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Updated: 20 अक्टूबर, 2021 11:07 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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विधानसभा चुनाव से पहले समीकरणों और गठबंधन का बनना-बिगड़ना और टूटना-जुड़ना एक आम सी बात नजर आती है. सत्ता पर काबिज होने के लिए इस तरह की कोशिशें सभी राजनीतिक दल करते हैं. अगले साल होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले भी हर बदलते दिन के साथ नए सियासी और जातीय समीकरण साधे जा रहे हैं. यूपी चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने अपना दल और निषाद पार्टी से गठबंधन किया है. तो, योगी सरकार को टक्कर दे रहे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सूबे के छोटे दलों पर ही अपना ध्यान केंद्रित कर रखा है.

इसी क्रम में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी यानी सुभासपा के मुखिया ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव से मुलाकात कर गठबंधन का ऐलान कर दिया है. वैसे, भाजपा की योगी सरकार के सामने छोटे-छोटे दलों का एक मजबूत गठबंधन खड़ा करने की कोशिश में लगे ओमप्रकाश राजभर का सपा के साथ जाना बड़ा फैसला माना जा सकता है. दरअसल, प्रसपा नेता शिवपाल सिंह यादव से लेकर एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी तक के साथ गलबहियां करते नजर आ चुके ओमप्रकाश राजभर ने गठबंधन के लिए भाजपा के साथ भी बातचीत जारी रखी हुई थी. आसान शब्दों में कहा जाए, तो यूपी चुनाव से पहले तकरीबन हर विपक्षी दल सपा के साथ गठबंधन की कोशिश करेगा. अगर ऐसा नहीं हो पाया, तो पश्चिम बंगाल वाला 'खेला' होना तय है.

OP Rajbhar Akhilesh Yadavअखिलेश यादव और ओमप्रकाश राजभर का गठबंधन आगे की रणनीति तय करेगा.

पश्चिम बंगाल में हुआ था ये 'खेला'

पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस, भाजपा के साथ ही कांग्रेस-वामदलों और आईएसएफ के पीरजादा अब्बास सिद्दीकी के बीच मुकाबला माना जा रहा था. लेकिन, विधानसभा चुनाव होने से पहले ही भाजपा और तृणमूल कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई तय हो गई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत भाजपा के स्टार प्रचारकों की पूरी फौज के निशाने पर तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ही रहीं. आठ चरणों में होने वाली वोटिंग के दौरान भी भाजपा की ओर से केवल ममता बनर्जी को ही घेरने की कोशिश की गई. विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी बनाम नरेंद्र मोदी की लड़ाई का सियासी माहौल बनने के साथ कांग्रेस-वामदलों के नेतृत्व ने खुद को बैकफुट पर ढकेलते हुए आइसोलेट कर लिया. आसान शब्दों में कहा जाए, तो कांग्रेस-वामदल गठबंधन ने ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस के आगे हथियार डाल दिये थे. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी पश्चिम बंगाल में ठीक तरह से चुनाव प्रचार तक नहीं कर पाए. पश्चिम बंगाल में कांग्रेस और वामदलों ने एक तरह से ममता बनर्जी को वाकओवर देकर मैच जिता दिया था.

यूपी चुनाव से पहले क्या हैं हालात?

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी चाहे जितनी मेहनत कर लें, लेकिन यूपी में मूर्छित हो चुकी कांग्रेस के लिए 'संजीवनी' की खोज करना उनके लिए आसान नहीं है. प्रियंका गांधी की 40 फीसदी महिलाओं को विधानसभा टिकट जैसी चुनावी रणनीतियां कांग्रेस को फायदा पहुंचाती नहीं दिख रही हैं. क्योंकि, यह बात किसी से छिपी नही है कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास बहुत ज्यादा कुछ खोने के लिए है ही नही. इस स्थिति में महिलाओं को टिकट बांटने से शायद ही कुछ बदल पाएगा. हां, इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रियंका गांधी की मेहनत से कांग्रेस की कुछ विधानसभा सीटें बढ़ सकती हैं. इसके बावजूद कांग्रेस कहीं से भी सपा को टक्कर देने की स्थिति में नहीं दिख रही है. अगर प्रियंका गांधी यूपी चुनाव लड़ने या खुद को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बता देती हैं, तो जरूर उत्तर प्रदेश के सियासी माहौल में थोड़ा-बहुत बदलाव आ सकता है. हो सकता है कि इसके बाद अखिलेश यादव कांग्रेस से गठबंधन करने के बारे में दोबारा सोच लें. वरना इस संभावना से इतर कांग्रेस यूपी चुनाव में कोई खास प्रभाव डालती नहीं दिख रही है.

2007 में सोशल इंजीनियरिंग के जिस फॉर्मूले के दम पर बसपा सुप्रीमो मायावती सत्ता पर काबिज हुई थीं. उसी फॉर्मूले के सहारे एक बार फिर से सूबे की राजनीति में दस्तक दे रही हैं. लेकिन, बसपा के नेता लगातार पार्टी छोड़कर जा रहे हैं. इतना ही नहीं, राम अचल राजभर और लालजी वर्मा सरीखे कई बड़े नेताओं को खुद मायावती ही बसपा से बाहर का रास्ता दिखा चुकी हैं. सॉफ्ट हिंदुत्व, पार्कों में मूर्तियां लगवाने की जगह विकास को महत्व देने जैसे वादों के सहारे मायावती सत्ता में फिर से काबिज होने का दंभ भर रही हैं. लेकिन, जमीनी लड़ाई में उनके हिस्से कुछ खास आता नहीं दिख रहा है.

एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी की बात करें, तो उनकी सभाओं और रैलियों में जमकर भीड़ इकट्ठा हो रही है. सत्ता में मुस्लिम हिस्सेदारी तय करने की बात करने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश की 100 मुस्लिम बहुल विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की बात कही थी. ओवैसी ने ये विधानसभा सीटें चिन्हित कर ली हैं और अपनी पूरी ताकत इन सीटों पर ही झोंक रहे हैं. बहुसंख्यक हिंदू वोट छिटकने के डर से सभी विपक्षी सियासी दलों ने मुस्लिम मतदाताओं से उचित दूरी बना ली है. जिसके बाद असदुद्दीन ओवैसी ने विपक्षी दलों के मुस्लिमों को लेकर इस रवैये पर सवाल खड़े करते हुए अपने लिए वोटबैंक तैयार करना शुरू कर दिया है. इतना तय है कि असदुद्दीन ओवैसी का किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं होने वाला है. क्योंकि, ओवैसी के साथ गठबंधन का मतलब है कि बहुसंख्यक वोटों के छिटकने का खतरा बना रहेगा.

वहीं, भागीदारी संकल्प मोर्चा बनाने वाले सुभासपा अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की राह पकड़ कर बता दिया है कि उन्होंने भागीदारी संकल्प मोर्चा का इस्तेमाल अपने लिए 'प्रेशर पॉलिटिक्स' के तौर पर किया था. प्रसपा अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव, आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण और करीब 9 अन्य छोटे-छोटे दल के नेताओं के सहारे ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव तक पहुंचने का रास्ता तय कर लिया है. अभी तक भागीदारी संकल्प मोर्चा को ही सबकुछ बताने वाले ओमप्रकाश राजभर सभी दलों को झटका देते हुए सपा के पाले में जा बैठे हैं. देखने वाली बात होगी इस असदुद्दीन ओवैसी जैसे धुरंधरों वाले इस भागीदारी संकल्प मोर्चा से ओमप्रकाश राजभर के निकल जाने के बाद अन्य छोटे दलों का क्या होता है. क्योंकि, सपा के साथ गठबंधन की घोषणा में सुभासपा का नाम लिया गया है, नाकि भागीदारी संकल्प मोर्चा का.

Akhilesh Yadav Yogi Priyankaसपा के लिए केवल गठबंधन से राह आसान नहीं होने वाली है.

सपा को भाजपा के खिलाफ मिल ही जाएगा वाकओवर

इस बात में कोई दो राय नही है कि यूपी विधानसभा चुनाव 2022 से पहले सूबे में भी सपा बनाम भाजपा का ही माहौल बनने वाला है. सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव भी सियासी गुणा-गणित को समझते हुए फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं. दरअसल, कांग्रेस और बसपा के साथ गठबंधन से मिली कड़वाहट का स्वाद अखिलेश यादव भूले नही हैं. उन्होंने साफ कर दिया है कि गठबंधन होगा, तो केवल छोटे सियासी दलों से ही होगा. सुभासपा के ओमप्रकाश राजभर इस गठबंधन में नए शामिल हुए हैं. सपा के साथ आरएलडी का गठबंधन भी लगभग तय ही कहा जा सकता है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो सूबे के मुखिया योगी आदित्यनाथ और भाजपा के सामने सबसे मजबूत विपक्षी दल के तौर पर सपा प्रमुख अखिलेश यादव ही नजर आते हैं. हाल ही में भागीदारी संकल्प मोर्चा के सहारे ही अखिलेश यादव के चाचा और प्रसपा अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव भी सपा पर दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे. इस स्थिति में कहा जा सकता है कि ओमप्रकाश राजभर को सपा के साथ गठबंधन में लाकर अखिलेश यादव ने कई सियासी समीकरणों को उलटफेर कर पाने की तुलना में कमजोर कर दिया है.

कहना गलत नहीं होगा कि जैसे-जैसे विधानसभा चुनाव पास आएंगे, वैसे-वैसे तमाम छोटे दल अपना ठिकाना खोजने के लिए इधर-उधर दौड़ लगाना शुरू कर देंगे. भागीदारी संकल्प मोर्चा के छोटे दलों समेत उत्तर प्रदेश के अन्य छोटी सियासी पार्टियां भी अपनी वरीयता और सीटों की संख्या पर मिलने वाले ऑफर के हिसाब से अपना रास्ता तय कर लेंगी. ठीक उसी तरह से जिस तरह सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने अपनी राह चुनी है. इस स्थिति में सपा के ताकतवर होने के साथ ही कांग्रेस और बसपा जैसे दलों के लिए हालात मुश्किल हो जाएंगे. कहना गलत नहीं होगा कि पश्चिम बंगाल में जिस तरह ममता बनर्जी बनाम नरेंद्र मोदी का मुकाबला हुआ था, उत्तर प्रदेश में अखिलेश और योगी आदित्यनाथ के बीच सियासी द्वंद होगा. हालांकि, यह सपा के लिए हर विधानसभा सीट पर फायदेमंद नहीं होगा. लेकिन, इतना जरूर कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल की ही तरह उत्तर प्रदेश में भी बसपा और कांग्रेस कहीं न कहीं सपा के आगे समर्पण कर हथियार डाल ही देंगी.

भाजपा का मजबूत वोटबैंक से होगी टक्कर

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही भाजपा का गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वर्ग में प्रभाव बढ़ा है. पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में दो-तिहाई सीटें जीतने वाली भाजपा ने विपक्षी दलों के सामने 40 फीसदी वोटबैंक का एक आंकड़ा तय कर दिया है. इसके हिसाब यूपी में सत्ता पाने के लिए कम से कम 40 फीसदी मतदाताओं का साथ मिलना जरूरी है. भाजपा भी अपने वोटबैंक को मजबूत करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रही है. वहीं, योगी आदित्यनाथ के रूप में भाजपा के पास हिंदुत्व का एक फायरब्रांड चेहरा है, जो किसी भी समय चुनाव का रुख बदलने की क्षमता रखता है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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