New

होम -> सियासत

बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 21 नवम्बर, 2021 01:54 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
  • Total Shares

कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) यूपी दौरे पर निकले और महोबा पहुंच गये. सहज तौर पर सभी की अपेक्षा यही रही कि वो कृषि कानूनों की बात करेंगे और उनके भाषण में जोर किसानों के इर्द गिर्द ही घूमता दिखेगा, लेकिन बिलकुल ऐसा ही नहीं हुआ.

जब पूरे देश में कृषि कानूनों की वापसी पर चर्चा चल रही थी, महोबा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सभा में पहुंचे लोगों से तीन तलाक की बात करने लगे. ट्रिपल तलाक कानून 2019 के आम चुनाव में जीत के बाद सरकार बनते ही चुनावी वादे पूरे करने के क्रम में बनाया गया था और फिर से उसकी चर्चा करके प्रधानमंत्री मोदी नये सिरे से अलग मैसेज देने की कोशिश कर रहे थे.

दरअसल ये कुछ और नहीं बल्कि 'सबका साथ और सबका विकास' वाले नेता की गढ़ी गयी छवि पेश करने की कोशिश रही. वो नेता जो अब अपने स्लोगन में सबका विश्वास और सबका प्रयास भी जोड़ चुका है - और वही नेता किसानों के फायदे के लिए देश हित में फैसला ले सकता है.

बीजेपी नेताओं ने मोदी के संबोधन के बाद तो जैसे थैंकयू कैंपेन ही शुरू कर दिया. बीजेपी की तरफ से ये बताने की कोशिश है कि मोदी जैसा सक्षम और मजबूत नेता ही ऐसा कर सकता है जिसे देश की चिंता हो. देशहित में कदम पीछे खींचने में भी ऐसे नेता को कोई हिचक नहीं होती - दरअसल, ये कुछ और नहीं बस किसानों के नाम पर क्रेडिट लेने की सत्ता पक्ष और विपक्षी नेताओं के बीच मची होड़ है.

यूपी चुनाव में बीजेपी की तरफ से नारा लगाया जाने लगा है - 'एक बार फिर 300 पार'. 2017 में बीजेपी को 312 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई थी और एक बार फिर वही दोहराने की कोशिश है. उतनी ही नहीं तो 403 में से कम से कम 300 सीटें तो झोली में भरी ही जा सके - और योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) की सत्ता में वापसी सुनिश्चित की जा सके इसलिए सबसे मुश्किल टास्क अमित शाह (Amit Shah) ने अपने हाथ में लिया है.

मोदी के माफीनामे का कितना असर

सात साल में ये पहला मौका रहा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सीधे सीधे माफी मांगते देखा गया हो - और वो भी नेशनल टीवी पर राष्ट्र के नाम संबोधन के दौरान. कोरोना वायरस की दूसरी लहर के बाद देश भर में अस्पताल में बेड और जरूरी दवाओं से लेकर ऑक्सीजन तक के लिए मची अफरातफरी के बाद भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भावुक होते देखा गया था, जब वो अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी के फ्रंटवर्कर से बात कर रहे थे.

yogi adityanath, narendra modi, amit shahमोदी के बाद योगी के लिए शाह ने सबसे मुश्किल टास्क अपने हाथ में लिया है

वो मंजर भी भारी तबाही का था. और वो मोदी के अफसोस के इजहार का ही एक तरीका रहा, लेकिन जो बातें कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के वक्त मोदी की तरफ से कही गयीं उनमें बेबसी का भाव भरा हुआ था - लेकिन क्षमा मांग लेने या तपस्या में चूक बताने भर से क्या अचानक सब कुछ एकदम से बदल जाएगा, ऐसा भी तो नहीं लगता. हां, ये जरूर है कि बड़ा नुकसान जरूर टल गया है.

मोदी के हालिया ऐलान को जिसे मास्टर स्ट्रोक के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है, उसके बाद एक नयी होड़ शुरू हो गयी है - किसानों के नाम पर कानूनों की वापसी का क्रेडिट लेने की. जो होड़ शुरू हुई है उसमें बीजेपी और विपक्ष आमने सामने डट गया है.

ये चुनाव मैदान में कूदने से पहले का राजनीतिक संघर्ष है. जो ये संघर्ष जीतेगा, आगे भी उसकी राह आसान होगी. ये भी तय है. ये भी देखना होगा कि क्या मोदी के माफी मांग लेने से लोग माफ कर भी देते हैं या नहीं? मोदी के साथ प्लस प्वाइंट ये है कि लोकप्रियता के मामले में वो देश भर के सभी नेताओं से काफी आगे निकल चुके हैं. यहां तक कि बीजेपी में भी कोई नेता लोकप्रियता के मामले में उनके आस पास नजर नहीं आता. मूड ऑफ द नेशन के सर्वे में तो अमित शाह और योगी आदित्यनाथ भी काफी पीछे देखे गये, ममता बनर्जी और राहुल गांधी की तो बात ही और है.

1. पश्चिम यूपी में पंजाब जैसा हाल: मोदी सरकार का ताजा फैसला पंजाब में बीजेपी के लिए ज्यादा कारगर लगता है, बनिस्बत यूपी के मुकाबले - और उत्तर प्रदेश में भी पश्चिम यूपी में बीजेपी के लिए अभी मुश्किलें खत्म नहीं हुई हैं. निश्चित तौर पर यही वजह होगी कि जब यूपी को छह हिस्सों में बांट कर तीन-तीन जोन के प्रभारी बनाये गये तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सबसे मुश्किल टास्क पश्चिम यूपी की कमान अपने हाथ में रखी.

पश्चिम यूपी में भी बीजेपी नेताओं के सामने पंजाब जैसी ही चुनौती खड़ी हो गयी थी. कृषि कानूनों को लेकर लोगों की नाराजगी ऐसी भारी पड़ रही थी कि बीजेपी नेताओं का गांवों में घुसना मुहाल हो गया था. और ये कोई छोटे मोटे नेता नहीं थे - संजीव बालियान, सुरेश राणा और उमेश मलिक को भी किसान आंदोलन के बीच लोगों के जबरदस्त विरोध का सामना करना पड़ा है.

ऐसा भी नहीं कि मोदी के माफी मांगते हुए कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ ही सब कुछ पूरी तरह बदल गया हो. मीडिया से बातचीत में लोग बीजेपी नेताओं को लेकर शिकायती लहजे में कहते हैं, 'बीजेपी को इस क्षेत्र की समझ नहीं है... व्यक्तिगत गरिमा हर बात से ऊपर होती है... वो कैसे अपने लोगों को चेहरा दिखाएंगे?'

अंग्रेजी अखबार द हिंदू से बातचीत में एक बीजेपी विधायक तो प्रधानमंत्री मोदी से भी आगे बढ़ कर बेबसी जता रहे हैं, 'प्रधानमंत्री ने बताया कि कानून अच्छे हैं लेकिन हम किसानों क नहीं समझा सके,' लेकिन साथ ही ये भी पूछते हैं कि ये सब कैसे समझाया जा सकता है. मतलब ये कि ये सब समझाना कितना मुश्किल है. सही भी है - जो बीजेपी नेता कल तक कृषि कानूनों की फायदे गिनाते नहीं थक रहे थे वे अब लोगों को क्या बताएंगे कि वे जो कह रहे थे लोग सब भूल जायें.

2. मलिक का बयान किसानों के मन की बात: किसान आंदोलन और कृषि कानूनों को लेकर बीजेपी के भीतर से भी खुलेआम नसीहत देने की कोशिश देखी गयी. सत्यपाल मलिक और वरुण गांधी के तात्कालिक या भविष्य के इरादे जो भी हों, लेकिन उनके बयान भी भी कांग्रेस के G-23 नेताओं की तरह पार्टी हित में ही लगते हैं. जैसे गुलाम नबी आजाद और कपिल सिब्बल या उनके चिट्ठी लिखने से पहले संदीप दीक्षित जैसे नेता कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग करते रहे हैं - और शशि थरूर जैसे कई नेता सामने आकर कहते हैं कि जो मुद्दे उठाये जा रहे हैं वे कार्यकर्ताओं के मन की ही बात है.

सत्यपाल मलिक को लेकर कई बीजेपी नेता जो अपना नाम जाहिर करना नहीं चाहते, वे भी मानते हैं कि संवैधानिक पद पर होते हुए वो अनुशासन का कतई उल्लंघन नहीं करते, चूंकि वो अपनी बिरादरी के लोगों को अच्छी तरह जानते हैं, लिहाजा मलिक ने लोगों की भावनाएं ही सामने लाने का जोखिम उठाया है. कृषि कानूनों को लेकर मोदी सरकार के बैकफुट पर जाने के बाद तो ये चीज साबित भी हो चुकी है, सत्यपाल मलिक सत्य वचन ही बोल रहे थे.

सबसे मुश्किल मोर्चे की जिम्मेदारी अमित शाह पर

बीजेपी की फूल प्रूफ चुनावी मुहिम के लिए पूरे यूपी को छह जोन में बांटा गया है - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद बीजेपी के तीन सबसे सीनियर नेताओं ने कमान संभाली है. ध्यान देने वाली बात ये है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने सबसे मुश्किल टास्क अपने जिम्मे रखा है.

जल्दी ही ये नेता बूथ कॉनक्लेव करने जा रहे हैं. अमित शाह के पास जहां ब्रज और पश्चिम क्षेत्र की जिम्मेदारी आयी है, वहीं बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के जिम्मे कानपुर और गोरखपुर क्षेत्र है. इसी तरह रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह अवध और काशी क्षेत्र की जिम्मेदारी संभाल रहे है. देखा जाये तो जेपी नड्डा के हिस्से में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का इलाका है तो राजनाथ सिंह के पास प्रधानमंत्री मोदी का संसदीय क्षेत्र - और अमित शाह के पास वो इलाका जहां कृषि कानूनों की वापसी से पहले तक बीजेपी नेताओं का गांवों में घुसना तक मुहाल हो चुका था.

अमित शाह के जिम्मे मिले ब्रज-पश्चिम जोन को भी छह डिवीजन में बांटा गया है - और हर डिविजन में तीन जिले शामिल किये गये हैं. बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में इलाके की 135 में से 115 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल की थी, जबकि 2019 के आम चुनाव में 27 में से 24 लोक सभा सीटों पर.

एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, 2022 के विधानसभा चुनाव के दौरान पश्चिम यूपी के मौजूदा जाट विधायकों के टिकट काट दिया जाना करीब करीब पक्का है. पक्का इसलिए भी है क्योंकि अमित शाह ने पश्चिम यूपी की कमान भी खुद संभाल रखी है और सत्ता विरोधी लहर की काट में उनका ये पुराना आजमाया हुआ और बेहद कारगर नुस्खा रहा है. वैसे भी पूरे उत्तर प्रदेश में 100-150 यानी आधे विधायकों के टिकट काटे जाने की बातें पहले से ही चर्चा में हैं.

इन्हें भी पढ़ें :

कृषि कानून निरस्त होने से चुनावी राज्यों में बदलेंगे सियासी समीकरण

Farm Laws withdrawn: चुनावों से पहले ये तो मोदी सरकार का सरेंडर ही है

कृषि कानून वापस लेकर पीएम नरेंद्र मोदी ने बड़ी गलती की है

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय