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Updated: 14 नवम्बर, 2021 05:06 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) ने एडवोकेट जनरल एपीएस देओल को हटवाने और डीजीपी इकबालप्रीत सिंह सहोता को हटाये जाने के इंतजार के बीच मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी (Charanjit Singh Channi) को एक और झटका दिया है - सूबे के सरकारी विज्ञापनों में स्लोगन से मुख्यमंत्री का नाम हटाकर अब पंजाब सरकार कर दिया गया है.

कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद विज्ञापनों में एक स्लोगन चल रहा था - 'घर-घर विच चल्ली गल, मुख्यमंत्री चन्नी करदा मसले हल'. ये शहरों में लगे होर्डिंग के साथ साथ ऑनलाइन सरकारी प्रमोशन का भी हिस्सा रहा जो हर जगह बदल दिया गया है.

विज्ञापन की ये लाइन भी, दरअसल, वर्चस्व की लड़ाई से ही पैदा हुई थी. जब पंजाब कांग्रेस के प्रधान नवजोत सिंह सिद्धू ने, इशारों में ही सही, कई बार कमजोर बताने की कोशिश की तो मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने स्लोगन के जरिये ही जबाव दे डाला था. स्लोगन के माध्यम से चरणजीत सिंह चन्नी ने ये जताने की कोशिश की थी कि वो बेअदबी, ड्रग्स और ऐसे दूसरे मामलों को ऐसे सुलझाएंगे कि घर घर सिर्फ उनकी ही चर्चा होने लगेगी. भला सिद्धू ये सब कैसे बर्दाश्त करते, बाकी बातों की तरह इस पर भी ऐतराज जताया और इस मामले में भी चरणजीत सिंह चन्नी को पीछे हटना पड़ा.

सवाल ये उठता है कि कांग्रेस नेतृत्व (Congress Leadership) आखिर सिद्धू को लेकर किस बात से डरा हुआ है, जो उनकी मांग पूरी करने में मजबूर नजर आ रहा है? लग तो ऐसा रहा है जैसे सिद्धू ने मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी रबर स्टांप बना रखा हो - और कांग्रेस नेतृत्व ने भी हर तरह की मनमानी की छूट दे रखी हो.

कांग्रेस छोड़ देने की कितनी आशंका है?

कैप्टन अमरिंदर सिंह की व्यक्तिगत रेटिंग भले ही पहले जैसी नहीं रह गयी हो, लेकिन उनके अलग राह चुन लेने से कांग्रेस पर असर जरूर पड़ा है. सी-वोटर के सर्वे में शामिल 52 फीसदी लोग मानते हैं कि कांग्रेस को आने वाले चुनाव में कैप्टन अमरिंदर सिंह के न होने का नुकसान उठाना पड़ेगा, हालांकि, 48 फीसदी ऐसे भी हैं जो मानते हैं कि कोई असर नहीं पड़ने वाला.

सर्वे रिपोर्ट के हिसाब से देखें तो कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने का कांग्रेस नेतृत्व का फैसला सही लगता है. राहुल गांधी, सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के मिल कर लिये गये फैसले को सर्वे रिपोर्ट की एक और बात भी सही साबित करती है - क्योंकि अब सिर्फ 7 फीसदी लोग ही ऐसे हैं जो उनको मुख्यमंत्री के तौर पर पसंद करते हैं.

कैप्टन के मुकाबले चरणजीत सिंह चन्नी को सबसे ज्यादा 31 फीसदी लोग चुनाव बाद पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर देखना चाहते हैं - और 21 फीसदी ऐसे लोग भी हैं जो अरविंद केजरीवाल को ही पंजाब में भी सीएम बनने का इंतजार करते लगते हैं.

navjot singh sidhu, rahul gandhi, arvind kejriwalनवजोत सिंह सिद्धू को उस स्थित का अंदाजा भी है जब गांधी परिवार सख्त हो जाये और अरविंद केजरीवाल भी मुंह मोड़ लें?

कैप्टन की वजह से बीजेपी को फायदा मिलने की उम्मीद ज्यादातर लोगों को नहीं है. सर्वे में शामिल 65 फीसदी लोगों का मानना है कि कैप्टन की वजह से बीजेपी को कोई फायदा नहीं होने वाला है, जबकि 35 फीसदी लोगों को ऐसा बिलकुल नहीं लगता.

सिद्धू की हर मांग भले ही कांग्रेस नेतृत्व पूरी करते नजर आ रहा हो, लेकिन ये गलतफहमी भी नहीं होनी चाहिये कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की कुर्सी छिनने के पीछे भी वही रहे. असल बात तो ये है कि कैप्टन को गांधी परिवार पिछले पांच साल से झेल रहा था - जैसे ही मौका मिला फटाफट चलता कर दिया.

लेकिन ये बात तो सबको माननी ही पड़ेगी कि सिद्धू की जिद के आगे कांग्रेस नेतृत्व कदम कदम पर मजबूर नजर आता है. थोड़ा गौर करें तो इसके पीछे कई कारण मिल जाते हैं. सबसे बड़ी वजह तो कैप्टन को नापसंद किया जाना ही रहा, लेकिन उनकी बढ़ती उम्र पर भी कम उम्र के नवजोत सिंह सिद्धू भारी पड़े.

कांग्रेस में नयी लीडरशिप के तौर पर देखे जा रहे भाई-बहन को सिद्धू में यूथ आइकॉन की भी झलक मिलती है जो पंजाब के नौजवानों के साथ खुद और कांग्रेस पार्टी को जोड़ सके. अगर सिर्फ राहुल गांधी की बात करें तो सिद्धू का बीजेपी और मोदी सरकार का विरोध सबसे ज्यादा अच्छा लगता है.

तो क्या सिद्धू की हर बात मान लेने के बस ये ही कारण हो सकते हैं? हरगिज नहीं - दरअसल, कांग्रेस नेतृत्व को शुरू से ही लगने लगा था कि अगर सिद्धू को नहीं रोका गया तो वो अरविंद केजरीवाल के साथ जा मिलेंगे.

ऐसे कई मौके देखे गये हैं कि सिद्धू और केजरीवाल एक दूसरे के बयानों को ऐसे कॉम्प्लीमेंट करते हैं जैसे अंदर ही अंदर कोई नया खेल चल रहा हो. सिद्धू के आम आदमी पार्टी ज्वाइन कर लेने की पहले भी कई बार चर्चा चली है और उसके सूत्रधार चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर माने जाते रहे हैं.

क्या सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बना देने और कैप्टन को हटाने की मांग मान लेने के बाद भी उनके कांग्रेस छोड़ देने की नेतृत्व को आशंका बनी हुई होगी?

जिस तरीके से सिद्धू के पीसीसी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे देने के बाद उनकी नाराजगी दूर करने के लिए पंजाब के महाधिवक्ता एपीएस देओल को हटाया गया है और डीजीपी कतार में, इधर उधर जा कर कारण जानने की जरूरत तो नहीं ही लगती.

आखिर अब क्या वजह हो सकती है सिद्धू के कांग्रेस छोड़ कर चले जाने की?

सारी कवायद एक तरफ करके देखिये, इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी सिद्धू को अब तक वो तो नहीं ही मिला जिसके लिए वो हद से आगे बढ़ कर बवाल करते रहे - मुख्यमंत्री की कुर्सी पर तो चरणजीत सिंह चन्नी को बिठा दिया गया.

और जिस तरीके से पंजाब को पहला दलित सीएम देने का श्रेय लेते हुए चरणजीत सिंह को कमान सौंपी गयी, सिद्ध के सामने तो फिर से सारे रास्ते बंद हो गये लगते होंगे. अब अगर चन्नी के चेहरे के साथ कांग्रेस सत्ता में वापसी कर ले तो सिद्धू को मुख्यमंत्री बना पाने की स्थिति में गांधी परिवार भी नहीं होगा.

अब अगर नवजोत सिंह सिद्धू जान लड़ाकर राजनीति करने के बाद भी पंजाब के मुख्यमंत्री नहीं बन पाएंगे तो कांग्रेस में बने रहने का क्या फायदा?

अगर सिद्धू को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की यही राय बनी है, तो भी जरूरी नहीं है कि आखिर तक वो सिद्धू को पार्टी में रोक पायें - असल बात तो ये है कि हाथ में सत्ता की चाबी रहते अगर गांधी परिवार सिद्धू को मुख्यमंत्री नहीं बनाता तो दर्शानी घोड़ा बन कर तो रहने वाले हैं नहीं. ये बात भी वो खुद ही बता चुके हैं.

AAP में जाने का कितना स्कोप है?

पाकिस्तान और इमरान खान से दोस्ती को लेकर नवजोत सिंह सिद्धू ने ऐसी पॉलिटिकल लाइन ले ली है कि बीजेपी में जाने के तो सारे रास्ते बंद हो चुके लगते हैं - ऐसे में सवाल ये कि सिद्धू के आम आदमी पार्टी ज्वाइन करने का कितना स्कोप बचा है?

1. कैप्टन की तरह चन्नी पर भी हमलावर हैं: पंजाब की कांग्रेस सरकार को लेकर सिद्धू का रवैया अब भी नहीं बदला है. चन्नी की सरकार के साथ भी सिद्धू वैसे पेश आ रहे हैं जैसा व्यवहार उनका कैप्टन सरकार के दौरान देखने को मिलता रहा. जैसे सिद्धू कैप्टन सरकार के साढ़े चार साल के कामकाज पर सवाल उठाते रहे, ठीक वैसे ही सिद्धू चन्नी की 50 दिन की सरकार को लेकर भी खड़े कर रहे हैं - और ये सब तो कांग्रेस विरोधी किसी भी राजनीतिक दल के लिए फायदे का ही सौदा है.

2. डैमेज तो कांग्रेस को ही कर रहे हैं: अगर अरविंद केजरीवाल के हिसाब से सोचें तो अपनी ही सरकार पर सवाल उठाकर सिद्धू पंजाब में कांग्रेस को ही डैमेज कर रहे हैं - और ये आम आदमी पार्टी या कांग्रेस के किसी भी राजनीतिक विरोधी दल के लिए फायदे की ही बात होगी.

3. पंजाब के सम्मान की लगातार बात करते हैं: कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ भी सिद्धू आक्रामक हैं. आक्रामक भी इस हद तक कि 'ईंट से ईंट खड़काने' जैसी बातें करने लगते हैं - लेकिन ये सब वो पंजाब के लोगों के सम्मान के नाम पर करते हैं. ऑपरेशन ब्लू स्टार और 84 के सिख दंगों को लेकर कांग्रेस नेतृत्व वैसे भी बचाव की मुद्रा में रहता है, ये भी अरविंद केजरीवाल के लिए खुश होने का अच्चा बहाना हो सकता है और सिद्धू को चुनावों में साथ लेने पर विचार करने को कह सकता है.

अब एक बड़ा सवाल ये भी उठता है कि क्या इतने फायदेमंद लगने के बाद सिद्धू को अरविंद केजरीवाल पार्टी में लेने को तैयार हो पाएंगे?

1. राष्ट्रवाद के एजेंडे में मिसफिट हैं: जय श्रीराम बोलते हुए हिंदुत्व के एजेंडे के साथ जिस रास्ते पर अरविंद केजरीवाल अपनी राजनीति को बढ़ा रहे हैं, सिद्धू की छवि तो रास्ते का रोड़ा ही लगती है. इमरान खान से दोस्ती का शोर मचाने और पाकिस्तान जाकर वहां के आर्मी चीफ जनरल कमर जावेद बाजवा से गले मिलने की सिद्धू की जो तस्वीरें सामने आयीं लोगों में उनकी छवि देश के खिलाफ महसूस की जाने लगी.

अगर हिंदुत्व से आगे बीजेपी की तरह अरविंद केजरीवाल को भी राष्ट्रवाद के एजेंडे के साथ आगे की राजनीति करनी है तो उस खांचे में सिद्धू पूरी तरह मिसफिट हो जाते हैं - और सिद्धू के आम आदमी पार्टी के रास्ते मुख्यमंत्री बनने के अरमानों पर अपनेआप पानी फिर सकता है.

2. कन्हैया नहीं तो सिद्धू का सपोर्ट कैसे: ये अलग बात है कि सिद्धू के खिलाफ देशद्रोह जैसा कोई आपराधिक मुकदमा नहीं चल रहा है, लेकिन छवि के लिहाज से तो वो भी उसी मोड़ पर खड़े नजर आते हैं जहां कांग्रेस के ही नेता कन्हैया कुमार हैं - कांग्रेस को कोई फर्क नहीं पड़ता. कांग्रेस नेतृत्व सिद्धू को तो पाल पोस रहा ही था, अब तो कन्हैया कुमार को भी साथ ले लिया है - लेकिन क्या अरविंद केजरीवाल को ये सब मंजूर होगा?

बीजेपी के लाख शोर मचाने पर भी जब तक केजरीवाल की दिल्ली सरकार कन्हैया कुमार के खिलाफ अदालत को मुकदमा चलाने की मंजूरी नहीं दे रही थी, शुरुआती दौर में लोगों को जो भी समझ में आया हो, लेकिन आखिर में, चुनावी राजनीति के दबाव में ही सही, लेकिन दिल्ली सरकार की मंजूरी के साथ ही साफ हो गया कि कन्हैया कुमार को लेकर अरविंद केजरीवाल के मन में जो भी हो एक्शन तो कांग्रेस नेतृत्व की तरह जोखिम उठाने का नहीं ही है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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