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Updated: 25 सितम्बर, 2019 07:58 PM
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भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए कई मौकों पर एक साथ चुनाव में सफल रही है, लेकिन जब बात झारखंड चुनाव को महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ कराने की आती है, तो परिस्थितियां कुछ बदल सी जाती हैं. शायद यही वजह है कि इस बार भाजपा ने महाराष्ट्र और हरियाणा के साथ झारखंड का चुनाव नहीं करने का सोचा है. इस बात का भी को जवाब नहीं मिल पा रहा है कि आखिर क्यों झारखंड के मुख्यमंत्री रघुबर दास ने विधानसभा को तय समय से एक महीने पहले भंग करने का प्रस्ताव नहीं दिया. आपको बता दें कि संविधान के मुताबिक एक बहुमत से चुनी हुई सरकार 6 महीने पहले भी चुनाव करवा सकती है. यहां तक कि इस पर खुद अमित शाह ने भी चुप्पी साधी हुई है.

यहां ये जानना अहम है कि झारखंड में चुनाव इसलिए नहीं कराए जा रहे हैं, क्योंकि वहां पर राजनीतिक स्थिति उतनी अच्छी नहीं है, जितनी हरियाणा और महाराष्ट्र में है. झारखंड में अभी भी कांग्रेस, झारखंड मुक्ति मोर्चा, झारखंड विकास मोर्चा, आरजेडी और लेफ्ट पार्टियों के बीच गठबंधन की बात चल रही है. हालांकि, झारखंड मुक्ति मोर्चा और झारखंड विकास मोर्चा के साथ कांग्रेस का गठबंधन 2019 के लोकसभा चुनावों में फायदेमंद नहीं रहा और राज्य की 14 में से 12 सीटें भाजपा के खाते में गईं.

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क्या कहता है ओपिनयन पोल?

एबीपी न्यूज-सी वोटर के ओपिनियन पोल के मुताबिक हरियाणा और महाराष्ट्र में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का फिर से आना तय है. यानी एक बार फिर कुर्सी पर मनोहर लाल खट्टर और देवेंद्र फडणवीस ही बैठेंगे. सर्वे के अनुसार हरियाणा में भाजपा को 78 सीटें मिल सकती हैं, जबकि कांग्रेस मुश्किल से राज्य की 90 में से महज 8 सीटें जीत पाएगी. वहीं दूसरी ओर अगर महाराष्ट्र की बात करें तो भाजपा-शिवसेना का गठबंधन राज्य को 288 सीटों में से 205 सीटें जीतने का अनुमान लगाया जा रहा है.

इस सर्वे के अनुसार तो हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस को कुछ भी खास मिलता नहीं दिख रहा है. उल्टा कांग्रेस पार्टी भाजपा-विरोधी पार्टियों से भी गठबंधन की कोई कोशिश करती नजर नहीं आ रही है. बल्कि, 2019 के लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के फेल होने ने पूरे विपक्ष पर ही हतोत्साहित करने वाला असर डाला है. यहां तक कि संसद में भी ट्रिपल तलाक या अन्य किसी भी मुद्दे पर विपक्षी एकता नहीं दिखी. तृणमूल कांग्रेस अकेली ही विरोध करती नजर आई और आलोचना का शिकार भी हुई.

बसपा की महाराष्ट्र और हरियाणा में मौजूदगी है, लेकिन वह आने वाले विधानसभा चुनावों में अकेले ही चुनाव लड़ने की योजना बना रही है. बसपा सुप्रीमो मायावती इन राज्यों में दलितों का समर्थन पाने की योजना बना रही हैं. ये कांग्रेस के लिए किसी बुरी खबर से कम नहीं है, जिसने हरियाणा में दलित सेल्जा को पीसीसी का प्रमुख बनाया है. भूपिंदर सिंह हुडा को पार्टी से जाने से रोककर कांग्रेस ने पार्टी को दो फाड़ होने से तो बचा लिया, लेकिन ये सबसे पुरानी पार्टी आज राज्य में 30 सीटों के लिए भी संघर्ष करती दिख रही है.

महाराष्ट्र में क्या है स्थिति?

यहां तक कि महाराष्ट्र में भी कांग्रेस को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. वह चिंता में है कि इस बार चुनावी लड़ाई में मराठा वोट भी फायदेमंद साबित होंगे या नहीं. कांग्रेस और एनसीपी का गठबंधन सही रहा है. 1999 से अब तक कांग्रेस ने एनसीपी के साथ मिलकर 3 बार चुनावी सफलता हासिल की. 2014 के विधानसभआ चुनावों के दौरान एनसीपी ने चुनावी घोषणा से कुछ ही दिन पहले कांग्रेस के साथ गठबंधन को तोड़ दिया था. कांग्रेस और एनसीपी की इस लड़ाई ने सबसे बड़ा फायदा भाजपा का कराया और भाजपा की सहयोगी शिवसेना भी दूसरे नंबर पर चली गई. भाजपा ने राज्य की 288 सीटों में से 122 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि शिवसेना सिर्फ 62 ही जीत पाई. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस को 42 और एनसीपी को 41 सीटों से ही संतोष करना पड़ा.

कांग्रेस और एनसीपी दोनों से ही नेताओं का पार्टी छोड़कर जाना इन पार्टियों पर भारी पड़ रहा है. छत्रपति शिवाजी महाराज के वंशज वरिष्ठ एनसीपी नेता उदयनराजे भोंसले ने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया और भाजपा में शामिल हो गए. इसकी वजह से न सिर्फ एनसीपी, बल्कि कांग्रेस को भी तगड़ा झटका लगा. उर्मिला मातोंडकर एक नया चेहरा बनकर कांग्रेस में आईं, लेकिन उन्होंने भी लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस का हाथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कृपा शंकर सिंह ने भी पार्टी छोड़ दी, जिसने महाराष्ट्र में कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया. लगातार अब ये बातें हो रही हैं कि मिलिंद देवड़ा जैसे वरिष्ठ नेता कुछ ऐसा कर सकते हैं, जिसके बारे में किसी ने सोचा भी नहीं होगा.

एक नजर जातिगत समीकरण पर

अगर बात की जाए जातिगत समीकरण की तो कांग्रेस की मराठा वोटरों को अपनी ओर खींचने की कोशिशें कमजोर पड़ती सी दिख रही हैं. आपको बता दें कि कांग्रेस और एनसीपी की राजनीति में मराठा वोटरों की एक अहम भूमिका है. 2014 में पृथ्वीराज चवन की कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन वाली सरकार में एनसीपी का 70 फीसदी कोटा (17) और कांग्रेस का 60 फीसदी कोटा (15) मराठा मंत्रियों को दिया गया था. महाराष्ट्र में मराठा वोट शेयर करीब 24-28 फीसदी है, जबकि 8 फीसदी मुस्लिम, 3 फीसदी ब्राह्मण, 7 फीसदी अन्य अपर कास्ट, 10 फीसदी दलित और 45 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग हैं. दूसरे शब्दों में ये कहा जा सकता है कि जब कांग्रेस-एनसीपी के गठबंधन की सरकार थी तो 34 में से 23 मंत्रीपद तो सिर्फ मराठा समुदाय के नेताओं के पास थे.

2019 के लोकसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी और प्रकाश अंबेडकर की वंचित बहुजन अगड़ी पार्टी को काफी अच्छी संख्या में सीटें मिली थीं. लेकिन वंचित बहुजन अगड़ी पार्टी, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन और समाजवादी पार्टी के साथ कांग्रेस की बातचीत का अभी तक कोई नतीजा नहीं निकला है. अगर गठबंधन की बातचीत का कोई नतीजा निकल जाता है तो करीब 38 सीटें छोटी सहयोगी पार्टियों के हिस्से में जाएंगी.

वहीं दूसरी ओर, सोनिया गांधी के कांग्रेस पार्टी का अंतरिम अध्यक्ष बने करीब 45 दिन बीत चुके हैं. उन्हें उम्मीद है कि स्थितियां उनके कंट्रोल में हैं, लेकिन ऐसा कहना सही नहीं होगा. कांग्रेस ने दो प्रवक्ता नियुक्त किए थे- अंशुल मीरा कुमार और शर्मिष्ठा मुखर्जी. पार्टी ने टीवी चैनलों की डिबेट का बहिष्कार किया है, ऐसे में इस तरह की नियुक्ति का कोई मतलब नहीं. 24 अक्टूबर को चुनाव के नतीजे आने के बाद भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए को उम्मीद है कि वह दिवाली सेलिब्रेट करेंगे, वहीं कांग्रेस खुद को निराशा और अनिश्चितता के एक और दौर की ओर बढ़ती नजर आ रही है.

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