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Updated: 19 नवम्बर, 2021 07:24 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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गुरु पर्व की सुबह पीएमओ कार्यालय से एक ट्वीट हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) सुबह 9 बजे 'राष्ट्र के नाम संदेश' देंगे. अलसाई आंखों में इस ट्वीट का कोई खास असर नजर नहीं आया. लेकिन, जब पीएम नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश देना शुरू किया, तो किसानों का जिक्र आते ही स्पष्ट हो गया था कि कृषि कानूनों (Farm Laws) को लेकर कोई बड़ा फैसला किया जाने वाला है. अपने संबोधन में जैसे ही पीएम मोदी ने कृषि कानूनों को लेकर 'थे' शब्द का इस्तेमाल किया, उसी समय लगा कि कृषि कानून को जिस तरह 'अतीत' की तरह प्रधानमंत्री मोदी संबोधित कर रहे हैं, वो जल्‍द ही विलुप्त होने वाला है. और, आखिरकार नरेंद्र मोदी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में लोगों को चौंकाते हुए कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर दी. जिस तरह की ये घोषणा थी, उसी तरह की प्रतिक्रिया आने लगी. सालभर से दिल्ली की सीमा पर डेरा डाले बैठे किसानों के बीच जलेबियां बंटने लगीं. विपक्ष इसे प्रधानमंत्री के अहंकार का टूटना बताने लगा. किसान नेता कृषि कानून से सरककर MSP की बात करने लगे. लेकिन, देश के बड़े तबके ने प्रधानमंत्री की घोषणा पर बहुत सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी. 

Repeal Farm Laws Narendra Modiकिसान आंदोलन को लेकर अनिश्चितता अभी भी जस की तस बनी हुई है.

लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ऊपर एकतरफा फैसला

करीब डेढ़ साल पहले सारी संसदीय प्रक्रिया को पूरा करके कृषि कानूनों को पारित किया गया था. मोदी सरकार की ओर से दावा किया गया था कि कृषि क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों, कृषि वैज्ञानिकों समेत कई लोगों से बातचीत कर इन कृषि कानूनों को किसानों की स्थिति सुधारने के लिए लाया गया था. कृषि कानूनों के पास होने के बाद अधिकांश किसान संगठनों ने इसका स्वागत भी किया था. लेकिन, इन कृषि कानूनों के खिलाफ पंजाब से शुरू हुए किसान आंदोलन (Farmer Protest) के दिल्ली की सीमाओं पर पहुंचने के बाद स्थितियां बिगड़ने लगी थीं. धीरे-धीरे किसान आंदोलन का असर हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भी फैल गया. भाजपा के कई नेता भी किसान आंदोलन के प्रभावों को लेकर चितिंत नजर आ रहे थे. मणिपुर के गवर्नर सत्यपाल मलिक और भाजपा सांसद वरुण गांधी ने भाजपा सरकार (BJP) से लगातार मांग की कि वे किसानों के साथ बातचीत कर इस समस्या का कोई हल निकालें. क्योंकि, किसानों को यूं ही सड़क पर बैठने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता है. लेकिन, पीएम नरेंद्र मोदी ने किसान आंदोलन कर रहे किसान नेताओं से बातचीत करने की जगह अचानक ही कृषि कानूनों को निरस्त करने की घोषणा कर दी.

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने एक ऐसा बड़ा मौका हाथ से यूं ही जाने दिया, जो भाजपा के नेताओं और पार्टी के विचारों को स्थापित करने का मौका दे सकता था. किसान आंदोलन का अघोषित चेहरा बन चुके राकेश टिकैत (Rakesh Tikait) ने कुछ महीने पहले ही सत्यपाल मलिक को किसान प्रतिनिधिमंडल के साथ चल रही बातचीत में शामिल करने की मांग की थी. दरअसल, सत्यपाल मलिक किसान आंदोलन की शुरुआत से ही किसानों के समर्थन में बयान दे रहे थे. मलिक ने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से साफ कह दिया था कि आंदोलनकारी किसानों को ताकत के दम पर नहीं हटाया जा सकता है. सत्यपाल मलिक (Satya Pal Malik) और वरुण गांधी (Varun Gandhi) को किसानों के साथ बातचीत में आगे रखने का फायदा भाजपा को मिलना तय था. लेकिन, पीएम नरेंद्र मोदी जो भी फैसले लेते हैं, वो खुद ही लेते हैं और अचानक ही लेते हैं. तो, वही हुआ, जो मोदी ने चाहा और कृषि कानूनों को निरस्त कर दिया गया. बिना ये जाने और समझे हुए कि नरेंद्र मोदी के इस कदम से लोगों के बीच केवल यही संदेश गया है कि चुनाव में नुकसान के डर से सरकार किसानों के आगे झुक गई. इस फैसले में किसानों का हित शामिल होने जैसी बात कहीं से भी दिखाई नहीं पड़ रही है.

आंदोलन खत्म नहीं होने वाला, 2024 तक चलेगा?

कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के साथ पीएम नरेंद्र मोदी ने किसानों से आंदोलन खत्म करने की अपील की थी. लेकिन, किसान आंदोलन को लेकर अनिश्चितता अभी भी जस की तस बनी हुई है. क्योंकि, किसान आंदोलन का चेहरा रहे राकेश टिकैत ने साफ कर दिया है कि 'किसानों को मोदी पर भरोसा नहीं है. जब तक संसद से कृषि कानून को रद्द नहीं किया जाएगा. आंदोलन चलता रहेगा.' इतना ही नहीं, दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसान नेताओं ने अब न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी और अन्य कृषि सुधारों की मांग को लेकर मोदी सरकार को घेरना शुरू कर दिया है. कृषि कानूनों को बिना बातचीत के वापस लेकर मोदी सरकार ने किसानों को रास्ता दिखा दिया है कि अगर वो आगे भी आंदोलन करना जारी रखते हैं, तो न केवल एमएसपी, बल्कि मृतक किसानों को मुआवजा देने, किसानों पर चलाए जा रहे मुकदमों को वापस लेने समेत पराली जलाने पर होने वाली सजा व जुर्माना खत्म करने जैसी मांगों को भी मान लिया जाएगा. 

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि किसान आंदोलन को पूरी तरह से राजनीतिक सहयोग मिल रहा था. कांग्रेस, सपा, आरएलडी समेत विपक्ष के सभी सियासी दलों के नेता किसानों के समर्थन में भरपूर माहौल बनाने में जुट गए थे. 26 जनवरी को दिल्ली में फैली अराजकता से लेकर सिंघु बॉर्डर पर हुई दलित युवक की हत्या तक के मामलों में विपक्ष की ओर से राजनीति करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी गई. किसान आंदोलन में केवल किसानों के होने की बात मान लेना 'जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं' जैसी मूर्खता की पराकाष्ठा कही जा सकती है. एक तरह से लोगों में ये संदेश जा रहा है कि मोदी सरकार अराजकता के सामने झुक सकती है. किसान आंदोलन में जुटे किसान भी किसी न किसी राजनीतिक दल से जुड़ाव रखते ही होंगे. कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद टीवी चैनलों पर दिल्ली की सीमाओं पर जटे किसानों को कहते सुना जा सकता है कि वो 2024 तक आंदोलन करेंगे. क्योंकि, सरकार ने केवल कृषि कानून वापस लिए हैं, अभी एमएसपी पर कानून जैसे कई कृषि सुधारों पर सरकार को बातचीत के लिए झुकाने के लिए आगे की रणनीति बनाई जा रही है. आसान शब्दों में कहा जाए, तो मोदी सरकार के लिए ये फैसला गलती ही नजर आ रहा है.

'कुछ' किसानों के चक्कर में क्या छोटे किसानों की फिक्र खत्म हो गई?

नरेंद्र मोदी ने अपने संबोधन में कहा था कि 'हमारी सरकार, किसानों के कल्याण के लिए, खासकर छोटे किसानों के कल्याण के लिए, देश के कृषि जगत के हित में, देश के हित में, गांव-गरीब के उज्जवल भविष्य के लिए, पूरी सत्य निष्ठा से, किसानों के प्रति समर्पण भाव से, नेक नीयत से ये कानून लेकर आई थी. लेकिन, इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से शुद्ध, किसानों के हित की बात, हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाए.' पीएम मोदी के कृषि कानूनों की वापसी के फैसले पर सबसे बड़ा सवाल यही खड़ा हो जाता है कि जब सरकार 'कुछ' किसानों को समझाने में सफल नहीं हो सकी, तो इसकी वजह से देश के अधिकांश किसानों के हितों वाले कृषि कानूनों की वापसी का फैसला क्यों लिया गया? आखिर किस वजह से मोदी सरकार ने किसान हित को किनारे रखते हुए ये फैसला लिया, इसका जवाब शायद ही भाजपा के पास होगा. मोदी सरकार के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट की ओर से कृषि कानूनों पर नियुक्त किए गए पैनल की ओर से भी गलत फैसला करार दिया गया है. 

इस पैनल के सदस्य अनिल घनवट ने पीटीआई से बातचीत में पीएम मोदी के कृषि कानूनों की वापसी के फैसले को एक प्रतिगामी कदम बताया है. अनिल घनवट ने मोदी के इस फैसले पर कहा कि उन्होंने किसानों की बेहतरी के बजाय राजनीति को चुना. इस पूरे मामले पर अनिल घनवट का कहना रहा कि तीनों कृषि कानूनों का गहन अध्ययन और दोनों पक्षों से बातचीत करके पैनल ने कई सुधार और समाधान सौंपे थे. लेकिन, मोदी सरकार ने गतिरोध को खत्म कर उन समाधानों का इस्तेमाल करने की जगह सीधे कानून वापसी का रास्ता चुना लिया. घनवट ने कहा कि ये फैसला खेती और उसके विपणन क्षेत्र में हर तरह के सुधारों के लिए दरवाजा बंद करने वाला है. वैसे, एक बात तो तय है कि जिस तरह से ये फैसला लिया गया है, उसके चलते भाजपा को किसी तरह का राजनीतिक लाभ मिलने की संभावना नजर नहीं आ रही है. लेकिन, इसके फैसले के दूरगामी परिणाम जरूर देखने को मिल सकते हैं. क्योंकि, अब धारा 370, तीन तलाक, सीएए को लेकर बनाए गए कानूनों को भी खत्म करने के लिए फिर से व्यापक विरोध-प्रदर्शन शुरू होने का अंदेशा बढ़ गया है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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