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Updated: 13 जून, 2019 05:23 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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कांग्रेस में अध्यक्ष पद की वैकेंसी खत्म हो गयी है. राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश से कई तरह की संभावनाएं जतायी जाने लगी थी. पांच साल बाद बाद भी आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद गांधी परिवार से बाहर के अध्यक्ष से लेकर कार्यकारी अध्यक्षों को लेकर भी खूब चर्चा रही. ऐसा भी नहीं कि ये चर्चा सिर्फ मीडिया या राजनीतिक गलियारों में रही, बल्कि कांग्रेस के भीतर भी गहन चर्चा हुई - लेकिन आखिरी फैसला वही हुई जो पहले से तय कर रखा गया था. किसी नयी भर्ती की जगह कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी के साथ ही आगे का भी सफर तय करेगी.

देश की दोनों बड़ी पार्टियों - कांग्रेस और बीजेपी को नये अध्यक्ष की तलाश थी. कांग्रेस की तलाश तो पूरी हो गयी - 'कस्तूरी कुंडली बसे मृग ढूंढे बन माहि'.

गांधी के उत्तराधिकारी की तलाश राहुल पर खत्म!

अच्छी बात हो या बुरी, मगर कांग्रेस कोर कमेटी की मीटिंग की खास बात यही रही कि उसमें न तो राहुल गांधी थे, न सोनिया गांधी और न ही प्रियंका गांधी वाड्रा. सोनिया गांधी और प्रियंका वाड्रा तो रायबरेली के दौरे पर थीं. राहुल गांधी हो सकता है छुट्टियों की तैयारी में व्यस्त हों - क्योंकि खबर तो ऐसी ही आयी थी. ऐसे में कांग्रेस बैठक की अध्यक्षता परंपरागत तरीके से पूरे हर्षोल्लास के साथ ऐसे मामलों के वरिष्ठतम नेता एके एंटनी की अध्यक्षता में हुई. बात विचार को बैलेंस करने के मकसद से एंटनी के साथ साथ मीटिंग में अहमद पटेल, पी. चिदंबरम, जयराम रमेश, गुलाम नबी आजाद और मल्लिकार्जुन खड्गे, केसी वेणुगोपाल, आनंद शर्मा और रणदीप सुरजेवाला जैसे नेता शामिल हुए. ये मीटिंग कांग्रेस के वॉर रूम में हुई. वैसे भी दूसरी किसी जगह ऐसी बैठकों का मतलब नहीं है.

राहुल गांधी से शुरू हुई कांग्रेस के नये अध्यक्ष की तलाश तमाम विचार-विमर्श, बहसों, अटकलों और कयासों से गुजरते हुए राहुल गांधी पर ही खत्म भी हो गयी. काफी सोच विचार के बाद भी कांग्रेस नेताओं के मन को कोई भाया ही नहीं और सूरदास की सुझायी लाइन पर फोकस होकर फैसला लेने को मजबूर होना पड़ा - 'ऊधौ मन न भये दस-बीस, एक हुतो सो गयौ स्याम संग को अवराधे ईस.'

मतलब ये कि राहुल गांधी की जगह न तो कोई लेने लायक है और न ही ले सकता है. सही बात है. वैसे भी किसी व्यक्ति की जगह दूसरा कोई कैसे ले सकता है. वैसे भी कांग्रेस को राहुल गांधी की जगह राहुल गांधी जैसी ही नहीं, बल्कि ऐसे नेता की जरूरत है जो कांग्रेस को नये सिरे से खड़ा कर सके.

गांधी परिवार से बाहर झांके भी तो कौन और कैसे?

जब राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश की तभी ये भी सुझाया कि कांग्रेस की कमान गांधी परिवार से बाहर किसी को दिया जाये. जब कांग्रेस नेताओं ने अगल बगल देखने के बावजूद कोई ऐसा लगा नहीं तो प्रियंका गांधी वाड्रा की तरफ इशारा किया - लेकिन राहुल गांधी को ये सलाह भी ठीक नहीं लगी. राहुल गांधी ने साफ कर दिया - 'मेरी बहन को इसमें मत घसीटो.'

only rahul gandhi can replace himselfराहुल के उत्तराधिकारी सिर्फ राहुल गांधी ही हैं

हो सकता है राहुल गांधी नहीं चाहते हों कि प्रियंका वाड्रा कांग्रेस अध्यक्ष बन कर किसी और मुसीबत में फंसे. प्रियंका वाड्रा को तो पहले रॉबर्ट वाड्रा के साथ लड़ाई लड़नी ही है. अब ये तो नहीं कहा जा सकता कि राहुल गांधी भी प्रियंका वाड्रा को अध्यक्ष बनाये जाने के पक्ष में नहीं हैं.

देखा जाये तो राहुल गांधी ने नैतिकता की मिसाल पेश की है. आगे बढ़े कर पूरी हिम्मत के साथ हार की जिम्मेदारी ली और किसी अन्य नेता की तरह इस्तीफे की भी पेशकश कर डाली. काफी हद तक तो गुस्सा इस बात पर था कि परिवारवाद के चलते कांग्रेस को नुकसान उठाना पड़ रहा है. हो सकता है राहुल गांधी के इस्तीफे की पेशकश की एक वजह ये भी हो क्योंकि कमलनाथ और अशोक गहलोत को भी लपेटना था.

वैसे अगर सच्चे मन से राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ना चाहते थे और इस्तीफे की पेशकश महज दिखावा नहीं थी - तो उन्हें ये मिशन अधूरा नहीं छोड़ना चाहिये था. खुद राहुल गांधी को ही इसे अंजाम तक पहुंचाना चाहिये था. अगर ये कोई गंभीर बात नहीं थी तो बात और है.

जिस तरह की कोर कमेटी की बैठक हुई है इससे ज्यादा कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती. आखिर राहुल गांधी की ही बनायी कोर कमेटी के नेताओं से कैसे उम्मीद की जाये कि वे राहुल गांधी की जगह किसी और को अध्यक्ष पद के लिए सुझाने की हिम्मत जुटा पाएंगे.

कांग्रेस की ये की ये मुश्किल राहुल गांधी ही खत्म कर सकते हैं. अगर वास्तव में राहुल गांधी को लगता है कि वो कांग्रेस को वो चीजें नहीं दिला पा रहे हैं जो उसे वास्तव में चाहिये तो इसका भी इंतजाम उन्हें खुद ही करना होगा. मुश्किल तो ये है कि ये काम न कांग्रेस की किसी कोर कमेटी के वश का है, न सोनिया गांधी और न ही प्रियंका गांधी वाड्रा के वश की. कांग्रेस के लिए ये कटु सत्य है कि गांधी परिवार से बाहर झांकने का भी वीटो सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी के ही पास है. सियासी तफरीह ही की तो बात ही और है.

सवाल तो कायम है, मतलब भले न हो

मीटिंग के बाद कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने मुख्य तौर पर दो बातें बतायीं. प्रवक्ता की सारी बातों का लब्बोलुआब यही रहा कि राहुल गांधी विकल्प भी सिर्फ राहुल गांधी ही हैं.

एक - 'राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष थे, हैं और रहेंगे.'

दूसरी बात एक सवाल का जवाब था कि क्या राहुल गांधी का कोई विकल्प तलाशा जा रहा है? जवाब मिला - 'इस सवाल का कोई मतलब नहीं है.' जिस तरह गुजराती होने के कारण प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खून में बिजनेस है, उसी तरह राहुल गांधी के जीन्स में ही राजनीति है. देश का शासन कैसे चलता है ये तो राहुल गांधी बचपन से देखते आ रहे हैं, लेकिन सक्रिय राजनीति में उनकी एंट्री 2004 में मानी जाती है जब वो अमेठी से लोक सभा का चुनाव लड़कर संसद पहुंचे. ये तब की बात है जब अटल बिहारी वाजयेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को सत्ता से तत्कालीन सोनिया गांधी ने बेदखल कर दिया था. तब कांग्रेस नेतृत्व के हाथ में सब कुछ था. चाहतीं तो खुद सोनिया गांधी भी प्रधानमंत्री बन सकती थीं या फिर राहुल गांधी को भी कुर्सी पर बिठा सकती थीं - लेकिन ये मनमोहन सिंह की किस्मत में था.

2009 के चुनाव में राहुल गांधी की काफी तारीफ हुई थी. चुनाव में राहुल गांधी ने 125 रैलियां की थी - और कांग्रेस यूपी में 10 सीटों से 21 सांसदों तक पहुंच गयी थी. ये लंबा नहीं चला और 2014 आते आते कांग्रेस महज दो सीटों पर सिमट गयी. हद तो 2019 में हो गयी जब कांग्रेस के खाते में सिर्फ एक सीट आयी और राहुल गांधी अमेठी से खुद भी चुनाव हार गये.

सांसद बनने के तीन साल बाद 24 सितंबर 2007 को राहुल गांधी को कांग्रेस का महासचिव बनाया गया - और उसके साल भर बाद ही कांग्रेस के कुछ नेताओं ने उन्हें प्रधानमंत्री पद के काबिल बताना शुरू कर दिया. कांग्रेस महासचिव के तौर पर राहुल गांधी को यूथ कांग्रेस और NSUI की जिम्मेदारी भी मिली थी - जिसमें सुधार के लिए काफी काम किया.

जनवरी 2013 में राहुल गांधी को कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया. उसके बाद से राहुल गांधी को नाम मात्र का ही उपाध्यक्ष माना जाता रहा और सभी फैसलों में उनकी प्रभावी भूमिका मानी जाती रही. देखते देखते कांग्रेस में दो-दो पॉवर सेंटर बन गये - जब भी नेताओं को किसी मसले पर हरी झंडी की जरूरत होती उन्हें सोनिया गांधी के साथ साथ राहुल गांधी का भी मुंह देखते रहना पड़ता. ये सिलसिला दिसंबर 2017 तक चलता रहा जब तक कि राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी नहीं हो गयी.

राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी उस वक्त संभाली जब गुजरात विधानसभा के चुनाव खत्म हुए और नतीजों का इंतजार रहा. जब नतीजे आये तो मालूम हुआ राहुल गांधी ने निश्चित रूप से विधानसभा चुनाव में तब तक का बेहतरीन प्रदर्शन किया था, लेकिन सिर्फ गुजरात में. ऐन उसी वक्त हिमाचल प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव हुए लेकिन कांग्रेस सत्ता से बेदखल हो गयी.

कांग्रेस की ओर से भले ही कह दिया जाये कि राहुल गांधी के विकल्प को लेकर सवाल का कोई मतलब नहीं रह गया, लेकिन क्या सवाल का जवाब मिल गया? अगर इस सवाल का कोई मतलब ही नहीं रहा तो इसे उठाया ही क्यों गया? इतने हो-हल्ला और शोर-शराबे की जरूरत ही क्या थी - अरे, अशोक गहलोत और कमलनाथ को जलील करना था तो वो तो राहुल गांधी बगैर इस्तीफे की पेशकश के भी कर सकते थे.

नया क्या करेंगे राहुल गांधी?

2017 की शुरुआत तो नहीं लेकिन अंत राहुल गांधी के लिए अच्छा रहा, लेकिन 2018 के अंत जैसा भी अच्छा नहीं था. 2017 के आखिर में गुजरात और हिमाचल विधानसभा के लिए चुनाव हुए थे - और दर्ज यही हुआ कि राहुल गांधी ने बीजेपी को नाकों चने चबाने पर मजबूर कर दिया था. बीजेपी की चुनावी वैतरणी पार भी तभी हो पायी जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे कैबिनेट के साथ अहमदबाद पहुंचे और और गुजरात के गली मोहल्लों तक सीनियर नेताओं की परेड करायी.

मुश्किल ये है कि राहुल गांधी की उपलब्धियां टिकाऊ नहीं होतीं और शिकस्त से उबरना भी दूभर हो जाता है.

1. विदेश दौरे से लौटे राहुल गांधी की छवि गुजरात चुनाव में खूब चमकी. राहुल गांधी ने गुजरात चुनाव में खूब प्रयोग भी किये. गुजरात में उभरे तीन युवा नेताओं का राहुल गांधी भरपूर फायदा उठाया और बीजेपी को 99 के स्कोर पर ही समेट दिया. मगर, अफसोस ये सब ज्यादा नहीं चला. राहुल गांधी के तीनों नये और युवा साथी हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी कुछ ही दिन में अपनी चमक खो बैठे और फिर एक एक कर बिखर गये.

2. 2018 के आखिर में राहुल गांधी ने तीन राज्यों - मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बनवा दी. कहां कांग्रेस से तीनों राज्यों में मजबूती से पैर जमाने की उम्मीद कीज जा रही थी और कहां पांच महीने के भीतर ही कांग्रेस धड़ाम से गिर पड़ी - बीजेपी ने तीनों राज्यों में लोक सभा की 65 में से 61 सीटें हथिया ली.

3. कर्नाटक चुनाव के दौरान ही राहुल गांधी ने कांग्रेस के सत्ता में आने पर प्रधानमंत्री बनने की बात कही. केंद्र में सत्ता में वापसी तो दूर पांच साल बाद भी कांग्रेस को लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं दिला पाये.

तात्कालिक तौर पर ले देकर राहुल गांधी के खाते में उपलब्धि के नाम पर वायनाड लोक सभा सीट पर उनकी जीत ही दिखाई दे रही है, हालांकि, उस पर भी अमेठी की हार का साया मंडरा ही रहा है. उसमें भी राहुल गांधी वायनाड से कनेक्ट होने के लिए खुद को जन्म से जुड़ा होना जताने लगे हैं - लेकिन दूसरी तरह अमेठी की हार का सदमा ऐसा है कि सिर्फ राहुल गांधी का पूरा गांधी परिवार ही दूरी बनाने लगा है. सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा रायबरेली तक गयीं लेकिन अमेठी की ओर झांका तक नहीं.

कांग्रेस की कमान और अध्यक्ष पद को लेकर सवालों को कांग्रेस की ओर से भले ही खारिज करने की कोशिश हो, लेकिन सवाल तो वहीं का वहीं है. बेशक राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष थे, हैं और रहेंगे - लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि नया क्या करेंगे?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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