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Updated: 25 अगस्त, 2016 11:39 PM
स्नेहांशु शेखर
स्नेहांशु शेखर
  @snehanshu.shekhar
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इस हफ्ते देश की सर्वोच्च अदालत में मानहानि के दो मामले थे. मसला मान की हानि का था, किरदार भी बड़े थे, लिहाजा नेशनल मीडिया और सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया भी ज्यादा हुई. मामला महत्वपूर्ण इसलिए था क्योंकि दोनों मसले राजनीतिक थे, औऱ किसी भी फैसले का दूरगामी राजनीतिक परिणाम होता. उसमें में भी चर्चा संघ बनाम राहुल गांधी मामले की ज्यादा हुई, क्योंकि यह बहस थोड़ी पुरानी है.

आजादी के बाद सत्ता के समानांतर जो एक बहस लगातार चली आ रही है, उनमें एक बहस यह भी है कि गांधी के असली वैचारिक उत्तराधिकारी कौन है, उन्हें खत्म करने के पीछे कौन सी विचारधारा काम कर रही थी और उसके पीछे की राजनीतिक सोच क्या थी.

दो विचारधाराओं की जो बहस अक्सर देखने को मिलती है, उनमें एक सोच यह कहती है कि आजादी के बाद संघ ने गांधी की हत्या की थी, तो दूसरी विचारधारा का दावा है कि गांधी की सोच और विचारधारा की हत्या तो आजादी मिलने के पहले हो चुकी थी और शायद इसी से दुखी होकर गांधी ने आजादी के बाद कहा था कि कांग्रेस को अब समाप्त कर देना चाहिए. कारण बताया कि कांग्रेस का असल मकसद पूरा हो चुका है.

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लेकिन 2014 में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भिवंडी की रैली में गांधी की हत्या के लिए संघ के लोगों को जिम्मेदार क्या बताया, मामला अदालत पहुंच गया. दरअसल तब भी राहुल उसी दो विचारधाराओं के संघर्ष की चर्चा कर रहे थे. निशाना मोदी पर था, सहारा संघ का लिया और बस कह दिया कि जनता को इन विचारधाराओं के बीच चुनाव करना है.

इसे थोड़ा रूककर समझना होगा क्योंकि यह वह मुद्दा है जिसने आजादी के बाद इस देश की राजनीति में धर्मनिरपेक्षता की बहस को जन्म दिया. इसी आधार पर कई सरकारें बनीं, गिरीं और बिखर भी गईं.

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 राहुल गांधी और गुजरात कांग्रेस के नेता

इसका राजनीतिक लाभ कांग्रेस को सबसे ज्यादा मिला.

लिहाजा इसे हलके में मत लीजिए. मामला अदालत तक पहुंचा, क्योंकि संघ को लगा कि उसके मान को हानि पहुंचाने की कोशिश की गई है. जो तथ्य या आरोप अदालती प्रक्रियाओं में साबित नहीं हो पाए, उसके लिए संघ का नाम लेकर सीधे जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है?

संघ का मानना है कि गोडसे कौन थे, किस संगठन से जुड़े थे और किस समूह की योजना के तहत गांधी की हत्या की, इस पर कपूर कमीशन पहले ही फैसला दे चुका है. इस आयोग का गठन 21 नवबंर 1966 में हुआ था. जिसने 30 सितंबर 1969 को दी अपनी रिपोर्ट में कहा, " बतौर संगठन संघ की इस हत्या में कोई भूमिका नहीं पाई गई, इसलिए इस संगठन को इस हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक यह भी साबित नहीं हो पाया कि हत्यारों का संबंध आरएसएस से था."

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संघ का मानना है कि गोड़से आजादी से पहले ही आरएसएस से नाता तोड़ चुके थे और अपनी हिंदू राष्ट्र सेना का गठन कर चुके थे. उन्होंने गोलवरकर की विचारधारा का सार्वजनिक तौर पर विरोध भी शुरू कर दिया था.

लेकिन राजनीति के संदर्भ में आम राय यह है कि यहां तथ्य से ज्यादा परसेप्शन मायने रखता है. लिहाजा कांग्रेस अगर मानती आई है कि हत्या संघ ने करवाई तो भला राहुल इससे अलग कैसे हो सकते थे?

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2016 में सख्त रूख दिखाया और कहा कि सार्वजनिक तौर पर आप एक संगठन का नाम नहीं ले सकते और वह भी बिना तथ्यों के, लिहाजा या तो माफी मांगिए या ट्रायल फेस कीजिए.

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 पिता को श्रद्धांजली देते राहुल गांधी

लिहाजा बुधवार को राहुल गांधी की तरफ से अदालत को यह बताया गया कि उन्होंने यह कभी नहीं माना कि गांधी की हत्या के पीछे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हाथ था. बल्कि उससे जुड़े कुछ लोगों का हाथ था.

ऐसे में खबर का जंगल में आग की तरह फैलना भी.लाज़मी था. यह ह्दय परिवर्तन था या मानहानि के झमेले से बचने की रणनीति, इस पर सोशल मीडिया पर बहस शुरू हो गई. जो होना था, सोशल मीडिया पर हो चुका था.

कांग्रेस प्रवक्ता कपिल सिब्बल जब अदालत के बाद सफाई देने उतरे तो थोड़े कमजोर दिखे. गोडसे के भाई ने संघ को अपना परिवार बताया था. कई पुस्तकों में दिए गए तथ्य प्रमाणित करते है कि गोडसे का संघ से जुड़ाव था. अब इन लेखकों के खिलाफ मानहानि क्यों नहीं दायर की गई, यह तर्क सामने आया. यह भी दलील दी गई कि बिना माफी मांगे राहुल गांधी परसेप्शन की लड़ाई में बाजी संघ से मार ले गए. पर मानहानि की लड़ाई में हानि किसकी हुई , यह तो वक्त तय करेगा.

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कांग्रेस की शिकायत है कि सिर्फ राजनीतिक कारणों से राहुल गांधी के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया गया. यह तो सामान्य समझ की बात है कि एक तो अधिकतर मानहानि के मामले राजनीतिक होते है और कारण भी राजनीतिक ही होते है.

अब तमिलनाडु को ही लीजिए तो पिछले पांच साल में सिर्फ इस राज्य में मानहानि के लगभग 200 मामले दर्ज हुए हैं. इसमें 55 सिर्फ मीडिया के खिलाफ और 85 मामले जयललिता से जुड़े हैं.

मानहानि के बढ़ते मामलों के देखते हुए ही शायद सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि मानहानि का इस्तेमाल लोकतंत्र को दबाने के लिए भी नहीं होना चाहिए. अगर आप सार्वजनिक जीवन में है तो थोड़ी बहुत आलोचनाओं के लिए तैयार रहना चाहिए.

बात तो ठीक लगती है लेकिन विचारों की स्वतंत्रता की आड़ में दूसरों का मान मर्दन करने के भी उदाहरण देखने को मिले हैं. ऐसे में जिन पर आरोप लगाए जा रहे हैं, वह अपना बचाव करने के लिए क्या करें, इस पर अदालत को सोचना चाहिए.

क्योंकि इसी राजनीतिक व्यवस्था में केजरीवाल सरीखे लोगों का भी स्मरण जरूरी है, जिन्हें लगता है कि देश के वित्त मंत्री का कोई मान इसलिए नहीं है क्योंकि वो चुनाव हारे हुए हैं,, लिहाजा उनकी भी मानहानि की जा सकती है. जब मान नहीं तो हानि कैसी.

लेखक

स्नेहांशु शेखर स्नेहांशु शेखर @snehanshu.shekhar

लेखक आजतक चैनल के एग्जीक्यूटिव एडिटर हैं.

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