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Updated: 05 अक्टूबर, 2021 10:35 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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देश का हर व्यक्ति ही किसी न किसी बात पर गुस्सा है. और, अपना गुस्सा वो इस तरह निकालने लगा, तो लोकतंत्र को भीड़तंत्र का नाम स्वत: ही मिल जाएगा. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुआ किसान आंदोलन अब किसानों से ज्यादा देश के विपक्षी दलों और देशविरोधी तत्वों के हाथों में जा चुका है. क्योंकि, किसानों के तकरीबन हर कार्यक्रम में एक न एक ऐसी घटना सामने आ ही जाती है, जो इसे कलंकित करने के लिए काफी है. किसान आंदोलन में अब तक हत्या, बलात्कार जैसी घटनाएं तक घटित हो चुकी हैं. वैसे, राकेश टिकैत के अनुसार, भाजपा विधायक को नग्न करने वाले, पत्रकारों से बदतमीजी करने वाले, भाजपा नेताओं की गाड़ियों पर लाठी-डंडा बरसाने वाले और लोगों को पीट-पीटकर मार डालने वाले किसान नहीं हैं. बहुत सीधी सी बात है कि किसान अपना गुस्सा दिखाना चाहते हैं. लेकिन, गुस्सा दिखाने का जो तरीका वो चुनते जा रहे हैं, उसे पूर्णतय: गलत ही कहा जाएगा.

सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर ये लोग हैं कौन, जो किसान आंदोलन की आड़ में अपना एजेंडा पूरा करने में जुटे हैं? सवाल ये भी है कि राकेश टिकैत और संयुक्त किसान मोर्चा किसानों और उपद्रवियों में अंतर क्यों नहीं कर पा रहे हैं? तो, इस सवाल का जवाब है 'राजनीति'.

देश को अस्थिर करने वाली ताकतों और राजनीति के कॉकटेल ने ऐसे लोगों के सामने शाहीन बाग का स्थापित मॉडल रख दिया है. जो तमाम लोग शाहीन बाग में जनता से ये कहते दिखाई दे रहे थे कि सीएए के जरिये भाजपा देश के अल्पसंख्यक मुसलमानों की नागरिकता छीन लेगी. वहीं, लोग किसान आंदोलन में नजर आए हैं. जो लोग एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ ये प्रचार करने में जुट गए कि एससी-एसटी एक्ट को खत्म किया जा रहा है. वही लोग किसान आंदोलन में किसानों से कहते दिख रहे हैं कि उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं. आपको पता होना चाहिए कि सीएए के खिलाफ भड़के दिल्ली दंगों में 53 लोगों की जान गई थी. वहीं, उत्तर प्रदेश में 23 लोगों की मौत हुई थी. एससी-एसटी एक्ट में हुए बदलावों के विरोध में भड़की हिंसा में नौ लोग मारे गए थे. और किसान आंदोलन में भड़की हिंसा का आंकड़ा अभी 9 मौतों पर ही रुका हुआ है. अगर ऐसे ही राजनीति चलती रही, तो निश्चित तौर पर ये संख्या आगे बढ़ेगी ही. और, इन सभी घटनाओं में हुई मौतों की जिम्मेदार राजनीति ही होगी. क्योंकि, इन तमाम आंदोलनों को विपक्षी दलों ने दिल खोलकर समर्थन दिया है.

लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा संविधान और कानून की भाषा में जांच का विषय है.लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा संविधान और कानून की भाषा में जांच का विषय है.

लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा संविधान और कानून की भाषा में जांच का विषय है. लेकिन, भीड़तंत्र की भाषा में तो न्याय किया जा चुका है. प्रतिहिंसा में मारे गए लोगों की मौत का जिम्मेदार कौन कहलाएगा? लोकतांत्रिक देश में इस प्रतिहिंसा के लिए अजय मिश्रा टेनी के बेटे आशीष मिश्रा को दोषी नहीं ठहराया जाएगा. जरूरी था कि ऐसी घटना के बाद इन लोगों को पकड़कर पुलिस के हवाले किया जाता. जैसे किसानों को कुचलते हुए कार का वीडियो बनाया गया, उसी प्रकार वीडियो बनाकर अजय मिश्रा और आशीष मिश्रा के खिलाफ साक्ष्य जुटाए जा सकते थे. लेकिन, किसानों ने वो किया, जो इस देश को भीड़तंत्र बना रहा है. बीते कुछ सालों में बढ़ रही लिंचिंग की घटनाओं में दोनों ही पक्ष शामिल रहे हैं. लेकिन, एक पक्ष के ऊपर पूरा दोष मढ़कर कहीं न कहीं देश को भीड़तंत्र की ओर ढकेलने की कोशिश की जा रही है. जो सीधे तौर पर राजनीति से प्रेरित ही नजर आता है.

इसी साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस पर किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके राकेश टिकैत ने दिल्ली में ट्रैक्टर परेड निकालने की बात कही थी. संयुक्त किसान मोर्चा ने सारा कार्यक्रम शांतिपूर्ण तरीके से होने की बात कही थी. लेकिन, अचानक कुछ अराजक तत्वों (ये वही खालिस्तान समर्थकों, अलगाववादी, अर्बन नक्सल ग्रुप के लोग थे, जिन्हें पहले किसान आंदोलन में हाथोंहाथ लिया गया) ने बैरिकेड तोड़ने शुरू कर दिये. इस ट्रैक्टर परेड में भड़की हिंसा के बाद कथित किसानों ने दिल्ली की सड़कों से लेकर लाल किले तक जमकर उपद्रव किया था. इस हिंसा में 300 से ज्यादा दिल्ली पुलिस के कर्मी घायल हुए थे. इस घटना के बाद संयुक्त किसान मोर्चा ने इसे किसान आंदोलन के खिलाफ साजिश करार देते हुए इस उपद्रव से पल्ला झाड़ लिया था. कहना गलत नहीं होगा कि पूरी तरह से राजनीतिक हो चुके इस किसान आंदोलन को विपक्षी पार्टियों का भरपूर समर्थन मिल रहा था. बातचीत बंद होने पर राकेश टिकैत ने देशभर में घूम-घूमकर भाजपा के खिलाफ किसान पंचायत करना शुरू कर दिया. एक लोकतांत्रिक देश में ये सभी का अधिकार है. लेकिन, इस पर हो रही राजनीति ने किसान आंदोलन का चेहरा बिगाड़ दिया है.

इतिहास में ज्यादा पीछे जाएंगे, तो लोगों की मौतों संख्या बढ़ती ही जाएगी. 2019 में भाजपा के दोबारा केंद्र की सत्ता में आने के बाद देश के तमाम विपक्षी दलों को मोदी सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं मिल पा रहा है. राजनीति इन आंदोलनों के जरिये लोगों में डर भर रही है कि इस सरकार के हर फैसले पर ऐसी ही स्थिति बनती है और आम जनता मरती है. लेकिन, इन तमाम मौतों के पीछे राजनीति बहुत साफगोई से अपना चेहरा बचा ले जाती है. इस राजनीति ने लोगों को भीड़तंत्र में बदल दिया है. और, अगर आप ये सोच रहे हैं कि कृषि कानूनों को वापस ले लेने भर से सारी चीजें सुधर जाएंगी, तो यकीन मानिए आप एक ऐसे मुगालते में जी रहे हैं, जिसका अंत कभी नहीं होगा. क्योंकि, कृषि कानून तो मोदी सरकार ने पहले ही डेढ़ साल के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिए हैं. और, वो किसान संगठनों से कह रही है कि वार्ता के जरिये हल निकालिए.

लेकिन, राजनीति इसे मानने के लिए तैयार नही है. वो अपने राजनीतिक हितों को मद्देनजर रखते हुए मोदी सरकार का विरोध कर रहे हैं. वो चाहती है कि कृषि कानून वापस लिए जाएं. जिसके बाद सीएए कानून के खिलाफ स्थापित हो चुके शाहीन बाग मॉडल पर मुहर लग जाएगी. इसके बाद फिर से देशभर में शाहीन बाग बनाए जाएंगे और सैकड़ों लोगों की जान जाएगी. फिर किसी और मुद्दे पर यही शाहीन बाग का स्थापित मॉडल लाया जाएगा. ये क्रम 2024 तक चलता रहेगा. लेकिन, इन सबके पीछे की राजनीति लोगों को नजर नहीं आएगी.

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लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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