहुंचाना पत्रकारिता की बुनियाद है और यही सारी स्टोरीज़ को कहने का आधार होना चाहिए. लेकिन आज के भारत में निष्पक्ष रहते हुए स्टोरी के दोनों पहलुओं को लोगों तक पहुंचाना सबसे मुश्किल काम हो गया लगता है.

rahul kanwalफेक न्यूज को खारिज करने की अपील...

 

मैंने हाल में भारत के एक नॉर्थ कोरियन चैनल से जुड़े बेहद आक्रामक और लोकप्रिय एंकर को कहते सुना- ‘मैं पक्ष लेता हूं, मेरी अपनी राय है और मैं उसे मज़बूती के साथ रखता हूं तो उसमें हर्ज़ क्या है?’… उसमें हर्ज़ क्या है...ये आप कह रहे हैं. जिस घड़ी आप कोई पक्ष ले लेते हैं तो आप पत्रकारिता नहीं कर रहे होते. आप एक निष्पक्ष स्टोरी को नहीं कह रहे होते. आप राजनीतिक प्रोपेगैंडा के कारोबार में है. इन सभी प्रोपेगैंडा चलाने वालों से मैं कहूंगा कि दिखावा करना बंद कीजिए. खुद के पत्रकार होने का दावा करना बंद कीजिए. उस पार्टी में शामिल हो जाइए जिसका आप समर्थन करते हैं. तो क्या हम 100 फीसदी निष्पक्ष हैं? क्या हम जो पत्रकारिता करते हैं उसमें कोई खामी नहीं होती? नहीं ऐसा नहीं है. हम इनसान हैं और यदा-कदा हम भी ग़लती करते हैं. लेकिन कम से कम हम स्टोरी के दोनों पक्षों को बताने की कोशिश करते हैं. और आज के भारत में मैं आपसे पूछता हूं कि कितने ऐसे टीवी एंकर हैं, एडीटर हैं या चैनल हैं जो स्टोरी के दोनों पक्ष आपको बताते हैं. क्या ये देश नहीं जानना चाहता.

लोग मुझसे सवाल करते हैं कि मेरी राजनीतिक विचारधारा क्या है? मैं कौन सी पार्टी का समर्थन करता हूं? इस सवाल के जवाब में मैं कहना चाहूंगा कि मैं आर्मी बैकग्राउंड से आता हूं. जिस नज़रिए को मैं सुनते हुए बड़ा हुआ वो ये था कि सब नेता चोर हैं. सब भ्रष्ट हैं. इन्हें लाइन में खड़ा कर शूट कर दिया जाए तो भारत की समस्याएं खुद ही ख़त्म हो जाएंगी. राजनीति को लेकर जो फौजी नज़रिया है, मेरा नजरिया उसका ही कुछ सुलझा हुआ रूप है. मैं विश्वास नहीं रखता कि नेताओं को शूट कर देने से भारत की सारी समस्याएं हल हो जाएंगी. लेकिन मैं सभी नेताओं को लेकर शंका रखता हूं और किसी को भी सपोर्ट नहीं करता. आप सब की तरह ही मेरी भी पसंद और नापसंद हैं. लेकिन मैं जब हर सुबह काम पर जाता हूं तो इस पसंद-नापसंद को घर पर ही छोड़ कर आना पसंद करता हूं.

भारत में पत्रकारिता को आज अपनी साख के सबसे बड़े संकट का सामना है. पहले कभी ऐसे चैनल्स और ऐसे एडीटर्स नहीं हुए जिन्होंने इतनी बेशर्मी से राजनीतिक दलों का पक्ष लिया हो. पहले अगर कोई निजी राय होती थी तो उसे सार्वजनिक तौर पर साझा नहीं किया जाता था. लेकिन अब इसका हर रात स्क्रीन पर ढिंढोरा पीटा जाता है. इन्हें शोरगुल वाली रात कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा. हर रात स्क्रीन पर दस सिर एक दूसरे पर चिल्लाते नज़र आते हैं. एंकर आराम से बैठकर मजा लेता रहता है. एक बार भी वो दखल देने की कोशिश करता नहीं दिखता कि बहस को कुछ सही मायने मिल सकें. ऐसी पत्रकारिता, अगर इसे पत्रकारिता कहा भी जा सके, से देश को कोई भला नहीं हो रहा. ऐसी पत्रकारिता उस सामाजिक तानेबाने को ही नुकसान पहुंचा रही है जो इस खूबसूरत देश को जोड़े रखने के लिए सबसे ज़्यादा मायने रखता है.

मैं यहां हूं आपसे कहने के लिए आया हूं कि शोर को खारिज कीजिए. ऐसी पत्रकारिता को चुनिए जो कुछ मायने देने की कोशिश करे ना कि शोर मचाए. पत्रकारिता ये नहीं है, और हो भी नहीं सकती कि हर रात ‘कॉकफाइट’ कराई जाए. बांटने वाला मुद्दा चुन कर कुछ कट्टरपंथी मौलानाओं को अतिवादी पंडितों से भिड़ा दिया जाए. वहीं एंकर आराम से बैठ कर इस लड़ाई का आनंद लेता रहे. ये सब बहुत दयनीय है. ये पत्रकारिता हर्गिज़ नहीं है.

अगर हम भारत में मीडिया के मौजूदा हालात की बात करते हैं तो मुझे मायूसी की आवाज़ें ऊंची होती दिखती हैं. बहुत सारे तार्किक पत्रकार कहते नज़र आते हैं कि ‘अब पत्रकार होने के कोई मायने नहीं रहे. इसकी हालत आगे और बिगड़ती जाएगी. इसे छोड़ कर कुछ और करने की सोचो. कॉरपोरेट कम्युनिकेशन्स कहीं आसान है. पॉलिटिकल कम्युनिकेशन मजेदार है. इनमें ज्यादा पैसा भी मिलेगा, क्या हुआ अगर इसमें से कुछ पैसा काला भी होगा तो.’

यहां मैं कुछ कहना चाहूंगा. कहना चाहूंगा हर उस शख्स से जो पहले से ही पत्रकारिता में है या वो जो पत्रकार बनना चाहते हैं. ‘क्या सिर्फ इसलिए कि तालाब गंदा है और रास्ता कीचड़ से भरा है, तो आप घर बैठ जाओ. नहीं बल्कि इसके उलट ऐसे हालात का डट कर सामना करने के लिए खुद को तैयार करना चाहिए. कमर कसो, पक्का इरादा करो और मज़बूती के साथ अपने से कहो कि मैं मैदान नहीं छोड़ूंगा. मेरे आसपास जो भ्रष्टाचार की गंदगी है उससे खुद को दाग़दार नहीं होने दूंगा. क्या सिर्फ इसलिए कि हर कोई किसी ना किसी का पक्ष ले रहा है तो मुझे भी ऐसा करना ही होगा. क्योंकि दूसरे प्रोपेगंडा का बढ़ावा दे रहे हैं तो इसका ये मतलब हो कि मैं अपनी तरह सोचना ही बंद कर दूं...नहीं ये सब मेरे पर हावी नहीं हो सकता और ना ही ऐसा होने दूंगा. मैं लड़ूंगा और पूरे दमखम से लडूंगा.’

ये जो कुछ भी गड़बड़ दिख रही है, ये पिछले कुछ वर्षों में ही सामने आई है. मैं दो दशक पहले जब पहली बार अमेरिका आया था तो मैंने यहां फॉक्स न्यूज़ को ट्यून किया. मैं उस वक्त हैरान रह गया था जब मैंने इस नेटवर्क के स्टार एंकर बिल ओ रायली को अपने एक युवा गेस्ट पर ‘शट अप’ चिल्लाते हुए सुना. मैं ये सिर्फ टीवी पर ही देख रहा था, फिर भी पथरा गया. अगले कुछ मिनट तक एक ही लाइन पर किए जा रहे सवालों को मैं सुनता रहा. आखिर मैंने चैनल ही बदल दिया. मैं खुद से ही बुदबुदाया, भगवान का शुक्र है कि भारत में ऐसा कभी नहीं हो सकता. मैं संतोष के साथ पीठ पीछे कर बैठा कि भारत में हम स्टोरी के दोनों पहलू दिखाते हैं. सभी पार्टियों से मुश्किल सवाल करते हैं और खुले तौर पर किसी एक पार्टी का पक्ष नहीं लेते. दुर्भाग्य से वो दिन बहुत पीछे छूट गए लगते हैं जब पत्रकार कम से कम दोनों तरफ का पक्ष रखने की कोशिश करते दिखते थे. भारतीय न्यूज टीवी अब ऐसे हैं जैसे कि फॉक्स न्यूज़ को स्टीरॉयड्स पर रख दिया हो. भारत के कुछ नॉर्थ कोरियन चैनल्स पर जिस तरह से न्यूज़ के नाम पर किसी का पीछा करते वक्त जो क्रूरता बरती जाती है उसे देखकर तो फॉक्स भी शर्मा जाए.

प्रोपेगंडा का प्लेग छूत की बीमारी की तरह है. और भारत में मौजूदा वक्त में दुर्भाग्य से इसे लोकप्रियता का उफान मिल रहा है. न्यूज़ चैनल्स जब टीवी रेटिंग पाइंट्स पर बारीकी से नज़र रखे हुए हैं तो साफ दिखता है कि जो चैनल्स और एंकर्स राष्ट्रवादी लाइन को अधिक आगे बढ़ा रहे हैं वो ज्यादा नजरों को अपनी तरफ खींच रहे हैं बजाए उनके कि जो स्टोरी के दोनों पक्षों को सामने रखते हैं.

ये पानी में तरंग के असर जैसा है. इस ट्रेंड को बेशक गिनती के कुछ एंकर्स, एडिटर्स और पत्रकारों ने शुरू किया हो और जो असलियत में ही किसी खास नजरिए में विश्वास रखते हैं. लेकिन उनकी नकल अब दूसरे एंकर्स और एडिटर्स ने भी करना शुरू कर दिया है. ये नकल करने वाले एंकर्स और एडिटर्स वो हैं जो मूल रूप से इस तरह की विचारधारा में यकीन नहीं रखते थे.

मैं आपको यहां एक शख्स के बारे में बताना चाहूंगा. हालांकि मैं उस शख्स का नाम नहीं खोलूंगा. ये कुछ साल पहले एडिटर के तौर पर हमारे साथ न्यूज़रूम में काम करते थे. एक दिन उन्होंने अपने रिटायरमेंट के बाद के प्लान के बारे में बताया. कैसे उनका इरादा था कि कांग्रेस पार्टी को वो बौद्धिक ज्ञान उपलब्ध कराएंगे और कैसे वो ग्रैंड ओल्ड पार्टी के थिंक टैंक के साथ जुड़ेंगे. अब वही शख्स भारत के नॉर्थ कोरियन चैनल्स में से एक में एडीटर के तौर पर काम कर रहे हैं. मैं देखता हूं कि वो प्राइवेट बातचीत में जो कहते थे और अब वो अपने चैनल में जो कर रहे हैं, वो बहुत हैरान करने वाला है. एक शख्स जो अपनी सोच को किसी एक पार्टी विशेष की तरफ झुका हुआ बताता था, अब वही रेटिंग्स की खातिर ऐसे काम कर रहा है जो किसी दूसरी पार्टी के लिए चीयरलीडर होने जैसा है. अगर ये मौकापरस्ती नहीं है तो और क्या है.

एक सवाल जो आप सब जो यहां बैठे हैं, मुझसे पूछना चाहेंगे कि ये सारी ज्ञानबाजी तो ठीक है लेकिन हम जो कहते है, खुद उस पर कितना अमल करते हैं. इस पर आप सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है लेकिन मैंने जो कुछ स्पीच में कहा, उसके समर्थन में कुछ स्टोरीज का हवाला देना चाहूंगा.

नरेंद्र मोदी जब से भारत के प्रधानमंत्री बने हैं तब से अब तक बीजेपी के सिर्फ एक मंत्री को भ्रष्टाचार के आरोप में इस्तीफ़ा देना पड़ा हैं. वो हैं एकनाथ खड़से. मंत्री को इसलिए इस्तीफा देना पड़ा क्योंकि उनसे जुड़े ज़मीन घोटाले पर इंडिया टुडे ग्रुप ने आंखें खोल देने वाली रिपोर्ट्स की पूरी सीरीज़ दिखाई थी.

इंडिया टुडे ग्रुप ने गोरक्षकों पर तीन इंवेस्टीगेटिव रिपोर्ट्स की सीरीज़ की. उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उस हिंसा पर चुप्पी तोड़ते देखा गया जो पवित्र गाय को बचाने के नाम पर गोरक्षकों की ओर से की जा रही थी. इंडिया टुडे पर दिखाए गए ‘ऑपरेशन गोरक्षक’ की वजह से पंजाब के गोरक्षा दल का अध्यक्ष आज भी जेल में बंद है.

जेएनयू में विवाद जब चरम पर था तब इंडिया टुडे अकेला नेटवर्क था जिसने कन्हैया कुमार की स्पीच का फॉरन्सिक एनालिसिस किया. साथ ही बताया कि कन्हैया ने कभी भारत विरोधी नारे नहीं लगाए. यहीं नहीं हमने उन वकीलों को भी बेनकाब किया जिन्होंने कन्हैया को बेरहमी से पीटा था. साथ ही उन्हें कैमरे पर ये कबूल करते भी दिखाया कि पुलिस के दूसरी ओर नज़रें फेर लेने की वजह से उन्हें ये सब करने के लिए शह मिली.

अभी हाल में हमने करणी सेना पर स्टोरी की और राजपूत सम्मान के स्वयंभू रक्षकों को कैमरे पर ये कबूल करते दिखाया कि वो संजय लीला भंसाली से पैसे की मांग कर रहे थे जिससे कि ‘पद्मावत’ की रिलीज को हरी झंडी देने के लिए डील की जा सके. हमने हुर्रियत कॉन्फ्रेंस पर ‘हुर्रियत ट्रूथ टेप्स’ के जरिए जो स्टिंग दिखाया, उसकी वजह से हुर्रियत के दस वरिष्ठ नेता अब जेल की सलाखों के पीछे हैं. साथ ही हुर्रियत का असली रंग भी देश के लोगों के सामने आ सका. हमने कट्टरपंथी मदरसों को भी बेनकाब किया जो वहाबी विचारधारा को फैलाने के मकसद से मिडिल ईस्ट और सऊदी अरब से फंडिंग हासिल कर रहे थे. मैं ऐसी कईं स्टोरी का हवाला दे सकता हूं. लेकिन मैं जिस तरफ़ आपका ध्यान दिलाना चाहता हूं वो ये है कि हमारी पत्रकारिता का कोई रंग नहीं है. हमारी पत्रकारिता का किसी तरफ झुकाव नहीं है. हम स्टोरी के दोनों पक्षों को बताने के लिए काम करते हैं.

वो जो सरकार को पसंद करते हैं वो कहेंगे कि हम बहुत ज़्यादा आलोचना करते हैं. वो जो सरकार से नफ़रत करते हैं वो कहेंगे कि जितनी आलोचना करनी चाहिए उतनी हम नहीं करते. ये आंकना आप पर निर्भर है. लेकिन हम जो जानते हैं वो है कि दोनों पक्षों को एक्पोज़ करने के लिए कड़ी मेहनत करना. हम सिर ऊंचा कर चलते हैं. हम सिर्फ स्टोरी बताने वाले हैं और हम किसी भी शानदार स्टोरी के लिए बहुत उत्साहित होते हैं, ये मायने नहीं रखता कि उसे कौन पहले सामने लाया. मुझे हार्वर्ड के लिए न्योता देने पर आप सब का शुक्रिया. मुझे आपने इतने धैर्य के साथ सुना, इसके लिए शुक्रिया. साथ ही आयोजकों को मेरी ओर से बहुत शुभकामनाएं...

( हार्वर्ड इंडिया कॉन्फ्रेंस में राहुल कंवल की की-नोट स्पीच का विषय था- 'क्या फ़र्जी न्यूज़ और राजनीतिक प्रोपेगंडा भारत में पत्रकारिता को भटका रहा है? क्या है इलाज़?')

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लेखक

राहुल कंवल राहुल कंवल @rahul.kanwal.52

लेखक टीवी टुडे ग्रुप के मैनेजिंग एडिटर और प्रख्यात टीवी एंकर हैं.

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