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Updated: 19 जनवरी, 2023 08:45 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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वरुण गांधी (Varun Gandhi) को मना करने के लिए राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को बहाने बनाने की कतई जरूरत नहीं है. वो कुछ नहीं भी बोलते तो काम चल जाता. साफ साफ भी बोल देते तो भी किसी को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था - लेकिन उसके लिए अपने बयान में राहुल गांधी को किसी विचारधारा को टैग करने की कोई जरूरत नहीं थी.

किसी एक राजनीतिक दल से दूसरी पार्टी में कोई नेता जाता है तो अपनी विचारधारा का चोला पुराने दफ्तर में ही खूंटी पर ही टांग देता है. बीजेपी ने कभी ज्योतिरादित्य सिंधिया से नहीं पूछा होगा कि उनकी विचारधारा क्या है? न ही बीजेपी में लेने से नेतृत्व ने कोई किंतु-परंतु किया होगा.

और वो तो अब पुरानी बात हो गयी. अभी अभी मनप्रीत बादल क्या बीजेपी में कांग्रेस की विचारधारा का प्रचार करने गये हैं? जैसे सारे नेता कांग्रेस छोड़ते वक्त गांधी परिवार को सुना जाते हैं, मनप्रीत बादल ने भी वही किया है.

जो मनप्रीत बादल ने किया, ठीक वैसा ही गुलाम नबी आजाद ने किया था. सोनिया गांधी को लिखी चिट्ठी में सबसे ज्यादा जिक्र तो राहुल गांधी का ही रहा. बीजेपी की विचारधारा अपना चुके असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा आज भी, जब भी मौका मिलता है राहुल गांधी की महिमा का बखान करते नहीं थकते.

राहुल गांधी चाहें तो मनप्रीत बादल को भी डरपोक नेता बता सकते हैं? ज्योतिरादित्य सिंधिया सहित कांग्रेस छोड़ने वाले नेताओं के बारे में ऐसी राय जाहिर करते रहते हैं.

लेकिन वरुण गांधी तो ऐसे नहीं लगते. वो तो जल में रह कर मगर से बैर ठाने हुए हैं. ये राहुल गांधी तो हैं, जो पहले ही कह चुके हैं कि 'निडर नेता अगर संघ और बीजेपी में हैं तो उनको कांग्रेस में लाओ!'

अगर वरुण गांधी को अपनाने के लिए राहुल गांधी को किसी राजनीतिक मुहूर्त का इंतजार है तो बात अलग है. अगर राहुल गांधी को खास वरुण गांधी से ही कोई दिक्कत है तो भी बात अलग है. अगर राहुल गांधी को वरुण गांधी को कांग्रेस में लाने के बाद किसी मुश्किल की आशंका है तो बात अलग है - लेकिन विचारधारा के नाम पर वरुण गांधी को किसी खास खांचे में फिट करने की जरूरत क्यों पड़ रही है?

असल में ये वरुण गांधी के बयान ही हैं, जो राहुल गांधी के सामने ऐसे सवाल खड़े कर रहे हैं. वरुण गांधी 2022 के विधानसभा चुनावों के पहले से ही बीजेपी नेतृत्व के खिलाफ राजनीतिक स्टैंड लिये हुए नजर आते हैं - ऐसा पहला बड़ा बयान वरुण गांधी का किसान आंदोलन के दौरान दिखा था, जिसमें वो किसाओं के लिए 'अपने ही खून हैं' कहा था - और उनके साथ नाइंसाफी से बाज आने की सलाह दी थी.

2019 के आम चुनाव से पहले जब प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस महासचिव बनाया गया, तो वरुण गांधी के कांग्रेस ज्वाइन करने की चर्चा होने लगी. असल में भाई बहन के अच्छे रिश्तों को आधार बना कर किस्से सुनाये जाने लगे थे - बीजेपी में हाशिये पर भेज दिये जाने के कारण भी वरुण गांधी को लेकर कयासों को तब ज्यादा हवा मिल रही थी. बीच बीच में ये मामला ठंडा भी पड़ जाता है, लेकिन जैसे ही वरुण गांधी कोई ट्वीट करते हैं, चर्चा फिर से जोर पकड़ लेती है.

वरुण गांधी के कांग्रेस की तरफ झुकाव समझे जाने की एक बड़ी वजह वे मुद्दे हैं जो बीजेपी में रहते हुए वो उठा रहे हैं. वरुण गांधी वे सवाल उठा रहे हैं जो बीजेपी के विरोधी नेतृत्व से पूछते रहे हैं. ऐसे सवाल जिनके जरिये सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी घेरने की कोशिश होती है - वरुण गांधी भी तो किसानों के मुद्दे, बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे ही उठाते रहे हैं.

लेकिन ऐसा भी तो नहीं कि ये सारे मुद्दे सिर्फ राहुल गांधी और कांग्रेस नेताओं की तरफ से ही उठाये जाते हैं, ये सवाल तो पूरे विपक्ष के हैं. जितने भी बीजेपी के राजनीतिक विरोधी हैं, सभी के सवाल एक जैसे ही हैं. अगर राजनीतिक विरोध एक जैसा होगा तो सवाल भी तो कॉमन ही होंगे.

सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि राहुल गांधी जिस आइडियोलॉजी की बात कर रहे हैं, क्या वरुण गांधी वास्तव में अब भी उसी विचारधारा को वैसे ही अपनाये हुए हैं? जैसे उनके तेवर 2009 के संसदीय चुनाव के दौरान देखे, सुने और महसूस किये गये थे?

वरुण गांधी की अभी कौन सी आइडियोलॉजी है?

भारत जोड़ो यात्रा के यूपी पहुंचने से पहले राहुल गांधी से कई सवाल पूछे गये थे. मीडिया ने राहुल गांधी से यात्रा में शामिल होने वाली संभावित नेताओं में वरुण गांधी का नाम लेकर भी सवाल पूछ लिया था. तब राहुल गांधी ने बहुत ज्यादा बात नहीं की. बस ये कह कर टाल दिया कि उनको बहुत प्रॉब्लम हो सकती है.

rahul gandhi, varun gandhiवरुण गांधी से राहुल गांधी का परहेज, केसीआर और केजरीवाल से दूरी बनाने जैसा ही नुकसानदेह है.

जब राहुल गांधी से वरुण गांधी को लेकर फिर से सवाल पूछा गया तो वो अपना रुख पूरी तरह साफ कर दिये. राहुल गांधी की बातों से तो लगता है कि वरुण गांधी के लिए कांग्रेस में वो नो एंट्री का बोर्ड लगा चुके हैं. राहुल गांधी ने ये बातें सीधे सीधे नहीं बोलीं - बल्कि, वरुण गांधी के बहाने संघ और बीजेपी को भी लपेट लिया.

राहुल गांधी ने ये समझाने की कोशिश की कि निजी रिश्ते अपनी जगह हो सकते हैं, लेकिन विचारधारा का मामला अलग है. और उनकी बातों से ये भी लगता है कि निजी रिश्तों के मामले में भी वो विचारधारा को ज्यादा महत्व देते हैं - और फैसला उसी के आधार पर करते हैं.

वरुण गांधी को लेकर राहुल गांधी का कहना रहा, 'मेरी विचारधारा उनकी विचारधारा से नहीं मिलती... जो वरुण हैं, उन्होंने एक समय... शायद आज भी... उस विचारधारा को अपनाया और उस विचारधारा को अपना बनाया... तो मैं उस विचारधारा को ऐक्सेप्ट नहीं कर सकता... मैं जरूर प्यार से मिल सकता हूं... गले लग सकता हूं... उस विचारधारा को मैं ऐक्सेप्ट नहीं कर सकता.'

राहुल गांधी 2004 में राजनीति में आये थे और अमेठी से चुनाव लड़ कर पहली बार संसद पहुंचे थे. पांच साल बाद जब वरुण गांधी राजनीति में औपचारिक दाखिला ले रहे थे, मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पांच साल सरकार चलाने के बाद कांग्रेस केंद्र की सत्ता में वापसी की तैयारी कर रही थी.

तब कांग्रेस को आम चुनाव में बीजेपी की तरफ से लालकृष्ण आडवाणी चैलेंज कर रहे थे. वरुण गांधी उसी दौर में आये और पूरी तरह उसी रंग में रंगे भी देखे गये. उनकी मां मेनका गांधी पहले से ही बीजेपी में रहीं और बेटे के लिए अपनी सीट भी छोड़ दी थी, ताकि किसी भी तरह की राजनीतिक अनहोनी से बचा जा सके.

वरुण गांधी, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, अपने भाषण में मुस्लिम नामों की खिल्ली भी उड़ा रहे थे. वरुण गांधी ने तब महात्मा गांधी के अहिंसावादी रुख का भी मजाक उड़ाये थे, 'मैं इसे बेवकूफीभरा मानता हूं कि कोई अगर आपके गाल पर एक चांटा मारे तो आप दूसरा गाल आगे कर दें.'

वरुण गांधी ऐसे हाथ काट डालने की सलाह दे रहे थे. तब वरुण गांधी का भाषण भी करीब करीब उसी लाइन पर चल रहा था, जैसे हाल फिलहाल अनुराग ठाकुर या प्रवेश वर्मा जैसे बीजेपी नेताओं के मुंह से जोशीली बातें सुनने को मिला करती हैं.

वरुण गांधी का कहना था, 'ये हाथ नहीं है, ये कमल की ताकत है जो किसी का सिर कलम कर सकता है.' राहुल गांधी ने जो कहा था वो वक्त की मांग थी. और नतीजा भी वैसा ही रहा. कांग्रेस केंद्र की सत्ता में जरूर लौटी लेकिन पीलीभीत में वरुण गांधी ने ही चुनाव जीता था.

वो तब की बात थी. बाद में बहुत कुछ बदल गया. वरुण गांधी खुद कह चुके हैं कि बीजेपी ने कम ही उम्र में उनको बहुत कुछ दिया. संसद तो भेजा ही, पश्चिम बंगाल का चुनाव प्रभारी भी बना रखा था. वही पश्चिम बंगाल जिसे जीतने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने पूरी ताकत झोंक दी थी. जाहिर है, वरुण गांधी को पश्चिम बंगाल का प्रभारी बनाते वक्त तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष को उनका पीलीभीत वाला तेवर ही प्रभावी बना होगा.

लेकिन क्या वरुण गांधी अब भी उसी विचारधारा पर चल रहे हैं? अदालत के जरिये आरोपों से बरी होने के बाद वरुण गांधी ने भी वैसी चीजों से तौबा कर लिया. बाद में वरुण गांधी के मुंह से वैसी बातें कभी नहीं सुनी गयीं - और 2014 के बाद से तो बीजेपी के मौजूदा नेतृत्व ने वरुण गांधी के मुंह पर ताला ही लगा दिया.

वो ताला एक बार खुला भी तो 2019 के आम चुनाव से थोड़ा पहले. जब बीजेपी उम्मीदवारों की सूची फाइनल हो रही थी. टिकट मिलते ही वरुण गांधी ने दिल पर पत्थर रख कर वो बात कही जिसके लिए पहले भी बीजेपी की तरफ से दबाव रहा होगा, 'मेरे परिवार से भी कई लोग प्रधानमंत्री हुए हैं... लेकिन मोदी जैसा तो कोई नहीं हुआ...' चुनाव हुआ, वरुण जीते भी और फिर से खामोश हो गये. ये खामोशी इसलिए भी भारी पड़ी क्योंकि मां-बेटे में से किसी को भी मोदी कैबिनेट में नहीं लिया गया.

जब धीरे धीरे बेचैनी बढ़ने लगी तो मन की बातें जबान पर आने लगीं. ट्विटर पर वैसी ही चीजें पोस्ट होने लगीं. तस्वीरों के साथ वे बातें जो मोदी-शाह को भी चुभती होंगी. सोशल मीडिया के साथ साथ वरुण गांधी मुख्यधारा की मीडिया में भी वैसी ही बातें अपने लेखों में करने लगे. हाल ही की तो बात है, इंडियन एक्सप्रेस में वरुण गांधी का न्यायपालिका को लेकर एक लेख उसी दिन आया था जिस दिन उसी मुद्दे पर सोनिया गांधी ने मोदी सरकार पर धावा बोला था.

भला राहुल गांधी को वरुण गांधी की बातों से उनको पसंद नहीं आने वाली विचारधार की बू कहां से आती है? असल बात तो ये है कि जो वरुण गांधी की ताकत है, वही कमजोरी भी है. वरुण गांधी होना उनकी विचारधारा से ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है - और राहुल गांधी को ये बात कौन समझाये?

वरुण बड़े काम के हो सकते हैं

वरुण गांधी राजनीति के जिस मोड़ पर खड़े हैं, वो बेहद नाजुक मोड़ है. वहां चौतरफा चुनौतियां हैं. 2024 में तो बीजेपी से टिकट के लिए ज्यादा ही संघर्ष करना पड़ेगा. पिछली बार तो मेनका गांधी ने सीटें स्वैप करने का प्रस्ताव मंजूर करा लिया था, लेकिन तब से अब तक बात बहुत आगे बढ़ चुकी है.

वरुण गांधी को लेकर राहुल गांधी के बयान से कई सवाल खड़े हो गये हैं. क्या वरुण गांधी के मामले में सोनिया गांधी और मेनका गांधी की बरसों पुरानी निजी दुश्मनी आड़े आ रही है? क्या राहुल गांधी, वरुण गांधी के इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्री होने पर टिप्पणी के लिए मन से माफ नहीं कर पा रहे हैं?

राहुल गांधी ने जो जवाब दिया है, वो आसानी से गले नहीं उतर रहा है. राहुल गांधी से वरुण गांधी को कांग्रेस में लेने को लेकर सवाल पूछा जाता है, और वो कहने लगते हैं कि गला कटा लेंगे लेकिन आरएसएस के पास नहीं जाएंगे.

अब ये बात कहां से आ जाती है, ये तो किसी ने पूछा भी नहीं कि वो खुद कांग्रेस छोड़ने का प्लान कर रहे हैं क्या? राहुल गांधी चाहते तो ये सवाल अलग तरीके से भी टाल सकते थे, लेकिन उनको तो वरुण गांधी के बहाने संघ पर हमला बोलना था. और कोई बात तो समझ में नहीं आती.

देखा जाये तो बीजेपी को टक्कर देने में राहुल गांधी जहां अरविंद केजरीवाल से पिछड़ रहे हैं, वरुण गांधी वैसी स्थिति में कांग्रेस के लिए बड़े काम के हो सकते हैं. राहुल गांधी के पास ये बेहतरीन मौका है. जैसे बीजेपी ने वरुण गांधी का इस्तेमाल किया, कांग्रेस भी उससे अच्छा इस्तेमाल कर सकती है. बीजेपी ने वरुण गांधी को तो गांधी परिवार के खिलाफ ही हथियार बनाया है. 'मेरे परिवार में भी प्रधानमंत्री हुए...' ऐसा बयान वरुण गांधी के अलावा भला कौन बयान दे सकता है?

राहुल गांधी ये क्यों भूल जा रहे हैं कि विजय दिवस के मौके पर वरुण गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नहीं, बल्कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तस्वीर शेयर करते हुए तारीफ भी की थी - क्या राहुल गांधी को अब भी वरुण गांधी की विचारधारा से परहेज है? 

अच्छा तो ये होता कि वरुण गांधी को राहुल गांधी बीजेपी के खिलाफ बड़े हथियार के तौर पर इस्तेमाल करते. प्रियंका गांधी कांग्रेस के महिला कार्ड के लिए बिलकुल सही हैं, वरुण गांधी को सपोर्ट मिले तो बीजेपी को आगे बढ़ कर चैलेंज कर सकते हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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