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Updated: 12 अक्टूबर, 2020 09:58 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ने 2013 से 2017 के बीच जिस तरीके की राजनीति की है, सारी खासियतों के बावजूद उनको सशंकित निगाहों से देखा जाता रहा है. बिहार के लोग भी पक्के तौर पर यकीन नहीं कर पाते कि कब वो अपना स्टैंड बदल लेंगे - कब वो गरीबों और पिछड़ों के धर्मनिरपेक्ष नेता बन जाएंगे और कब राष्ट्रवाद और कट्टर हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा के सियासी हमसफर बन जाएंगे.

बीजेपी (BJP) तो नीतीश कुमार के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए कुछ ज्यादा ही सतर्कता बरतती आ रही है. अगर ऐसा नहीं होता तो शायद चिराग पासवान भी एनडीए से स्पेशल लीव लेकर बीजेपी की बी टीम बन कर चुनाव मैदान में मोर्चा नहीं संभाल रहे होते.

लेकिन सारी खुदाई एक तरफ और पुराना याराना एक तरफ - लगता नहीं कि लालू यादव (Lalu Yadav) भी नीतीश कुमार को लेकर बीजेपी के नजरिये से इत्तफाक रखते हैं! नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों ही ने अपने अपने हिस्से की विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार फाइनल करने में एक दूसरे का जिस कदर ख्याल रखा है वो तो ऐसा ही किस्सा सुना रहा है.

लालू के नीतीश से मिलिये

राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट की तकरार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के नरम रुख की खूब चर्चा रही. आखिर में वसुंधरा राजे ने भी बीजेपी के सपोर्ट में खुल कर मोर्चा तो संभाल लिया था, लेकिन न तो किसी बयान में न किसी ट्वीट में कभी भी अशोक गहलोत उनके निशाने पर देखे गये. अशोक गहलोत ने भी सचिन पायलट के हमलावर रुख के बावजदू वसुंधरा राजे के बंगले को लेकर एक भी कदम पीछे नहीं ही खींचा.

बंगले के बहाने ही सोचें तो तेज प्रताप यादव को नीतीश कुमार की कृपा से ही अलग बंगला मिल पाया - और ये भी नीतीश कुमार के लालू परिवार के प्रति उनके सॉफ्ट कॉर्नर का ही एक नमूना रहा. हालांकि, बीजेपी को नीतीश कुमार का ये रवैया नागवार गुजरता है, जबकि ऐसा ही भाव चिराग पासवान दिखाते हैं तो बीजेपी कुछ भी नहीं बोलती.

भरोसे और शक के रिश्ते में अक्सर ऐसा ही होता है. इस मामले में न तो बीजेपी को दोषी माना जाना चाहिये, न नीतीश कुमार को और न ही लालू प्रसाद यादव को. असल बात तो ये है कि हर कोई अपने अपने हिस्से की राजनीति अपने तरीके से कर रहा है. राजनीति का पेशेवराना अंदाज तो ऐसा ही होता है और उसमें एक ही मूल मंत्र होता है - येन केन प्रकारेण!

nitish kumar, lalu yadavअगर बीजेपी ने प्लान बी बनाया है तो ये न भूले कि नीतीश के पास ऐसी स्कीम हमेशा तैयार रहती है!

लालू परिवार के प्रति नीतीश कुमार के सॉफ्ट कॉर्नर को लेकर बीजेपी ने जो फीडबैक अपने आंतरिक सर्वे में पाया था, नीतीश कुमार ने उसे प्रत्यक्ष तौर पर उदाहरण स्वरूप पेश कर दिया है. बिहार विधानसभा की कुछ सीटों पर टिकटों के बंटवारे की रणनीति को ध्यान देकर समझें तो ये समझना काफी आसान हो जाता है.

बिहार की राजनीति में दो वाकये ऐसे रहे जिनको लेकर कई तरह से कयास लगाये गये और वे किसी भी तरीके से निराधार नहीं थे - पहला, जब करिश्मा राय को तेजस्वी यादव ने आरजेडी ज्वाइन कराया और दूसरा, जब चंद्रिका राय को नीतीश कुमार ने जेडीयू में बुला लिया. चंद्रिका राय, कोई और नहीं बल्कि लालू प्रसाद के समधी हैं. चंद्रिका राय ने बेटी ऐश्वर्या की शादी लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप के साथ करायी थी. फिलहाल दोनों के बीच तलाक का मुकदमा चल रहा है. करिश्मा राय भी कोई और नहीं बल्कि चंद्रिका राय की भतीजी हैं.

जब चंद्रिका राय ने जेडीयू ज्वाइन किया तो उनसे कहीं ज्यादा ऐश्वर्या के चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर सवाल भी पूछे गये और चर्चाएं भी खूब हुईं. चंद्रिका राय ने भी ऐसी गोल-मोल बातें कही कि लगा ऐश्वर्या भी चुनाव मैदान में उतरने का मूड बना चुकी हैं. अब ऐश्वर्या के चुनाव लड़ने की बात चली तो माना जाने लगा कि वो तेज प्रताप को भी चुनाव मैदान में चैलेंज करेंगी. तभी पटना के राजनीतिक हलकों में एक और चर्चा छिड़ी कि ऐश्वर्या को तेज प्रताप नहीं बल्कि तेजस्वी यादव को उलझाने का टास्क मिल सकता है. तब जो चर्चा रही वो ये कि ऐश्वर्या को तेजस्वी यादव के खिलाफ राघोपुर से जेडीयू का टिकट मिल सकता है ताकि आरजेडी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार को अपनी सीट पर उलझाया जा सके. जब तेजस्वी यादव अपनी सीट पर फोकस करेंगे तो आरजेडी के लिए बाकी सीटों पर मुश्किल होती क्योंकि फिलहाल आरजेडी में ले देकर सुपर स्टार प्रचारक तो तेजस्वी यादव ही हैं.

मगर, जब चुनाव का मौका आया तो नीतीश कुमार ने सीट शेयरिंग के दौरान बड़े ही सोफियाने तरीके से राघोपुर की सीट बीजेपी को थमा दी - ताकि टकराव की कोई गुंजाइश बचे ही नहीं. मुंह में छुरी और बगल में राम की राजनीति भी तो कोई चीज होती है.

पहले कहा जा रहा था कि राजद के एकमात्र स्टार प्रचारक तेजस्वी यादव को जदयू उनके क्षेत्र राघोपुर में ही घेरकर रखने की रणनीति बनाएगा। इसके लिए उनकी भाभी ऐश्वर्या राय को मैदान-ए-जंग में उतारा जा सकता है, किंतु जदयू ने कड़वाहट बढ़ाने के बजाय खुद को मोर्चे से ही हटा लिया और इस सीट को भाजपा के खाते में डाल दिया है।

लालू परिवार के लिए दूसरी महत्वपूर्ण सीट महुआ रही जहां से पिछली बार तेज प्रताप चुनाव जीते थे. ऐश्वर्या के राघोपुर नहीं तो महुआ से चुनाव लड़ने की संभावना जतायी गयी थी, लेकिन जेडीयू ने वहां से पूर्व मंत्री इलियास हुसैन की बेटी आसमां परवीन को उम्मीदवार घोषित कर दिया है. शायद यही वजह रही कि तेज प्रताप ने महुआ छोड़ कर इस बार हसनपुर से चुनाव लड़ने का फैसला किया है. बहरहाल, हसनपुर से भी ऐश्वर्या के चैलेंज करने की संभावना खत्म हो गयी क्योंकि जेडीयू ने अपने विधायक राजकुमार की उम्मीदवारी इस बार भी बरकरार रखी है.

नीतीश के लालू से मिलिये

अब जरा नीतीश कुमार के प्रति लालू यादव का रुख भी समझने की कोशिश करते हैं. ये मामला आपसी बातचीत से सुलझाया गया हो या फिर एक दूसरे के मामलों में दखल देने से परहेज के चलते - लेकिन वस्तुस्थिति तो यही बनी है कि दोनों ही पक्षों ने एक दूसरे के राजनीतिक हितों का पूरा ख्याल रखा है.

अव्वल तो बीते दिनों की तैयारियों के हिसाब से करिश्मा राय को अपने चाचा चंद्रिका राय के खिलाफ सारण की परसा विधानसभा सीट से लड़ना चाहिये था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. करिश्मा राय अब भी रिजर्व प्लेयर के तौर पर आरजेडी में बैठी हुई हैं. परसा से जेडीयू उम्मीदवार चंद्रिका राय के खिलाफ आरजेडी ने लोक जनशक्ति पार्टी छोड़ कर आये छोटेलाल राय को टिकट दिया है. आरजेडी के टिकट पर 1990 से जीतते आ रहे चंद्रिका राय को 2010 में छोटेलाल ने शिकस्त दे डाली थी - बाकी चुनावों में वो हारते रहे हैं.

ऐसे कई मौके आये जब नीतीश कुमार के महागठबंधन में लौटने की भी चर्चाएं चलीं. खासकर तब जब प्रशांत किशोर को नीतीश कुमार ने जेडीयू से निकाला नहीं था. कई बार आरजेडी के कुछ नेताओं की तरफ से भी बयानबाजी हुई कि नीतीश कुमार मन बनायें तो महागठबंधन में दोबारा स्वागत है. वैसे तो बीजेपी ने बिहार चुनाव में अपनी तरफ से पूरा इंतजाम कर रखा है कि उसको नजरअंदाज करके किसी भी राजनीतिक दल के लिए नया गठबंधन खड़ा करना संभव न हो सके लेकिन असली फैसला तो अब जनता की अदालत में होना है - क्या मालूम नतीजों बाद सारी रणनीतियां धरी की धरी रह जायें.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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