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Updated: 25 मार्च, 2018 07:23 PM
अशोक के सिंह
अशोक के सिंह
  @ashok.k.singh.3194
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हालिया यूपी उपचुनावों में भाजपा को मिली हार के बाद लोग 2019 में पीएम मोदी के भविष्य पर सवाल खड़े कर रहे हैं. ये कोरी बकवास बात है. राजस्थान और उत्तर प्रदेश के लोकसभा क्षेत्रों में भाजपा को मिली हार और कुछ सहयोगियों द्वारा दूरी बनाए जाने की घटना के बाद लोग अगले साल मोदी राज का अंत मान रहे हैं.

अप्रत्याशित जीत दर्ज करने के चार साल बार अब मोदी का करिश्मा टूट गया और अब वो कमजोर पड़ गए हैं. लेकिन फिर भी मोदी पूरी मजबूती के साथ विपक्ष के सामने खड़े हैं. मोदी और उनकी विचारधारा के धूर विरोधी सीपीआई(एम) ने इस स्थिति की एक वास्तविक छवि सामने रख दी है. पार्टी की पत्रिका पीपुल्स डेमोक्रेसी में स्पष्ट शब्दों में बिना लाग लपेट के सीपीआई(एम) ने इस बात को स्वीकार किया है कि विपक्षी पार्टियां, मोदी को चैलेंज करने की स्थिति में नहीं हैं. वो सभी बुरी तरह बिखरे हुए हैं.

गैर कांग्रेसी पार्टियों को एकजुट करने की कई बार कोशिश करने वाली सीपीआई(एम) ने विपक्ष के बीच की फूट को खोलकर रख दिया. सीपीआई(एम) के मुखपत्र ने तीन ठोस तर्क दिए हैं.

पहला- विपक्षी दलों को चेतावनी दी गई थी कि 2019 में  मोदी के खिलाफ यूपीए-3 सफल नहीं होगा. "कांग्रेस का एक और यूपीए वाला प्रयोग सफल नहीं होगा. क्योंकि यह अब अपनी विश्वसनीयता खो चुके हैं. और अगले लोकसभा चुनाव में भाजपा को हराने का सबसे अच्छा तरीका होगा कि बीजेपी विरोधी सभी पार्टियां राज्यवार तरीके से एकजुट हों."

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यह कांग्रेस की एक स्पष्ट और कठोर आलोचना है. इसी तर्क के साथ सीपीआई (एम) ने राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान छलावा बताया है. पीपुल्स डेमोक्रेसी का संपादकीय, सीपीआई(एम) की आधिकारिक स्थिति को दर्शाता है. ये बताता है कि पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी को बड़े ही प्रभावी ढंग से किनारे कर दिया गया है. येचुरी, सीपीआई(एम) को त्रिपुरा में भाजपा से लड़ने के लिए, कांग्रेस से हाथ मिलाने की बात पर जोर दे रहे थे. राज्य में मिली करारी हार की उन्हें सजा दी.

दूसरा- सीपीआई(एम) का तर्क है कि टीडीपी, टीआरएस और बीजेडी जैसी क्षेत्रीय पार्टियां, कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट होने के लिए तैयार नहीं हैं. सीपीआई(एम) खुद कहती है कि भाजपा के विरुद्ध गठबंधन बनाने के लिए वो कांग्रेस के साथ नहीं मिलेंगे. इसमें साफ तौर पर केरल का संदर्भ दिया गया है, जहां सीपीआई(एम) कांग्रेस के साथ सीधे चुनाव में है.

तर्क साफ है. उन राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस के साथ हाथ नहीं मिलाएंगी जहां उनकी सीधी टक्कर कांग्रेस के साथ है. हालांकि, सीपीआई(एम) ने ममता बनर्जी की अगुआई वाली टीएमसी का उल्लेख नहीं किया है. लेकिन पश्चिम बंगाल के नेताओं का कांग्रेस के लिए प्यार खत्म नहीं हुआ है. पश्चिम बंगाल में तृणमूल पार्टी की मुख्य प्रतिद्वंद्वी सीपीआई(एम) है. लेकिन कांग्रेस-वामपंथी एकता ममता बनर्जी के लिए सिरदर्द हो सकती है.

तीसरा- सीपीआई(एम) ने भाजपा का सामना करने के लिए टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व में एक संघीय मोर्चे के बारे में विचार किया. भाजपा के खिलाफ और कांग्रेस के बगैर, एक संघीय मोर्चा बनाने में बनर्जी की दिलचस्पी है. ममता बनर्जी ने कांग्रेस के प्रति अपनी नाराजगी को कभी छुपाया नहीं. और इसलिए ही 2019 में मोदी के विरोध के लिए रणनीति बनाने की गरज से कांग्रेस नेता सोनिया गांधी द्वारा विपक्षी पार्टियों के लिए एक डिनर पार्टी का प्रोग्राम बनाया गया था. ममता बनर्जी इसमें भी शामिल नहीं हुई थीं.

सीपीआई(एम) के मुताबिक संघीय मोर्चे के निर्माण से भाजपा विरोधी वोट कटेंगे क्योंकि राजद और डीएमके जैसी कुछ पार्टियां अभी भी कांग्रेस के साथ हैं. तो अगर कम शब्दों में कहें कि भाजपा के मुख्य विरोधी दलों में से एक और मोदी-विरोधी एकता की ध्वजवाहक पार्टी ने विपक्षी दलों के बीच चुनाव-पूर्व गठबंधन की व्यवहार्यता को सिरे से खारिज कर दिया है. ये सच्चाई विपक्ष के उन नेताओं ने निराशाजनक होगी जो उप-चुनावों में बीजेपी की हार के बाद अपने अच्छे दिनों के आने के सपने संजोने लगे थे.

सीपीआई(एम) का कहना है कि अगर भाजपा से भिड़ना है तो राज्यों के स्तर पर भी एकजुटता दिखानी होगी. इसके लिए वो गोरखपुर, फुलपुर चुनावों में सपा-बसपा एकता का उदाहरण देते हैं. लेकिन सीपीएम के लॉजिक की माने तो स्थानीय मतभेद पार्टियों की एकता के बीच बड़ा मुद्दा बनते हैं और मोदी के खिलाफ खड़े होने में ये स्थानीय मुद्दे ही अखिलेश यादव और मायावती के गठबंधन के बीच आएंगे.

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राजनीति के जानकार भी यूपी के दो उप-चुनावों के नतीजों को 2019 में पूरे 80 सीटों पर दोहराने की बात कह रहे थे. हालांकि वे ये बात भूल जाते हैं कि सपा और बसपा के बीच में जाति और वर्ग के स्तर पर भयंकर विरोधाभास है जिसकी वजह से इनका गठबंधन बहुत शांति से चल पाएगा इसकी उम्मीद कम है. एसपी के यादव के नेतृत्व वाले ओबीसी समर्थक और बसपा के दलित समर्थक ज्यादातर गांवों में एक-दूसरे के आमने सामने खड़े रहते हैं.

यही दिक्कत जेडीयू और राजद के साथ है. हालांकि बिहार में भाजपा को हराने के लिए दोनों ने महागठबंधन तो कर लिया था लेकिन उनकी एकता ज्यादा दिन चली नहीं. अंत में जीत मोदी और शाह की ही हुई. ज्यादातर राजनीति विश्लेषक सपा और बसपा दोनों ही के संयुक्त वोट शेयर की बात करते हुए बताते हैं कि दोनों पार्टियां उत्तरप्रदेश की 80 में से 50 सीटों पर कब्जा जमा सकती हैं. और फिर भाजपा के पास सिर्फ 30 सीटें रह जाएंगी. लेकिन ये सिर्फ एक काल्पनिक स्थिति है.

अगर इंदिरा गांधी के समय में सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हो जातीं तो भारत में गठबंधन सरकारें तभी से बननी शुरु हो जाती. विपक्षी दलों की एकजुटता के न के बराबर संभावनाओं का जो आंकलन सीपीआई(एम) ने किया है उसके अनुसार, 2019 में मोदी और शाह बड़े ही आरामदायक स्थिति में दिख रहे हैं.

राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल 65 सीटों पर कांग्रेस, भाजपा को बड़ी चुनौती पेश करेगी. यहां दोनों ही पार्टियों में आमने सामने की लड़ाई है और इन राज्यों में भाजपा को सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा. लेकिन इसके टक्कर में भाजपा के पास मोदी जैसा स्टार प्रचारक है जो किसी भी कांग्रेसी नेता की तुलना में बहुत ही ज्यादा है. स्थानीय विरोधाभास और उनके नेताओं के अहंकार- ममता और मायावती, ये तो सिर्फ दो नाम ही हैं- इनके अलावा भी विपक्षी पार्टियों को दो और बातों में संघर्ष करना होगा.

एक, उन्हें अखिल भारतीय स्तर के एकमात्र नेता मोदी के व्यवहारवाद का सामना करना पड़ेगा जिसके जरिए वो मतदाताओं को अपने पाले में गिरा ही लेते हैं. दूसरा, अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा की महान चुनावी मशीन और उनके पीछे खड़े 8 करोड़ से अधिक आरएसएस कार्यकर्ता.

विपक्ष के पास कोई चांस ही नहीं है.

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अशोक के सिंह अशोक के सिंह @ashok.k.singh.3194

पत्रकार, लेखक और राजनीतिक विश्‍लेषक हैं.

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