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Updated: 07 अक्टूबर, 2020 05:39 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) के हाल के दो बयान ऐसे हैं जिन पर लोगों का ध्यान गया ही होगा - और ध्यान जाना भी चाहिये. अगर राहुल गांधी खुद को राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के मुकाबले में खड़ा पाते हैं या स्टैंड करने की कोशिश करते हैं तो उनको अपने अति आत्मविश्वास के साथ साथ उन चीजों पर भी ध्यान देना चाहिये - जो उनकी हरकतों, गतिविधियों और बातों के जरिये देश की जनता तक मीडिया या सोशल मीडिया के रास्ते देश की जनता तक पहुंचती हैं.

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के दो ताजा बयान आये हैं - एक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार पर और दूसरा भारत और चीन (China) के बीच जारी सीमा विवाद के प्रसंग में. दोनों ही बयानों में राहुल गांधी ने बड़े बड़े दावे किये हैं, लेकिन दोनों ही में शर्तें भी लागू हैं. शर्तें भी वो खुद नहीं बल्कि चाहते हैं कि लोग पूरी करें और अगर ऐसा लोगों ने कर दिया तो न तो उनको मोदी सरकार गिराते देर लगेगी और न ही चीन को धक्का देकर सरहद पर पीछे धकेलते.

राहुल गांधी के इन दावों ने उनके भूकंप वाले बयान की याद दिला दी है. दिसंबर, 2016 में राहुल गांधी ने बीजेपी नेताओं और मोदी सरकार पर इल्जाम लगाया था कि उनको बोलने से रोका जा रहा है क्योंकि अगर वो बोले तो भूकंप आ जाएगा - सवाल है कि आखिर राहुल गांधी को ऐसा क्यों लगता है कि वो कहीं भी और कभी भी भूकंप ला सकते हैं?

कांग्रेस को मिले छोटे से सपोर्ट को राहुल गांधी संभाल कर रखें तो अच्छा रहेगा

कांग्रेस के हिसाब से देखें तो हाथरस पॉलिटिक्स के नतीजे अच्छे आये हैं. ये ठीक है कि राहुल गांधी अपनी बहन और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ पहले अटेम्प्ट में हाथरस नहीं जा सके, लेकिन दूसरी बार में तो कामयाबी मिल ही गयी. हाथरस पहुंच कर पीड़ित परिवार से मिले और मुलाकात की तस्वीरें काफी संख्या में देखी भी गयीं. पहले से ही हाथरस मामले में घिरे यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दोनों भाई बहन ने मिल कर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की और काफी हद तक कामयाब भी रहे.

प्रियंका गांधी के साथ हाथरस यात्रा के बाद राहुल गांधी न्याय यात्रा पर पंजाब पहुंचे और नये कृषि कानूनों के विरोध में ट्रैक्टर रैली निकाली. ट्रैक्टर की सीटों को लेकर पूछे जा रहे विरोधियों के सवालों की परवाह छोड़ कर वो हरियाणा की तरफ बढ़ ही रहे थे कि रोक दिया गया. फिर प्रियंका गांधी वाली स्टाइल में तब तक धरने पर बैठे रहने की घोषणा कर दी जब तक उनको एंट्री नहीं मिल जाती. प्रियंका गांधी ने सोनभद्र में ऐसा ही किया था और जब तक नरसंहार के पीड़ित परिवारों से उनकी मुलाकात नहीं करायी गयी, वो रात भर डटी रहीं.

जब कदम कदम पर संघर्ष करने पड़ रहे हों, एक छोटी सी कामयाबी भी जोश से भर देती है, राहुल गांधी के साथ तो ये अक्सर देखने को मिला है. तभी तो वो चीन को 25 मिनट में उसकी औकात बताने का दावा करने लगे हैं. वैसे भी '15 मिनट' राहुल गांधी की किसी भी चैलेंज के लिए पसंदीदा अवधि रही है. अक्सर उनके मुंह से 15 मिनट वाले चैलेंज सुनने को मिलते रहे हैं. 15 जून की रात को गलवान घाटी में चीन के सैनिकों और भारतीय फौज के बीच हुए संघर्ष में एक कर्नल सहित बीस सैनिकों को शहादत देनी पड़ी थी. पहले से चीन सीमा पर बने हुए तनाव को इस घटना ने और बढ़ा दिया और तभी से राहुल गांधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लगातार हमलावर देखे गये हैं. सिर्फ राहुल गांधी ही नहीं, सोनिया गांदी भी मोदी सरकार से सवाल करती रही हैं और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी पीएम नरेंद्र मोदी को सलाह दे चुके हैं.

rahul gandhi on tractorनेतृत्व क्षमता संसाधनों का मोहताज नहीं होती!

राहुल गांधी का कहना है - मुझे लगता है कि जब तक यूपीए की सरकार नहीं बनेगी, चीन हमारे क्षेत्र पर कब्जा करता रहेगा - लेकिन जैसे ही हमारी सरकार बनेगी हम उन्हें बाहर फेंक देंगे. राहुल ने का कहना है, 'चीन हमारी सीमा में चार महीने पहले आया है अब उन्हें बाहर फेंकने में कितना और समय लगेगा. मुझे लगता है कि जब तक यूपीए की सरकार नहीं बनेगी, चीन हमारे क्षेत्र पर कब्जा करता रहेगा, लेकिन जैसे ही हमारी सरकार बनेगी हम उन्हें बाहर फेंक देंगे - हमारी सेना और एयरफोर्स उन्हें 100 किलोमीटर अंदर धकेल देगी.

राहुल गांधी का दावा है - अगर अभी यूपीए का शासन होता तो चीन की देश की सीमा में एक कदम भी बढ़ाने की हिम्मत नहीं पड़ती. कहते हैं, 'अगर यूपीए सत्ता में होती तो हम लोग चीन को बाहर निकालकर फेंक चुके होते और इसमें 15 मिनट का समय भी नहीं लगता.'

एक बार राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज किया था कि अगर उनको बोलने का मौका मिले तो वो उनके सामने खड़े नहीं हो पाएंगे. नजर नहीं मिला पाएंगे... तब कांग्रेस अध्यक्ष रहे राहुल गांधी की इस चुनौती पर प्रधानमंत्री का कहना रहा, 'कांग्रेस अध्यक्ष ने मुझे चुनौती दी है कि अगर वो 15 मिनट संसद में बोलेंगे तो मैं वहां बैठ नहीं पाऊंगा, लेकिन वो अगर 15 मिनट बोलेंगे ये भी बड़ी बात है और मैं बैठ नहीं पाऊंगा तो मुझे याद आता है कि क्या सीन है.' प्रधानमंत्री ने कहा था - हम कांग्रेस के अध्यक्ष के सामने नहीं बैठ सकते हैं, आप नामदार हैं हम कामदार हैं. हम तो अच्छे कपड़े भी नहीं पहन सकते हैं, आपके सामने कैसे बैठेंगे... राहुल बिना कागज के 15 मिनट केवल बोलकर दिखाएं... राहुल गांधी 15 मिनट में केवल 5 बार विश्वेश्वरैया का नाम लेकर दिखायें...

राहुल गांधी को ये तो समझना ही चाहिये, वो पंजाब और हरियाणा में चुनाव प्रचार करने नहीं, बल्कि कांग्रेस के लिए किसानों का सपोर्ट हासिल करने पहुंचे हैं. चुनाव की बात और होती है. चुनावों में तो जुमले भी खूब चलते हैं, लेकिन हकीकत में भी होते हैं क्या - 7 जून की बिहार डिजिटल रैली में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी बड़े दावे किये थे. वैसे काले धन के मामले में तो वो पहले ही बता चुके हैं कि चुनावों में जुमले चलते हैं.

बिहार जनसंवाद कार्यक्रम के तहत डिजिटल रैली को संबोधित करते हुए अमित शाह बोले, "एक जमाना था, कोई भी हमारी सरहदों से घुस आता था... जवानों के सिर काट कर ले जाते थे और दिल्ली में कोई उफ तक नहीं करता था... पुलवामा हुआ तो नरेंद्र मोदी सरकार थी... सर्जिकल स्ट्राइक करने का काम मोदी सरकार ने किया... दुनिया ने माना कि अमेरिका और इजराइल के बाद कोई देश अपनी सीमाओं की रक्षा कर सकता है तो वह भारत है..."

बमुश्किल हफ्ता भर बीता होगा और गलवान घाटी में हुए संघर्ष में सेना के 20 जवानों को शहादत देनी पड़ी थी.

ये तब का हाल है जब देश में बहुमत के लिहाज से बहुत ही मजबूत सरकार है. कहने को तो गठबंधन की सरकार है, लेकिन जो पार्टी अगुवाई कर रही है, उसे अकेले मैंडेट हासिल है. अगर ऐसी सरकार को भी दो बार सोचना पड़ रहा है तो राहुल गांधी जैसे नेता को वस्तुस्थिति को गंभीरतापूर्वक समझना चाहिये.

घरेलू राजनीति के साथ साथ राष्ट्रीय स्तर के नेता को अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति का भी ख्याल रखना चाहिये. राहुल गांधी को कुछ भी बोलते वक्त ये ध्यान तो रहना ही चाहिये कि वो नवजोत सिंह सिद्धू या दिग्विजय सिंह नहीं हैं कि पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान को 'अपना खास यार' बता दें, जम्मू कश्मीर को भारत प्रशासित कश्मीर बोल दें - और दुर्दांत आतंकवादी को 'ओसामा जी' कह कर बुलाने लगें.

राहुल गांधी को अब हल्के फुल्के बयानों और भरी संसद में आंख मारने जैसी हरकतों से बचने की कोशिश करनी चाहिये. राहुल गांधी को क्यों नहीं लगता कि हाथरस के सफल मिशन और कृषि कानून पर कांग्रेस को मिले किसानों के सपोर्ट को ऊलूल जुलूल बयान देकर वो वैसे ही गंवा देंगे जैसे संसद में प्रधानमंत्री मोदी से लगे मिलने के बाद आंख मार कर हंसी उड़ाने का मौका दे डाला था.

सबसे पहले तो राहुल गांधी को ये कोशिश करनी चाहिये कि कैसे वो बीजेपी के चक्रव्यूह से निकलें. कैसे खुद को लेकर लोगों के मन में एक गंभीर नेता की छवि बनने दें. ध्यान रहे सभी मोदी विरोधी कांग्रेस समर्थक नहीं हैं - और अगर राहुल गांधी के कुछ करने से कांग्रेस समर्थकों से इतर मोदी विरोधियों का साथ मिलता है तो उसकी अहमियत समझनी चाहिये.

हाथरस में पीड़ित परिवार से राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की मुलाकात को जो सपोर्ट मिला है. जिस तरह प्रियंका गांधी के साथ व्यवहार के लिए नोएडा पुलिस ने खेद प्रकट करते हुए जांच के आदेश दिये हैं - ये सब कांग्रेस के लिए बड़े एसेट्स हैं. राहुल गांधी को इन्हें संभाल कर रखना चाहिये. ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये या ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिये कि सब एक झटके में मिट्टी में मिल जाये.

नेता के मुंह से ऐसी बातें अच्छी नहीं लगतीं

कृषि कानूनों के विरोध में ट्रैक्टर रैली के बीच, पटियाला में एक प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी के सामने विपक्ष के कमजोर होने की वजह पूछ ली गयी. आखिर क्या वो वजह है कि मोदी सरकार जो चाहती है वो कर लेती है और विपक्ष लगातार कमजोर और बिखरा हुआ नजर आता है. विपक्ष विरोध तो धारा 370 का भी करता है और नागरिकता संशोधन कानून का भी - और वैसे ही कृषि बिलों का भी, लेकिन उसके विरोध का कोई असर क्यों नहीं नजर आता. राहुल गांधी ने सवाल के जवाब में जो कुछ कहा उससे लगा कि वो कितना असहाय महसूस कर रहे हैं - जनता उसे अपना नेता नहीं मानती जो हालात और मजबूरियों की दुहाई देता नजर आये. राहुल गांधी ने जो कुछ कहा वो उनकी ही नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़े करता है.

राहुल गांधी की दलील तो दमदार रही, लेकिन वैसी बातें किसी दर्शनशास्त्री या प्रोफेसर के मुंह से ही अच्छी लगती हैं - किसी नेता के मुंह से तो कतई नहीं. राहुल गांधी ने अपना स्टैंड साफ करने के लिए मुख्य तौर पर तीन बातें कहीं -

1. ''किसी भी देश में विपक्ष एक फ्रेमवर्क के तहत काम करता है और ये फ्रेमवर्क होते हैं - प्रेस, न्यायिक प्रणाली, और संस्थाएं, ताकि वो लोगों की आवाज की हिफाजत कर सके... आज इस पूरे फ्रेमवर्क पर कब्जा कर लिया गया है.''

2. 'सभी को पता है - संस्थाओं को ही काबू में कर लिया गया है और कहा जा रहा है कि विपक्ष कमजोर है. ये एक सही बात नहीं है. आप मुझे स्वतंत्र प्रेस दें, मुझे ऐसी संस्थाएं दें जो स्वतंत्र हों और ये सरकार टिक नहीं पाएगी - लेकिन मेरे पास ये नहीं हैं.''

3. ''हम सबूत लाएंगे और संस्थाएं उसे तरजीह नहीं देंगी. रफाल पर क्या हुआ... एक लेवल पर मीडिया भी अपना काम ईमानदारी के साथ नहीं कर रहा है - ये बोल देना आसान है कि विपक्ष कमजोर है, लेकिन मेरे दोस्त! आप भी इस तरह गुलामी की ओर बढ़ रहे हैं.''

राहुल गांधी उस कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं जिसका देश में अब तक सबसे लंबे समय तक सत्ता पर कब्जा रहा है. ऐसा भी तो नहीं कि 2014 में सत्ता गंवाने के बाद कांग्रेस को पांच साल बाद मौका नहीं मिला था. मगर, पांच साल में राहुल गांधी न तो कांग्रेस को फिर से खड़ा कर सके और न ही विपक्ष के साथ मिल कर कोई ऐसा चुनावी गठबंधन की तैयार कर सके जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जनता की अदालत में चैलेंज कर सके - जनता सिर्फ चुनावों में ही मददगार होती है वो भी तब जब उसे लगता है कि उसका वोट जाया नहीं होगा.

अगर राहुल गांधी को ऐसा लगता है कि विपक्ष की भूमिका निभाने वाले संसाधन उनके पास नहीं हैं, तो वो किस बात के लिए सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता समझे जाएंगे? अगर आप पूरे पांच साल में कुछ नहीं कर पाये तो फिर कोशिश कीजिये. विपक्ष की राजनीति अलग होती है. विपक्ष के काम करने का तौर तरीका अलग होता है. अगर विपक्ष संसाधनों की दुहाई देते हुए खुद का पल्ला झाड़ने की कोशिश करेगा तो किस बात का विपक्षी नेतृत्व.

अगर जनता ने कांग्रेस को सत्ता के लायक नहीं समझा तो विपक्ष की राजनीति का मौका तो दिया है. अगर जनता को लगा कि कांग्रेस विपक्ष की राजनीति के लायक भी नहीं है तो वो अधिकार भी किसी और राजनीतिक दल को थमा देगी. मौका तो मिला था और पांच साल में कुछ नहीं कर पाये - तो राहुल गांधी को क्यों लगता है कि वो कहीं भी कभी भी भूकंप ला सकते हैं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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