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Updated: 28 मई, 2023 05:35 PM
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दलितों को दलित न कहना चाहने वालों को कुछ और नहीं तो 1929 में सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की रची वह कविता तो याद करनी चाहिए जिसमें उन्होंने ईश्वर से दलितजनों पर करुणा करने की प्रार्थना की थी, "दलित जन पर करो करुणा, दीनता पर उतर आये प्रभु तुम्हारी शक्ति वरुणा." अब ये मत कह दीजिएगा तब संविधान कहां था? सुप्रीम कोर्ट के वकील विनीत जिंदल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और अन्य के खिलाफ नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की जाति का हवाला देते हुए कथित रूप से ''भड़काऊ बयान'' देने के लिए शिकायत कराई है. क्या कोई औचित्य है भी ऐसी शिकायत का?

तकनीकी तौर पर यह बात सही है कि संविधान में दलितों के लिए दलित नहीं अनुसूचित जाति-जनजाति शब्दों का ही उपयोग किया गया है. लेकिन इस आधार पर इस शब्द से परहेज बरतने की बाध्यता तो नहीं है. सो स्पष्ट हुआ माननीय जिंदल साहब खुद को हिमायती सिद्ध करने के लिए संविधान का तो हवाला दे नहीं सकते. गहरे उतारे तो उनका मामला दर्जा कराना ही भड़काऊ है. सच्चाई यही है कि शूद्र, अंत्यज, अवर्ण, अछूत और महात्मा गांधी के दिये 'हरिजन' जैसे संबोधनों के विकास क्रम में यह समुदाय आज अपने लिए 'दलित' शब्द को प्रायः सारे बोधों व मनोवैज्ञानिक दशाओं में अपना चुका है.

आज की तारीख में ज्यादातर दलितों को ख़ुद को 'दलित' कहलाने में किसी भी तरह के अपमान का बोध नहीं होता. इसके उलट यह शब्द उनकी एकता का प्रेरक बन गया है और वे कदापि नहीं भड़कते. हां, वे तब भड़कते हैं, जब स्वार्थपरक राजनीति के लिए उनको 'दलित' कहे जाने पर पक्षधरता का ढोंग किया जाता है. फिर खड़गे जी तो स्वयं दलित है और उन्हें फख्र भी है कि वे देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. लेकिन यदि कोई कहे कि खड़गे जी को कांग्रेस ने अध्यक्ष इसलिए बनाया है चूंकि वे दलित हैं, ऐसा 'कहा' उन्हें निश्चित ही आहत करेगा. क्या उनकी क्वालिटी 'दलित' होना भर है?

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उनमें क्षमता नहीं है क्या? मल्लिकार्जुन खड़गे जी को समझना चाहिए कि जब वे एक के बाद एक 4 ट्वीट कर कहते हैं कि मोदी सरकार दलित और जनजातीय समुदायों से राष्ट्रपति केवल चुनावी वजहों से बनाती है, वे महामहिम को, पूरे दलित समुदाय को उसी प्रकार आहत करते हैं. और जब केजरीवाल ट्वीट करते है कि 'दलित समाज पूछ रहा है कि क्या उन्हें अशुभ मानते हैं, इसलिए नहीं बुलाते?', वे भी महामहिम को आहत करते ही हैं, दलित समाज को भी हीनता का बोध कराते हैं.

तकनीकी तौर पर, प्रोटोकॉल के हवाले से, उनका इतना भर कहना सही रहता कि नए संसद भवन का उद्घाटन महामहिम द्वारा किया जाना चाहिए था; लेकिन दोनों और अन्यों ने भी दलित कनेक्शन लाकर सिद्ध कर दिया है कि भारत में राजनीति कभी नहीं रूकती, फिर भले ही जनता की संसद क्यों न हो जहां पहुंचने की कवायद में अतिरंजित हो नेता गण अनर्गल बातें कर ही जाते हैं. तो मान लीजिये अब चुनाव मुद्दों पर नहीं होते. बल्कि अनेकों विक्टिम कार्ड है जिन्हें पार्टियां बदलती रहती है. जब लगा राष्ट्रपति द्वारा उद्घाटन न कराये जाने की बात बैकफायर कर जा सकती है, राष्ट्रपति को न बुलाए जाने और उद्घाटन न कराये जाने की वजह उनका दलित होना बताना शुरू कर दिया.

विडंबना देखिये अब दलित कार्ड खेलना ही बैकफायर कर रहा है. जितने भी राष्ट्रपति हुए आज तक, उन्हें राष्ट्रपति ही क्यों न रहने दिया जाए कि "भारत के राष्ट्रपति" हैं. उन्हें अतिरिक्त विशेषणों से क्यों अलंकृत किया जाए कि देश के मुस्लिम राष्ट्रपति हुए, देश के सिख राष्ट्रपति थे, देश की महिला राष्ट्रपति हुई और देश की प्रथम दलित महिला राष्ट्रपति हैं? वे सभी अन्यथा भी विशेषज्ञ थे, राष्ट्रपति बनने के गुण उनमें औरों से कम नहीं थे. एक बात और, इसी तर्ज पर स्वर्ण राष्ट्रपति क्यों नहीं कहते? क्या मुर्मू जी की जगह कोई सवर्ण राष्ट्रपति होता, तो मोदी जी उनसे ही उद्घाटन कराते?   

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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