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Updated: 13 दिसम्बर, 2020 08:19 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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हैदराबाद से पटना पहुंचे AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) ने बिहार चुनाव में 5 विधानसभा सीटें जीत कर ध्यान तो सबका खींचा ही है. सच तो ये भी है कि पटना से बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव को सीधे हैदराबाद भेजने वाली बीजेपी ने भी नगर निगम चुनावों में नंबर दो पार्टी बनी बीजेपी ने आगे के लिए भी अपना इरादा जाहिर कर दिया है - ओवैसी की बीजेपी से अगली मुलाकात पश्चिम बंगाल में होने वाली है जहां AIMIM ने सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस को भी हाथ मिलाने का ऑफर दिया था - ये दावा करते हुए कि मिल कर बीजेपी को धूल चटा देंगे.

अब खबर आई है कि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी उत्तर प्रदेश में भी एक्टिव हो चुकी है. यूपी में सदस्यता अभियान चला रही AIMIM ने 20 से ज्यादा जिलों में पार्टी के प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी कर दी है. हालांकि, ये तैयारी अकेले चुनाव मैदान में उतरने के लिए नहीं हो रही है. बिहार की ही तरह AIMIM यूपी में भी चुनावी गठबंधन का हिस्सा होंगे. असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी 2017 में भी यूपी की कई विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन जमानत भी बचाना मुश्किल हो गया था.

2022 में होने जा रहे यूपी चुनाव में भी असदुद्दीन ओवैसी हिस्सा लेने जा रहे हैं और बिहार चुनाव की ही तरह यूपी में भी वो मायावती (Mayawati) के साथ हाथ मिलाने जा रहे हैं. बिहार चुनाव में ओवैसी और मायावती ने RLSP नेता उपेंद्र कुशवाहा के साथ चुनावी गठबंधन किया था और नाम दिया था - ग्रैंड डेमोक्रेटिक सेक्युलर फ्रंट. इस फ्रंट के बैनर तले कुल छह राजनीतिक दल मिल कर चुनाव लड़े थे, सीटें भी आधा दर्जन जीते लेकिन एक मायावती और पांच ओवैसी के हिस्से में गयीं. तेलंगाना और महाराष्ट्र के बाद किसी अन्य राज्य में ओवैसी की पार्टी का ये सबसे अच्छा प्रदर्शन रहा.

बिहार में तो असदुद्दीन ओवैसी और मायावती दोनों ही वोटकटवा की ही भूमिका में रहे, यूपी की स्थिति अलग होने की उम्मीद की जानी चाहिये. मायावती यूपी की नेता हैं, लेकिन ओवैसी के साथ हाथ मिला कर अगर चुनाव मैदान में उतरती हैं तो इरादे और नतीजे दोनों ही अभी तो रहस्यमय लग रहे हैं.

फिलहाल दावा तो यही है कि यूपी में ओवैसी और मायावती मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) के खिलाफ हाथ मिलाने वाले हैं, लेकिन बिहार के नतीजे तो और ही कहानी कह रहे हैं.

ओवैसी का एजेंडा, माया का सपोर्ट

आज तक ने एक गुमनाम बीएसपी नेता के हवाले से खबर दी है कि पार्टी में असदुद्दीन ओवैसी के साथ चुनावी गठबंधन को लेकर विचार विमर्श का दौर चल रहा है, अभी किसी ठोस नतीजे की स्थिति नहीं बन सकी है.

AIMIM यूपी के अध्यक्ष शौकत अली का मानना है कि ओवैसी और मायावती मिलकर ही सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोक सकते हैं. ऐसा न हुआ तो, कहते हैं, चाहे वो बीएसपी हो या फिर समाजवादी पार्टी या कांग्रेस ही क्यों न हो - अकेले कोई भी बीजेपी को नहीं रोक सकता.

asaduddin owaisi, amayawatiबिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी और मायावती जिस गठबंधन का हिस्सा रहे, उसे कुछ छह सीटें मिली थीं - और इन दोनों को ही मिलीं,

शौकत अली यूपी में दलित और मुस्लिम आबादी के करीब करीब बराबर होने का हवाला देते हैं और दोनों अगर मिल जायें तो बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है. ओवैसी के साथी नेता का मानना है कि यूपी के करीब 21 फीसदी दलित और 20 फीसदी मुस्लिम मिल कर तय कर लें तो बीजेपी को सत्ता में आने से रोक सकते हैं.

AIMIM नेता चाहते हैं कि बिहार चुनाव के सफल पॉलिटिकल एक्सपेरिमेंट को उत्तर प्रदेश में भी आजमाया जाना चाहिये. AIMIM को शुरू से ही दलित मुस्लिम एकता की पक्षधर बताते हुए शौकत अली कहते हैं कि महाराष्ट्र और बिहार में इसे जमीन पर उतारने की कोशिश कामयाब रही है.

साथ ही, शौकत अली को पक्का यकीन है कि बीएसपी बिना किसी सहारे के आगामी विधानसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने की स्थिति मे नहीं है. शौकत अली के मुताबकि, 2017 में भी ओवैसी की पार्टी ने मायावती के साथ गठबंधन की कोशिश की थी, लेकिन संभव नहीं हो पाया. शौकत अली जिस चुनाव की बात कर रहे हैं, मायावती अकेले दम पर दलित-मुस्लिम गठजोड़ के वोट बैंक पर भरोसा किये हुए थीं.

जहां तक 2017 में ओवैसी और मायावती के बीच चुनावी गठबंधन का सवाल है, दरअसल, तब मायावती अकेले दम पर ही दलित और मुस्लिम वोटों को एकजुट कर सत्ता में वापसी की कोशिश में लगी हुई थीं. आने वाले चुनाव में जो भूमिका ओवैसी अपने लिए देख रहे हैं, तब बीएसपी नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी को मायावती ने ये जिम्मेदारी सौंपी हुई थी. खुद दलितों की नेता होने के साथ साथ मायावती ने नसीमुद्दीन सिद्दीकी को पश्चिम उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया हुआ था. चुनाव से काफी पहले से ही नसीमुद्दीन सिद्दीकी और उनके बेटे मुस्लिमों की बड़ी बड़ी मीटिंग बुलाते रहे और वहां लोगों को समझाया जाता था कि एक कायद का होना उनके लिए क्यों जरूरी है. ये भी याद दिलाया जाता कि जब मायावती मुख्यमंत्री थीं तो नसीमुद्दीन सिद्दीकी ही हैसियत कितनी बड़ी हुआ करती थी, लेकिन मायावती का ये नुस्खा पूरी तरह फेल रहा.

चुनावों में फेल होने के बाद मायावती ने तस्लीमुद्दीन सिद्दीकी को वैसे ही धक्का देकर बीएसपी से बाहर कर दिया जैसे 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का फायदा उठाने के बाद अखिलेश यादव से किनारा कर लिया था - अब देखा जाये तो असदुद्दीन ओवैसी की अग्नि परीक्षा की बारी है!

ओवैसी-माया गठबंधन से किसका फायदा, किसका नुकसान?

सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि यूपी में असदुद्दीन ओवैसी और मायावती के हाथ मिलाने से दोनों को आपसी फायदा भी होगा या नहीं?

चुनाव नतीजों का पूर्वानुमान लगाने की कोशिश करें तो वो बिहार जैसा तो नहीं ही होना चाहिये. बिहार चुनाव में ओवैसी को पांच सीटें मिली थीं और मायावती की पार्टी बीएसपी को सिर्फ एक. रेशियो भले ये हो, लेकिन यूपी में मान कर चलना चाहिये कि आंकड़े इसके उलट ही होंगे.

एक सवाल ये भी है कि असदुद्दीन ओवैसी और मायावती के बीच गठबंधन की स्थिति में बीजेपी को नुकसान पहुंचेगा या फायदा होगा?

AIMIM की तरफ से बताया जा रहा है कि प्रस्तावित चुनावी गठबंधन बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने के लिए होगा. यानी, योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए ये सब होने जा रहा है - लेकिन क्या वास्तव में ऐसा ही होने वाला है? चुनाव और राजनीति में होने को तो कुछ भी हो सकता है, लेकिन मौजूदा हालात तो यही इशारा करते हैं कि ऐसी कम ही संभावना होनी चाहिये. कम से कम अभी के हिसाब से तो ऐसा ही माना जा सकता है.

बाद की बात और है. पहले तो बिहार के प्रदर्शन के प्रभाव को देखें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो सकती है. असदुद्दीन ओवैसी और मायावती के हाथ मिलाने से बिहार चुनाव में बीजेपी और जेडीयू को कोई नुकसान नहीं हुआ है.

बिहार चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी और मायावती जिस गठबंधन का हिस्सा बने थे वो चैलेंज तो नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए को कर रहा था, लेकिन खिलाफ तो वो तेजस्वी यादव के महागठबंधन के भी रहा - और यही वजह रही कि ऐसे नेताओं के मंच को वोटकटवा कैटेगरी का माना गया.

असदुद्दीन ओवैसी और मायवादी की पार्टियों ने जो सीटें जीती हैं वे भी महागठबंधन के हिस्से की ही रहीं. अगर असदुद्दीन ओवैसी ने उम्मीदवार नहीं उतारे होते तो वे सीटें महागठबंधन के पास होतीं. कम से कम सीटें तो कांग्रेस के हिस्से की ही रहीं.

ओवैसी और मायावती ने छह सीटें जीत कर महागठबंधन को बहुमत से दूर कर दिया - और इसका फायदा सीधे सीधे एनडीए यानी नीतीश कुमार और बीजेपी को हुआ.

फिर कैसे समझा जाये कि ओवैसी और मायावती यूपी में बीजेपी के खिलाफ हाथ मिलाने जा रहे हैं - ये तो ऐसा लगता है जैसे बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने के लिए ये गठबंधन बन रहा है!

वैसे भी काफी दिनों से लग तो यही रहा है कि मायावती की तरफ से वे ही काम किये जाते हैं जिसमें बीजेपी का फायदा हो. मायावती का कांग्रेस नेताओं प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ आक्रामक रुख हर मौके पर मिला है - चाहे वो सीएए का विरोध प्रदर्शन हो या फिर प्रवासी मजदूरों का मामला. तभी तो प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक बार मायावती को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक बता डाला था.

हाथरस के मामले में सबने देखा ही कि किस तरह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा दलित वोटों के लिए टूट पड़ रहे हैं - और मुस्लिम वोट के लिए भी वही हाल है. डॉक्टर कफील खान को तो कांग्रेस स्टार प्रचारक बनाने की भी तैयारी कर रही है - जेल से छूटने के बाद कफील खान को सीधे राजस्थान ले जाया गया जहां कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार है. सीएए के विरोध प्रदर्शन के दौरान प्रियंका गांधी पुलिस एक्शन के शिकार मुस्लिम परिवारों से मिलने भी तो इसीलिए जा रही थीं.

ऐसा लगता है कि जैसे मायावती 2017 में अकेले दलित-मुस्लिम वोटों के गठजोड़ की कोशिश कर रही थीं, वैसी ही तैयारी इस बार कांग्रेस की है. असदुद्दीन ओवैसी के साथ मिल कर मायावती वैसा ही एक और चुनावी गठबंधन करने जा रही हैं - ऐसा हुआ तो वोट बंटेंगे और वोट बंटेंगे तो सीधा फायदा बीजेपी को होगा. फिर कैसे माना जाये कि असदुद्दीन ओवैसी और मायावती वास्तव में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बीजेपी के खिलाफ ही कर रहे हैं?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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