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Updated: 19 अक्टूबर, 2022 08:35 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से जलने वाले भले ही अनाप शनाप आरोप लगाते रहे हों. भले ही कोई कहे कि कांग्रेस में सब कुछ राहुल गांधी की मर्जी से ही होता है. जैसे उनके गुरु शरद यादव भी बोल पड़ते हैं. कांग्रेस में 24x7 पत्ता राहुल गांधी की मर्जी से ही हिलता है. शब्द लोगों के अलग अलग हो सकते हैं, लेकिन भाव नहीं बदलता.

लेकिन क्या कांग्रेस में वास्तव में ऐसा ही होता है? अगर वाकई ऐसा ही होता तो क्या राहुल गांधी को इस्तीफा देने की जरूरत पड़ी होती? अपने इस्तीफे के साथ राहुल गांधी ऐसे तमाम तत्वों को सख्त मैसेज देने की कोशिश किये थे. और हां, वो ये भी चाहते थे कि बाकी लोग भी उनको फॉलो करते हुए ठीक वैसा ही व्यवहार करें.

क्या किसी ने राहुल गांधी के मैसेज को समझा? क्या किसी ने राहुल गांधी को फॉलो किया? हो सकता है, अपने स्तर पर कुछ लोगों ने छिटफुट इस्तीफों के जरिये अपना योगदान दिया भी हो - लेकिन क्या वो खेल रुका जिसके खिलाफ या जिसे खत्म करने के लिए राहुल गांधी को इतना बड़ा कदम उठाने के लिए मजबूर किया था?

राहुल गांधी की बात अगर किसी को समझ में नहीं आयी हो तो प्रियंका गांधी ने तस्वीर साफ करने की कोशिश भी थी. कांग्रेस के हत्यारों की तरफ सवाल उठाकर. कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में साफ साफ बोल दिया था कि हत्यारे कमरे में ही बैठ हुए हैं. फिर भी किसी पर कोई असर नहीं हुआ. कमलनाथ और अशोक गहलोत का राहुल गांधी ने सरेआम नाम तक ले लिया था. इशारों में कई और भी नाम थे. नामवाले गुमनाम रहे, लेकिन सभी ने समझ लिया था इशारा किस तरफ रहा - फिर भी किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ा. किसी को कोई परवाह नहीं रही.

राहुल गांधी का इस्तीफा एक ऐसा कदम रहा जिसकी वजह से सोनिया गांधी को सुकून की जिंदगी छोड़ कर फिर से मैदान में उतरना पड़ा. ताकि कांग्रेस गांधी परिवार के हाथ से फिसल कर ऐसे हाथों में न चली जाये, जहां से वापस लेना मुश्किल हो जाये. देखा जाये तो सोनिया गांधी ने ठीक ही सोचा था, अगर वास्तव में ऐसा होता तो वापस लेना नामुमकिन भी हो सकता था.

सोनिया गांधी को ये उम्मीद तो रही ही होगी कि राहुल गांधी एक न एक दिन मान जाएंगे. लेकिन राहुल गांधी गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष की जिद पर अड़े ही रहे - और कांग्रेस अध्यक्ष की मांग को लेकर क्या क्या न हुआ.

कई बार कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव (Congress President) की समय सीमा की तरफ संकेत देने की कोशिश हुई. बार बार बात राहुल गांधी के फैसले पर फिर से विचार करने पर ही बात आकर अटक जाती. राहुल गांधी जिद पर अड़े रहे. टस से मस नहीं हुए.

और ऐसा भी हुआ कि सोनिया गांधी ने अपनी तरफ से अशोक गहलोत पर ही भरोसा जताया. वही अशोक गहलोत जिनके अपने बेटे के लिए टिकट के लिए दबाव बनाने से राहुल गांधी खफा थे. वही अशोक गहलोत जो सचिन पायलट के मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की बातों की परवाह कभी नहीं किये - और जब सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने चाहा कि वो मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ दें तो राजस्थान में ऐसा बवाल कर दिया कि मामला बेकाबू हो गया.

कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में बेशक मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) अब घोषित तौर पर जीत गये हैं. ये ठीक है कि शशि थरूर की तरफ से शुरू से आखिर तक चुनाव प्रक्रिया पर ही सवाल उठाये जाते रहे - और ये भी भुला देते हैं कि मधुसूदन मिस्त्री के कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के विजेता की घोषणा से पहले ही वो वीडियो भी वायरल हो गया, जिसमें राहुल गांधी की बातों से ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव तो बस दिखावा है - और शशि थरूर जो कुछ भी कह रहे हैं, वो किसी हारते हुए या हारे हुए नेता का बयान भर नहीं है.

अब जबकि कांग्रेस पार्टी को कमान संभालने के लिए 65वां नेता मिल चुका है. अब जबकि कांग्रेस को दूसरा दलित अध्यक्ष मिल गया है - और अब जबकि राहुल गांधी की पहल और अपने स्टैंड पर अड़े रहने की वजह से ढाई दशक बाद कांग्रेस को गांधी परिवार से इतर का अध्यक्ष मिल चुका है, पार्टी के अंदर भी और बाहर भी कुछ शिकायतें तो खत्म हो ही जानी चाहिये. खड़गे से पहले बाबू जगजीवन राम कांग्रेस के पहले दलित अध्यक्ष रहे. बाबू जगजीवन राम सीनियर कांग्रेस नेता और राष्ट्रपति चुनाव लड़ चुकीं मीरा कुमार के पिता थे.

mallikarjun kharge, shashi tharoorजो बात शशि थरूर और मल्लिकार्जुन खड़गे को पहले से पता थी, राहुल गांधी के बाद मधुसूदन मिस्त्री ने भी बता दी है!

कांग्रेस नेताओं की वे शिकायतें तो खत्म होने से रहीं, जो व्यक्ति के बदल जाने पर भी परिस्थितियों के बने रहने की वजह से बनी ही रहती हैं, लेकिन अब कांग्रेस को एक काम करता हुआ नजर आने वाला अध्यक्ष तो मिल ही चुका है - ये बात अलग है कि कांग्रेस के जो नेता ऐसा चाहते थे वे अस्तबल छोड़ कर जा चुके हैं - कपिल सिब्बल भी और गुलाम नबी आजाद भी.

ये तो माना ही जाएगा कि कांग्रेस में पहली बार कुछ राहुल गांधी के मन का हो सका है, बाकी चीजें तो वो मन की करते ही रहते हैं - और मल्लिकार्जुन खड़गे भले ही कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने का हक हासिल कर चुके हों, लेकिन सही मायने में तो ये राहुल गांधी की ही ऐतिहासिक जीत है.

G-23 से G-1072 तक

बाद में जो भी हो, लेकिन कुछ देर के लिए तो मल्लिकार्जुन खड़गे को अपनेआप पर गर्व महसूस हुआ ही होगा, जब लोग उनके घर पहुंच कर कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बधाई दे रहे थे - और एक एहसान तो वो राहुल गांधी का ताउम्र नहीं भूलेंगे कि ये सब राहुल गांधी की बदौलत ही हासिल हो सका है.

सबसे खास बात तो सोनिया गांधी का 10, जनपथ से निकल कर मल्लिकार्जुन खड़गे के 10, राजाजी मार्ग वाले घर पर पहुंचना रहा - और वो भी साथ में कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का मौजूद रहना.

जो कसर बाकी थी वो शशि थरूर खुद ही पूरी कर चुके थे. नतीजे आने के फौरन बाद ही शशि थरूर भी मल्लिकार्जुन खड़गे के घर पहुंच गये थे और बधाई की रस्म बेहद गर्मजोशी के साथ निभायी. चेहरे के भाव को कुछ देर के लिए इग्नोर तो किया ही जा सकता है, जो स्वाभाविक भी है.

कांग्रेस की तरफ से जो जानकारी उपलब्ध करायी गयी है उसके मुताबिक, मल्लिकार्जुन खड़गे ने शशि थरूर को 6685 वोटों से शिकस्त दी है. बताया गया है कि मल्लिकार्जुन खड़गे को कुल 7897 वोट मिले हैं - और 416 वोट अवैध पाये जाने के कारण रद्द कर दिये गये.

शशि थरूर को कांग्रेस अध्यक्ष उम्मीदवार के रूप में 1072 वोट मिले हैं और इन वोटों को ही अब G-23 के असल रूप में देखा जाना चाहिये. ये शशि थरूर ही हैं जो अकेले अपने दम पर अपने स्टैंड पर डटे रहे.

शशि थरूर का अपने स्टैंड पर कायम रहना इसलिए भी काफी अहम है क्योंकि G-23 के सारे ही नेता मैदान छोड़ चुके हैं. कुछ तो गुजरते वक्त के साथ कांग्रेस छोड़ कर ही चले गये और जो बचे हुए भी थे वे सब के सब बदले माहौल में मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ जाकर खड़े हो गये.

ये G-23 आखिर क्या था? ये विरोध का प्रतीक ही तो था, लेकिन एक ऐसा विरोध जो हमेशा ही सुधारवादी रूप में सामने आया. कांग्रेस के भीतर एक ऐसा गुट जो सिर्फ ये चाहता था कि कोई एक नेता सारी चीजों की जिम्मेदारी ले. एक ऐसा नेता हो जिससे मिलना संभव हो सके - और वो सिर्फ करीबी चापलूस नेताओं की टोली ही नहीं बल्कि उसके बाद कतार में खड़े नेताओं और कार्यकर्ताओं की बातें भी सुनने के लिए उपलब्ध हो.

G-23 के रूप में तब सामने आये नेताओं की बातों से तो यही लगा कि उनको राहुल गांधी से भी कोई शिकायत नहीं थी. वो राहुल गांधी को भी अध्यक्ष मानने को तैयार थे, बशर्ते कांग्रेस की संवैधानिक प्रक्रिया से चुन कर आने के बाद भी भले ही वो वही सब करते रहें जो यूं ही करते चले आ रहे थे.

कुछ खास हुआ हो न हुआ हो. किसी को कोई उम्मीद हो न हो, ये सब अलग बातें हैं - लेकिन ये तो साफ हो ही गया है कि जिसे विरोध का एक संगठित गुट समझा गया था वो कोई दो दर्जन नेता नहीं, बल्कि एक हजार से ज्यादा कांग्रेस के डेलिगेट्स हैं.

शशि थरूर भले आंकड़ों की नजर में चुनाव हार गये हों, लेकिन ये श्रेय तो मिलना ही चाहिये कि वो अपने उसूलों पर आखिरी वक्त तक डटे रहे. वो मौका देख कर पाला बदल लेने वाली नेताओं की जमात में शामिल नहीं ही हुए - और अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष पद का चुनाव भी उसी पेशवराने अंदाज और जज्बे के साथ लड़े जो तेवर उनका संयुक्त राष्ट्र महासचिव के चुनाव में देखने को मिला था.

सोनिया गांधी और उनके करीबी नेता या राहुल गांधी ही भले ही ये समझ रहे हों कि गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेताओं के कांग्रेस छोड़ कर चले जाने और मनीष तिवारी और भूपिंदर सिंह हुड्डा जैसे नेताओं के गांधी परिवार के साथ खड़े हो जाने के बाद G-23 पूरी तरह खत्म हो चुका है तो ये बहुत बड़ी गलतफहमी है - G-23 अब G-1072 हो गया है.

सवाल तो बैलट पेपर पर भी उठ ही गया

मल्लिकार्जुन खड़गे को तो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव जीतना ही था, जीत भी गये ही. पहली घोषणा तो तभी महसूस हुई जब राहुल गांधी ने चुनावी गड़बड़ियों के सवाल को टालते हुए सब कुछ मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ इशारा कर पल्ला झाड़ लिया. हालांकि, एक पल के लिए तब वो भूल गये लगे कि ये बताने का काम कि मल्लिकार्जुन खड़गे ही कांग्रेस के नये अध्यक्ष हैं, काम तो मधुसूदन मिस्त्री का है - और जब मधुसूदन मिस्त्री की तरफ से मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव जीते जाने की घोषणा की जा रही थी तब लगा जैसे रस्मअदायगी हो रही हो.

और ये मामला तो पहले से ही चर्चा में आ गया था, जब शशि थरूर के चुनाव एजेंट सलमान सोज की तरफ से मधुसूदन मिस्त्री को लिखे गये शिकायती पत्र की चर्चा होने लगी थी. हालांकि, औपचारिक तौर पर शिकायत दर्ज कराये जाने के बाद भी शशि थरूर ने अपनी तरफ से अपील की कि अब मामले को जहां का तहां खत्म कर ही देना चाहिये.

मधुसूदन मिस्त्री को लिखे पत्र में कहा गया कि चुनाव के लिए बनाये गये नियम 14 के तहत वोटिंग के बाद बैलट बॉक्स को केंद्रीय चुनाव एजेंसी की आधिकारिक मुहर से सीलबंद किया जाएगा - लेकिन उत्तर प्रदेश में नियम का उल्लंघन किया गया. यूपी के अलावा पंजाब और तेलंगाना में हुई वोटिंग को लेकर भी सवाल उठाया गया है.

शशि थरूर की शिकायत भी इतनी मीठी रही कि इल्जाम तो यहां तक लगाया गया कि चुनाव के दौरान उत्तर प्रदेश में उनके प्रतिद्वंद्वी के समर्थक ने बहुत गड़बड़ियां की, लेकिन इस बात के कोई सबूत नहीं मिले कि मल्लिकार्जुन खड़गे को भी ये सब पता ही था. लगे हाथ ये भी कहा गया कि अगर मल्लिकार्जुन खड़गे को ये सब मालूम होता तो वो होने नहीं देते - लेकिन मुद्दे की बात तो यही रही कि गड़बड़ियां हुईं, और वो भी बड़े पैमाने पर.

एक खास बात ये भी रही कि वोटिंग से पहले राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब और हरियाणा जैसे कई राज्यों में शशि थरूर को पोलिंग एजेंट नहीं मिल रहे थे, लिहाजा कांग्रेस के केंद्रीय चुनाव अभिकरण की तरफ से नियमों में बदलाव किया गया और शशि थरूर को भी पोलिंग एजेंट उपलब्ध कराये गये

शिकायती खत में इस बात को लेकर भी सवाल उठाया गया कि मतदान केंद्रों में वैसे लोग क्यों मौजूद पाये गये जो वहां के लिए अधिकृत और अपेक्षित नहीं थे - अब EVM तो था नहीं जिसके सिर ठीकरा फोड़ा जा सके, लेकिन ये तो दर्ज हो ही गया कि बैलट पेपर से होने वाले चुनाव के स्वतंत्र और निष्पक्ष होने पर भी सवाल उठाये जा सकते हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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