New

होम -> सियासत

 |  4-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 23 जुलाई, 2017 05:25 PM
आईचौक
आईचौक
  @iChowk
  • Total Shares

अर्श से फर्श पर पहुंच चुकीं मायावती के लिए मौजूदा राजनीतिक माहौल खासा उपजाऊ है. पहली बात तो सही मौका देख कर उन्होंने राज्य सभा से इस्तीफा दिया है. इस्तीफे पर तकनीकी सवाल उठने के बाद भूल सुधार के साथ दोबारा भेज कर संदेश दिया कि वो गंभीर हैं - और उनके इस्तीफे को कोई सियासी नौटंकी समझने की भूल न करे. दूसरी बात, मायावती को बीजेपी के खिलाफ विपक्ष का पूरा साथ मिल रहा है और तीसरी बात, आंकड़ों के हिसाब से यूपी में अपराध का ग्राफ बढ़ा हुआ है. हालांकि, योगी सरकार का दावा है कि यूपी में जुर्म कम है.

ताकि तारीख याद रहे

मायावती ने 18 जुलाई को राज्य सभा में बोलने न देने का आरोप लगाया और इस्तीफा दे दिया. दो दिन बाद यूपी के दोनों सदनों में खूब हंगामा हुआ. विपक्ष का आरोप है कि सरकार उन्हें धमका रही है. विपक्ष सबसे ज्यादा खफा इस बात से है कि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष राम गोविंद चौधरी का माइक ही बंद कर दिया गया.

mayawatiमौका भी है और...

मायावती चाहती हैं कि हर कोई उनके इस्तीफे की तारीख जरूर याद रखे. इसलिए मायावती ने सितंबर से हर महीने की 18 तारीख को यूपी में मंडलीय स्तर पर रैली करने का ऐलान किया है. अब 18 जून 2018 तक ये सिलसिला चलता रहेगा. मायावती इसकी शुरुआत मेरठ और सहारनपुर से करने जा रही हैं. पिछले चुनाव में भी मायावती का ज्यादा जोर मेरठ और सहारनपुर पर ही देखने को मिला. मायावती को अपने दलित और मुस्लिम गठजोड़ से बहुत उम्मीदें थीं लेकिन बात नहीं बनी. मायावती ने इस इलाके की जिम्मेदारी नसीमुद्दीन सिद्दीकी पर सौंपी थी और बाद में उन्हें पार्टी से निकाल दिया. निकाले जाने के बाद सिद्दीकी ने मायावती पर कई गंभीर आरोप लगाये थे. फिलहाल नसीमुद्दीन बीएसपी के कई पुराने नेताओं को साथ लेकर मायावती को चुनौती देने में जुटे हैं. अपना नया मिशन मेरठ और सहारनपुर से मायावती के शुरू करने की भी यही वजह हो सकती है.

मौका तो माकूल है

जो जीता वो सिकंदर वरना लगातार हार किसी को भी नेस्तनाबूद कर देती है. मायावती के साथ भी पिछले पांच साल में ऐसा ही हुआ है. उनकी राजनीति खत्म सी दिखने लगी है.

मुश्किल वक्त में बंद पड़ा दूसरा दरवाजा भी किस्मत से खुल जाता है. या फिर वक्त ऐसा कर देता है कि जिद छोड़ कर दूसरा दरवाजा खोलने को मजबूर होना पड़े. मायावती के केस में जो भी थ्योरी लागू हो, असल बात तो यही है कि मायावती के पक्ष में माहौल बनने लगा है.

एक तरफ खबर आई है कि मायावती विपक्ष की संयुक्त उम्मीदवार के तौर पर यूपी की फूलपुर सीट से चुनाव लड़ सकती हैं, दूसरी तरफ कानून व्यवस्था को लेकर योगी सरकार घिरी हुई है. योगी आदित्यनाथ के कुर्सी संभालने के कुछ ही दिनों बाद बनारस और मथुरा में लूट और अपराध की अन्य घटनाएं अच्छा संकेत तो कहीं से भी नहीं रहीं.

फिर विधानसभा में एक सवाल के जवाब में संसदीय कार्य मंत्री सुरेश खन्ना ने बताया कि सरकार के गठन से लेकर 9 मई तक यूपी में कुल 729 हत्याएं, 803 बलात्कार, 60 डकैती, 799 लूट और 2682 अपहरण की घटनाएं दर्ज की गयी हैं. ये आंकड़े देखने के बाद तो यूपी में कानून व्यवस्था की स्थिति पर कुछ और कहने की जरूरत नहीं है.

मायावती अपने शासन की सबसे बड़ी खूबी कानून व्यवस्था को ही बताती रही हैं. जाहिर है रैलियों में योगी सरकार पर हमले के लिए वो इन्हीं आंकड़ों को आधार बनाएंगी.

लेकिन मायावती को समझना होगा कि सिर्फ बीजेपी और योगी सरकार पर हमले बोल कर कुछ भी हासिल नहीं होने वाला. ऐसे हमले तो वो पूरे चुनाव के दौरान करती रहीं लेकिन हासिल क्या हुआ? वो लोगों को दलितों को समझाती रहीं कि बीएसपी के अलावा किसी और दल को वोट देने से उनका भला नहीं होने वाला. मगर किसी ने उनकी बात सुनी क्या? मायावती मुस्लिम मतदाताओं को समझाती रहीं कि वो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस गठबंधन को सपोर्ट कर अपना वोट बर्बाद न करें. किसी ने उनकी बात नहीं सुनी.

मायावती को खुद समझना होगा कि जिस दलित समुदाय के बूते वो अब तक राजनीति करती आई हैं वो काफी जागरुक हो चुका है. अब उसे सिर्फ इस बात से संतोष नहीं है कि दलित की बेटी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठी है - अब उसे भी बैठने की सम्मानजनक जगह चाहिये. अब दलित समाज महज इस बात से संतोष कर नहीं बैठ सकता कि उसकी बेटी हेलीकॉप्टर से उड़ रही है - अब उसके भी सपने हैं और उनके साथ वो उड़ना चाहता है.

सहारनपुर में भीम आर्मी का उभार मायावती के सामने सबसे बड़ी नजीर है. मायावती को समझना होगा कि उन्हें बीजेपी की बढ़ती ताकत से ही नहीं, भीम आर्मी जैसी चुनौतियों से भी जूझना है - और विपक्ष के एहसानों के बदले सत्ता में हिस्सेदारी के लिए भी तैयार रहना है.

इन्हें भी पढ़ें :

एक ओर कुआं है, दूसरी तरफ खाई - मायावती को विपक्षी मदद की कीमत तो चुकानी होगी

मायावती क्‍या संसद छोड़ सड़क की राजनीति करने लायक बची भी हैं ?

आज कांशीराम नहीं हैं, जो बहनजी को 'बचपने' पर टोक दें!

लेखक

आईचौक आईचौक @ichowk

इंडिया टुडे ग्रुप का ऑनलाइन ओपिनियन प्लेटफॉर्म.

iChowk का खास कंटेंट पाने के लिए फेसबुक पर लाइक करें.

आपकी राय