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Updated: 30 जून, 2021 07:58 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कांग्रेस पंजाब में हेडलाइन बदलने की कोशिश तो कर रही है, लेकिन लगता है जैसे थाल सजा कर बीजेपी और आम आदमी पार्टी के साथ साथ अकाली दल को भी न्योता दे रही हो - वो भी तब जब सभी शिकार के लिए घात लगाकर इंतजार कर रहे हों.

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी का पंजाब के बागी सिपाही नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Singh) से मिलना और उसका जोरशोर से प्रचार किया जाना आखिर हेडलाइन बदलना नहीं तो क्या है - सोनिया गांधी और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) अगर कैप्टन अमरिंदर सिंह के लिए दरवाजे पर नो एंट्री का बोर्ड लगा रखें हो तो नवजोत सिंह सिद्धू से मिलने पर जवाब देते बनता क्या?

हफ्ता भर पहले मालूम हुआ था कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी पंजाब को लेकर जुलाई के पहले हफ्ते के आखिर में कोई आखिरी फैसला ले सकती हैं - ये तो भारतीय न्यायपालिका की गति को भी पीछे छोड़ देने जैसी कोशिश लगती है. अगर ये देरी सब इंसाफ की मंशा से ही हो रही है तो आशंका नाइंसाफी की तो ज्यादा बढ़ती ही है, कांग्रेस के हाथ से पंजाब के फिसल जाने की भी संभावना बढ़ जाती है.

किसान आंदोलन के बीच पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंचायत चुनावों में जो कांग्रेस की सत्ता में वापसी का जो भविष्य देखा था या राहुल गांधी और सोनिया गांधी को दिखाने की कोशिश की थी - वो धीरे धीरे धुंधला नजर आने लगा है.

कांग्रेस के दो मौजूदा मुख्यमंत्री ऐसे हैं जिनके खिलाफ बीजेपी बोलने से परहेज बरतती है, या कम बोलती है - कैप्टन अमरिंदर सिंह और छत्तीसगढ़ के सीएम भूपेश बघेल.

देखा जाये तो ये दोनों ही मुख्यमंत्री बीजेपी के निशाने पर होने के साथ साथ कांग्रेस आलाकमान के सामने भी - सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट के फॉर्मूले पर भी अव्वल ही नजर आते हैं. खासकर, अगर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और राजस्थान के मौजूदा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से तुलना करके देखें तो - और दोनों में भी देखें तो कैप्टन अमरिंदर सिंह कहीं ज्यादा मजबूत नजर आते हैं.

सैम पित्रोदा थ्योरी के हिसाब से देखें तो मध्य प्रदेश में जो 'हुआ तो हुआ' - और राजस्थान में जो 'होगा तो होगा', लेकिन अगर पंजाब में कुछ ऐसा वैसा होता है तो वो वो पंजाब और राजस्थान से भी बुरा हो सकता है. कांग्रेस पंजाब के राजनीतिक एक्सप्रेसवे पर रफ्तार तो भर रही है, लेकिन गियर नहीं बदल रही है. सामने बोर्ड पर पढ़ भी रही है, जिस पर लिखा है - आगे खतरनाक मोड़ है और मोड़ के आसपास बीजेपी नेतृत्व ही नहीं, अरविंद केजरीवाल और बादल परिवार भी मौके के इंतजार में बैठा है.

कोई दो राय नहीं होनी चाहिये, अगर कांग्रेस ने अब भी 'सावधानी हटी, दुर्घटना घटी' जैसे अलर्ट को नजरअंदाज किया तो पंजाब में असम का इतिहास दोहराते देर नहीं लगेगी. अगर बीजेपी ने जरा भी अधिक दिलचस्पी लेने शुरू की तो नवजोत सिंह सिद्धू को ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) बनते भी देर नहीं लगेगी - क्योंकि बीजेपी हिमंत बिस्वा सरमा को ऑपरेशन लोटस का नया ब्रांड एंबेसडर पहले ही बना चुकी है.

सिद्धू और सिंधिया-सचिन में फर्क है

कहने की जरूरत नहीं, नवजोत सिंह सिद्धू और ज्योतिरादित्य सिंधिया या सचिन पायलट में बुनियादी फर्क है. एक फर्क तो नवजोत सिद्धू का पहले बीजेपी में होना और फिर कांग्रेस में आना है.

हां, सिद्धू और सिंधिया-सचिन में जो सबसे बड़ा फर्क है, वो है - सिद्धू की पाकिस्तान परस्त छवि, लेकिन ये सब तो बीजेपी से बाहर होने पर ही ज्यादा तूल पकड़ता है. बाकियों को छोड़ भी दें तो पहले मुकुल रॉय और अब शुभेंदु अधिकारी का उदाहरण सामने है. केरल वाले टॉम वडक्कन तो बीजेपी को पाप धुलने के मामले में गंगा जैसा बताने के महीने भर बाद ही वो भी डूबकी लगा लिये थे.

मीडिया में एक माफीनुमा बयान और दो शेर पढ़ते ही सिद्धू के भी सारे दाग धुल जाएंगे - और फिर से भगवा ओढ़ते ही उनका डीएनए भी राष्ट्रवादी हो सकता है कि नहीं. क्या नीतीश कुमार के डीएनए में अब किसी को 2015 की तरह कोई खोट नजर आ रही है?

navjot singh sidhu, rahul gandhi, capt. amrinder singhपंजाब के मामले में सोनिया गांधी के फैसले की घड़ी आने तक राहुल गांधी को सिद्धू और कैप्टन दोनों को संभालना ही होगा - और आगे तो चुनौतियां हजार लगती हैं!

2016 में असम को जानते समझते हुई भी बीजेपी के हाथों गवां देने के बावजूद, सोनिया गांधी ने 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब में कांग्रेस को टूटने से बचा लिया था. ये कांग्रेस के टूट जाने की ही आशंका रही जो नेतृत्व ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को चुनावों से पहले पार्टी की कमान सौंप दी थी और चुनाव नतीजे आने के बाद वो सरकार की कमान भी अपने हाथ में लेने में कामयाब रहे. ये तो सबकी बोलती बंद कर देने वाला ही एक्ट रहा.

हाल फिलहाल एक-दो मीडिया रिपोर्ट के जरिये राहुल गांधी की आशंका भी सूत्रों के हवाले से सामने आयी है - राहुल गांधी ने, एक रिपोर्ट के मुताबिक, पंजाब से मिलने आये असंतुष्‍ट कांग्रेस नेताओं से बातचीत में पूछा था कि कैप्‍टन अमरिंदर सिंह को अगर अगले विधानसभा चुनाव में चेहरा न बनाया जाये तो कितने विधायक बगावत करेंगे?

अब तक ये बात सामने नहीं आयी है कि राहुल गांधी के मन में नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर कभी ऐसी कोई आशंका रही है या अब तक भी है या नहीं?

जिस तरह से सिद्धू अपने राजनीतिक कॅरिअर को पटरी पर लाने के लिए परेशान हैं - होने को तो कुछ भी हो सकता है? कुछ दिन पहले ही तो खबर आयी थी कि सिद्धू, प्रशांत किशोर के जरिये आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल के संपर्क में हैं, लेकिन फिर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने प्रशांत किशोर की जानकारी के आधार पर ही ऐसी खबरों को खारिज भी कर दिया था.

सिद्धू के बीजेपी से ऐसे किसी संपर्क की अभी तक कोई जानकारी सामने तो नहीं आयी है, लेकिन जो हालात हैं, उसमें ऐसी चीजों से इनकार करना भी संभव नहीं लगता.

सिद्धू का स्पेशल केस तो है ही सिंधिया के मुकाबले सचिन पायलट के ज्यादा करीब भी लगता है. सचिन पायलट के कांग्रेस में रह कर ही संघर्ष करते रहने की एक बड़ी वजह उसके पक्ष में विधायकों का नंबर कम होना भी हो सकता है.

ये खबर जरूर आयी है कि कैप्टन को सपोर्ट करने वाले भी उनके खिलाफ हो गये हैं. मिलने वालों से राहुल गांधी ने ये भी पूछा था कि कैप्टन के खिलाफ वे क्यों हो गये जो कल तक उनके सपोर्ट में डटे हुए थे. फिर भी जरूरी नहीं कि कैप्टन के खिलाफ हो चुके विधायक सिद्धू के साथ जायें ही. अभी बीच में खबर आयी थी कि मुख्यमंत्री के कट्टर विरोधी प्रताप सिंह बाजवा ने भी कैप्टन अमरिंदर सिंह से हाथ मिला लिया है. ऐसे में कैप्टन के विरोधी विधायक बाजवा के साथ तो जा सकते हैं, लेकिन सिद्धू का सपोर्ट करें ऐसा नहीं लगता.

सचिन पायलट के ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह आगे बढ़ कर कदम बढ़ाने में आड़े आ रहा पहला फर्क तो विधायकों का नंबर ही है. वसुंधरा राजे का शिवराज सिंह चौहान की तरह बीच में छीन कर सत्ता हासिल करने में दिलचस्पी न लेना दूसरा फैक्टर है. हो सकता है सिद्धू के सामने भी सचिन जैसी ही मुश्किल आये. मुश्किल का हल भी सिर्फ यही है कि सिद्धू विधायकों को भरोसा दिलायें कि चुनाव बाद सरकार बीजेपी की ही बनेगी.

सवाल ये है कि क्या नवजोत सिंह सिद्धू बीजेपी में लौट सकते हैं? बड़ा सवाल ये है कि क्या बीजेपी सिद्धू को बीजेपी वापस लेगी? लेकिन क्यों नहीं? ममता बनर्जी मुकुल रॉय की घरवापसी के लिए खुशनुमा माहौल बना सकती हैं तो बीजेपी के लिए सिद्धू में क्या खराबी है?

सिद्धू की तरफ से अब तक एक ही शर्त सामने आयी है. चाहे जो हो जाये, सिद्धू पंजाब की राजनीति में ही बने रहना चाहते हैं. अगर वो सिंधिया की तरह केंद्र के लिए राजी हो जायें तो पहले की तरह बीजेपी के लिए भी कोई बड़ी दिक्कत नहीं होनी चाहिये - ज्यादा कुछ नहीं तो दिल्ली में बाबुल सुप्रियो जैसा ओहदा तो मिल ही सकता है! है कि नहीं?

ये भी है कि अगर सिद्धू फिर से बीजेपी को ये भरोसा दिला दें कि मौका मिले तो वो हिमंत बिस्वा सरमा जैसी कोशिशें कर सकते हैं, तो रास्ता काफी आसान हो सकता है. सिद्धू और बीजेपी दोनों के लिए. अभी तो अकाली दल और आम आदमी पार्टी का जो हाल है, बीजेपी आसानी से पंजाब में सत्ता हासिल कर सकती है. ये जरूर है कि बीजेपी ने पंजाब की राजनीति में दलित विमर्श पहले से घोल दिया है.

जैसे सिद्धू बीजेपी के लिए काम कर रहे हों

ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि सिद्धू ने पंजाब कांग्रेस में गुटबाजी की शुरुआत की हो. सिद्धू से पहले भी पंजाब कांग्रेस कैप्टन और बाजवा गुट में बंटी हुई थी. सिद्धू की दिल्ली में पूछ बढ़ जाने से कभी राहुल गांधी के चहेते रहे प्रताप सिंह बाजवा अभी पिछड़ गये हैं. सिद्धू की गुटबाजी के चलते पंजाब कांग्रेस में राजस्थान जैसा ही माहौल हो गया है.

क्या ऐसा भी हो सकता है कि सिद्धू भी पंजाब में बच बचा कर सचिन पायलट की ही तरह राजनीति कर रहे हों. बीजेपी को तो पंसद ही आएगा कि कोई कांग्रेस को जैसे भी हो डैमेज करे. भीतर से या बाहर से. सिद्धू फिलहाल कांग्रेस को भीतर से करीब करीब वैसे ही डैमेज कर रहे हैं, जैसे बाहर से सुब्रह्मण्यन स्वामी अरसे से करते आ रहे हैं.

सिद्धू की राजनीति और कांग्रेस के G23 की बगावत भी तो एक जैसी ही लगती है. जैसे G23 के गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल जैसे नेता कहते हैं कि उनकी मांगों पर अमल कर लिया जाये, भले ही उनको कुछ न दिया जाये. सिद्धू भी तो यही कह रहे हैं कि पंजाब को लेकर उनका जो एक्शन प्लान है उसे लागू कर दिया जाये तो उनको कुछ भी नहीं चाहिये. सिद्धू ने अपने एक्शन प्लान का एक प्रजेंटेशन सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी को पिछले साल दिखाया भी था.

सिद्धू चंडीगढ़ में या दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वैसी तारीफ तो नहीं करते जैसे G23 नेता जम्मू-कश्मीर की धरती से कर चुके हैं, लेकिन हरकतों में कोई खास अंतर तो नहीं लगता.

पंजाब में अकाली दल और मायावती की पार्टी बीएसपी के बीच चुनावी समझौता हो चुका है. आम आदमी पार्टी वाले अरविंद केजरीवाल भी मुफ्त बिजली-पानी के दिल्ली मॉडल के वादे का प्रचार शुरू कर चुके हैं, लेकिन बीजेपी खुल कर सामने नहीं आ रही है. दलित मुख्यमंत्री की पेशकश के बाद बीजेपी परदे के पीछे रह कर काम कर रही है. बीजेपी को तो बस कांग्रेस के खिलाफ एक मोहरे की तलाश है - अब कांग्रेस मुक्त भारत में बीजेपी के मददगार साबित होने की तरह अगर राहुल गांधी भी नवजोत सिंह सिद्धू को मोहरा बन जाने देने का मन बना चुके हों तो क्या कहा जा सकता है!

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मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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