New

होम -> सियासत

 |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 16 फरवरी, 2021 06:37 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
  • Total Shares

कांग्रेस पार्टी इस समय ऐसी स्थिति से गुजर रही है, जिसमें उसके एक तरफ कुआं है तो दूसरी ओर खाई. कांग्रेस के आंतरिक संकटों ने ही इस कुएं और खाई का निर्माण किया है. बीते कुछ दशकों में पार्टी में नेतृत्व के नाम पर केवल गांधी परिवार से ही कोई नाम सामने आता है. सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बने. राहुल के कुर्सी छोड़ने पर फिर से सोनिया गांधी उस पर आसीन हो गईं. पार्टी में बीते एक दशक से नेतृत्व को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है. जी-23 के नेताओं ने नेतृत्व में ऊपर से लेकर नीचे तक बदलावों की मांग पहले ही छेड़ रखी है. आगामी कुछ महीनों में 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और इसके बाद कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष चुना जा सकता है. खैर, सबको पहले से ही पता है कि नया पार्टी अध्यक्ष कौन होगा. यही कांग्रेस को लिए सबसे बड़ी खतरे की घंटी है. सबसे पुरानी पार्टी का तमगा लिए घूम रही कांग्रेस एक ही परिवार पर और अब तो एक ही चेहरे पर आश्रित नजर आती है. बीते दो दशकों में पार्टी अध्यक्ष के लिए सरनेम में गांधी जुड़ा होना अकाट्य तर्क के रूप में स्थापित हो चुका है. इस वजह से कांग्रेस केवल खुद को ही नहीं बल्कि पूरे विपक्ष को कमजोर कर रही है.

बजट सत्र में बसपा के सांसद मलूक नागर ने कांग्रेस के लिए थोड़ी कड़वी बात बोली थी. नागर ने कांग्रेस पर विपक्ष की भूमिका को सही तरीके से नहीं निभाने का आरोप लगाया था. उन्होंने कहा कि 'कांग्रेस खुद को भी कमजोर कर रही है, हमें (अन्य विपक्षी दल) भी मार रही है. हमारी बदनामी हो रही है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी बजट पर चर्चा के दौरान सदन में प्रोफेसर की तरह बोलकर चले गए, लेकिन वित्त मंत्री का जवाब सुनने के लिए यहां मौजूद नहीं रहे.' राहुल गांधी की ये 'अपरिपक्वता' बदस्तूर जारी है. हालांकि, इसमें उनका कोई दोष नहीं है. यह अपरिपक्वता उनके अंदर भरी गई है.

2004 में अमेठी से अपने पहले ही चुनाव में सांसद बन गए. 2009 और 2014 में भी अमेठी से जीत गए. इस वजह से राहुल गांधी कभी ग्रासरूट राजनीति को नहीं समझ पाए. 2019 में भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी से मिली हार ने उन्हें थोड़ा-बहुत परिपक्व जरूर किया. राजनीति में कहा जाता है कि आप अपने विरोधियों से भी सीखते हैं. लेकिन, राहुल गांधी के अंदर सीखने की ललक नजर नहीं आती है. बजट सत्र में स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को 'सज्जन' कह-कहकर 2014 के बाद वहां केंद्र सरकार द्वारा कराए गए दर्जनों विकास कार्यों को गिना डाला. ईरानी ने दावा किया कि राहुल गांधी के 15 वर्ष तक अमेठी का सांसद रहते हुए वहां विकास कार्य ना के बराबर हुए.

2019 में भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी से मिली हार ने उन्हें थोड़ा-बहुत परिपक्व जरूर किया.2019 में भाजपा प्रत्याशी स्मृति ईरानी से मिली हार ने उन्हें थोड़ा-बहुत परिपक्व जरूर किया.

2018 में अमेठी के दौरे पर गए राहुल गांधी की एक टीवी क्लिप मुझे आज भा अच्छे से याद है. उस दौरे पर एक स्कूली छात्रा ने देश के कानूनों के गांवों में सख्ती से लागू न होने का सवाल पूछा था. जवाब में राहुल ने कहा था कि पीएम मोदी से पूछिए. देश वो चला रहे हैं. अभी हमारी सरकार नहीं है, जब हमारी सरकार आएगी, हम तब जवाब देंगे. छात्रा ने सड़क-बिजली-पानी जैसी मूलभूत सुविधाओं को लेकर सवाल भी उठाया था. जिस पर उन्होंने कहा था कि सीएम योगी से पूछिए. अमेठी वही चला रहे हैं. मेरा काम लोकसभा में कानून बनाने का है. अमेठी में ये काम सीएम योगी को करने हैं.

अमेठी उस समय तक राहुल गांधी का ही संसदीय क्षेत्र था. अमेठी को लेकर राहुल गांधी की इस उदासीनता से उनकी राजनीतिक सोच का पता चल जाता है. दरअसल, वह राज करने के लिए ही राजनीति में आए हैं, यह बात उनके अंर्तमन में बसा दी गई. कांग्रेस की समस्या ये है कि राजनीतिक 'कुलीनता' का यह भ्रम राहुल से आज तक दूर नहीं हो पाया है. इस दौरान राहुल गांधी के आस-पास कांग्रेस नेता और कार्यकर्ता एक 'दरबारी' के रूप में ही रहे. इन नेताओं द्वारा की गई 'जी हजूरी' की वजह से राहुल गांधी को केवल नुकसान ही हुआ.

कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने पुत्र मोह में राहुल गांधी को देश की असल राजनीति को समझने ही नहीं दिया. दरअसल, यूपीए सरकार के 10 वर्षों के शासन के बाद ये तय माना जा रहा था कि 2014 में कांग्रेस फिर से सत्ता में लौटेगी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे. कांग्रेस उस चुनाव में बुरी तरह हार कर 44 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद सोनिया गांधी ने राहुल को पार्टी अध्यक्ष की कुर्सी पर स्थापित करवा दिया. 2019 में हुए लोकसभा चुनाव में फिर से कांग्रेस ने बुरा प्रदर्शन किया. इसके बाद राहुल गांधी ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. इस्तीफे के बाद कांग्रेस की ओर से किसी नये चेहरे को मौका देने की बजाय फिर से सोनिया गांधी को ही अध्यक्ष बना दिया गया.

राहुल गांधी ने गुस्से में आकर इस्तीफा दिया था और उन्हें मनाने के लिए कई वरिष्ठ नेताओं को भेजा गया था. इसी दौरान राहुल गांधी के करीबी नेता और कांग्रेस का एक बड़ा चेहरा ज्योतिरादित्य सिंधिया पार्टी छोड़ भाजपा में चले गए. जिसकी वजह से मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार भी गिर गई. इसमें कोई दो राय नहीं है कि सिंधिया की अपनी कुछ महत्वाकांक्षाएं रही होंगी. लेकिन, कांग्रेस और राहुल गांधी ने इससे भी कुछ सीख नहीं ली.

भाजपा जबतक विपक्ष में रही, एक सधे और संतुलित विपक्ष के रूप में अपने दायित्वों को पुरजोर तरीके से निभाती रही. लेकिन, राहुल गांधी ऐसा प्रदर्शन करने में लगातार असफल रहे हैं. सबसे बड़ा दल होने के बावजूद कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपनी राजनीतिक अपरिपक्वता से विपक्ष को कमजोर कर रहे हैं. विपक्ष में केवल कांग्रेस ही राष्ट्रीय पार्टी के तौर सबसे बड़ा दल है. जबकि, अन्य सभी पार्टियां क्षत्रपों में गिनी जाती हैं. इस स्थिति में राहुल गांधी विपक्ष को बहुत भारी पड़ रहे हैं. राहुल गांधी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ले जाने की दौड़ कांग्रेस को छोड़नी होगी. विपक्ष के रूप में एकजुट होकर गंभीरता से काम करना होगा. अगर स्थितियां ऐसी ही रहीं, तो शायद विपक्ष के पास कोई चेहरा ही नहीं बचेगा.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय