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Updated: 16 दिसम्बर, 2020 11:03 PM
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अभी तक तो संकेत ही समझे और समझाये जा रहे थे, लेकिन अब तो खुद अरविंद केजरीवाल (Arvind Kejriwal) की तरफ से ऐलान-ए-जंग भी हो चुका है - आम आदमी पार्टी 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव (UP Election 2022) लड़ने जा रही है. बिलकुल वैसी ही जैसे उत्तराखंड की 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान केजरीवाल के साथ मनीष सिसोदिया कर चुके हैं. बिलकुल वैसे ही जैसे AAP ने तीसरी बार दिल्ली में चुनाव लड़ा और 2017 में पंजाब और गोवा विधानसभाओं के चुनाव में हिस्सेदारी की थी.

गोवा ने ही लगता है इस बार अरविंद केजरीवाल का हौसला भी बढ़ाया है. जिला परिषद चुनाव में ही सही, गोवा में AAP का खाता खुला तो अपने बधाई संदेश में अरविंद केजरीवाल बोले - 'अभी तो यह शुरुआत है!' बेनालिम सीट पर आम आदमी पार्टी के हैंजल फर्नांडीज ने चुनाव जीत कर पार्टी को आगे बढ़ने का रास्ता सुझाया है. वरना, 2017 के विधानसभा चुनाव में तो खाता भी नहीं खुल सका था, जबकि अरविंद केजरीवाल पंजाब के साथ साथ गोवा में भी सरकार बनाने का ही दावा कर रहे थे.

पंजाब में विपक्ष का नेता बनने के अलावा आम आदमी पार्टी दिल्ली से बाहर कहीं भी खास प्रदर्शन नहीं कर पायी है. गुजरात और हरियाणा में भी चुनाव लड़ चुकी आप को एक जैसा ही फीडबैक मिला है.

अब तो मान कर चलना होगा कि अरविंद केजरीवाल 2022 में होने वाले गोवा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में जोर शोर से हिस्सा लेने जा रहे हैं - दिल्ली में भले ही आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस को 2013 के बाद से पनपने नहीं दिया हो और बीजेपी जैसी मौजूदा दौर की सबसे ताकतवर पार्टी को भी धूल चटाया हो, लेकिन दिल्ली से बाहर जितनी बार चुनाव लड़ने की कोशिश हुई है, अरविंद केजरीवाल की पार्टी को हर बार मुंह की ही खानी पड़ी है. फिर क्या वजह है कि अरविंद केजरीवाल बड़े पैमाने पर चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं? यूपी के मैदान में उतर रहे अरविंद केजरीवाल कहीं बीएसपी नेता मायावती की ही तरह तमाम चुनावों में हाजिरी लगाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं - जैसे मायावती (Mayawati) बीएसपी का जनाधार बचाये रखने के लिए चुनाव लड़ती है, केजरीवाल आप की पहुंच बढ़ाने के लिए ऐसा कर रहे हैं - मकसद जो भी हो अरविंद केजरीवाल और मायावती दोनों का हा प्रदर्शन करीब करीब मिलता जुलता ही रहा है. वैसे दोनों की चुनावी राजनीति की शैली में एक फर्क भी है, मायावती सिर्फ दलितों की राजनीति करते हैं और अरविंद केजरीवाल को पब्लिक वेलफेयर पर जोर रहता है.

यूपी में क्या करेंगे और पाएंगे केजरीवाल

अव्वल तो अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजे आने के साथ ही आप सांसद संजय सिंह को यूपी में किस्मत आजमाने की मंजूरी दे दी थी, लेकिन लॉकडाउन और कोरोनावायर के प्रकोप के चलते सब कुछ ठप ही पड़ गया.

दिल्ली अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद संजय सिंह ने लखनऊ पहुंचते ही यूपी की बीजेपी सरकार पर हमले शुरू कर दिये थे. केजरीवाल ने अपने सबसे भरोसेमंद साथी संजय सिंह को यूपी का प्रभारी बनाया है. 2017 में पंजाब के प्रभारी भी संजय सिंह ही थे. राजनीति में आने से पहले एनजीओ चलाने वाले सुल्तानपुर के संजय सिंह यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर ठाकुरवाद करने और ब्राह्मण विरोधी राजनीति करने का आरोप लगा चुके हैं. एक प्रेस कांफ्रेंस में ऐसे बयान देने के लिए संजय सिंह पर एफआईआर भी कराया गया है.

arvind kejriwalदिल्ली से बाहर विधानसभा चुनावोे में AAP को कुछ हाथ नहीं लगा है, यूपी से अरविंद केजरीवाल को किस बूते बड़ी उम्मीदें हैें?

यूपी चुनाव 2022 लड़ने की घोषणा करते हुए अरविंद केजरीवाल ने कहा, 'उत्तर प्रदेश के तमाम जिलों के लोगों को स्‍वास्‍थ्‍य, शिक्षा और अन्‍य मूलभू‍त सुविधाओं के लिए दिल्‍ली क्‍यों आना पड़ता है? आखिर वे इन सुविधाओं का लाभ अपने राज्‍य में क्‍यों नहीं उठा सकते?'

फिर पूछ भी लिया, 'अगर संगम विहार में मोहल्‍ला क्‍लीनिक हो सकती है तो गोमती नगर में भी ऐसा किया जा सकता है.'

और फिर एक आश्वासन के साथ दावा भी किया, 'मैं आपको आश्‍वासन देता हूं कि उत्तर प्रदेश की जनता बाकी सभी पार्टियों को भूल जाएगी.'

दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं या फिर मोहल्ला क्लिनिक का बाकी दिनों में जो भी हाल रहा हो, लेकिन कोरोना काल में बहुत बुरा हाल रहा है. इतना बुरा कि केंद्र सरकार को स्थिति संभालने के लिए आगे आना पड़ा है. थोड़ा बहुत सुधार भी तभी हुआ है जब केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह खुद मैदान में उतरे हैं - और ऐसा दो दो बार हुआ है.

दिल्ली दंगों के दौरान तो समझा जा सकता है, प्रशासनिक सीमाओं के चलते अरविंद केजरीवाल के हाथ बंधे हुए थे, लेकिन कोरोना पर काबू पाने के उनके सारे दावे फेल साबित हुए. ऐसा भी नहीं कि केजरीवाल ने कभी आशंका जतायी हो, हमेशा ही दावा करते रहे कि सारे इंतजाम हो चुके हैं. जितनी जरूरत पड़ सकती है उससे कहीं ज्यादा इंतजाम किये जा चुके हैं - लेकिन मौका आया तो हाथ खड़े कर दिये और केंद्र सरकार की शरण में पहुंच गये. कहने को तो यहां तक कह गये कि कोरोना के वक्त केंद्र सरकार ने जिस तरह से काम किया है, काफी कुछ सीखने को मिला है.

वही अरविंद केजरीवाल अब यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुकाबले की तैयारी कर रहे हैं. बाकी बातें अलग रख दें तो कोरोना के दौरान अरविंद केजरीवाल और योगी आदित्यनाथ एक ही मुद्दे पर दो विपरीत छोर पर नजर आये. अरविंद केजरीवाल के साथियों पर जहां बाहरी लोगों को लॉकडाउन के वक्त दिल्ली से निकल जाने के लिए उकसाने का आरोप लगा, वहीं योगी आदित्यनाथ ने जैसे ही ही देखा कि यूपी दिल्ली की सीमाओं पर लोग जमा होने लगे, रातोंरात उनके लिए बसें भिजवा दी थी.

लॉकडाउन के दूसरे और तीसरे चरण में तो ऐसा लगा जैसे अरविंद केजरीवाल मुख्यमंत्री नहीं बल्कि उप राज्यपाल की तरह केंद्र के प्रतिनिधि हों. जब भी कोई बात होती, कहते केंद्र सरकार की गाइडलाइन के अनुसार ही काम करेंगे. एक बार जब केंद्र ने राज्यों से गाइडलाइन तैयार करने से पहले सुझाव मांगे तो केजरीवाल सरकार ने लोगों से ऑनलाइन सलाह मांगी और केंद्र सरकार को भेज दिया. क्या ये सब करके अरविंद केजरीवाल यही साबित करना चाहते थे कि जो भी गड़बड़ी हो रही है वो केंद्र सरकार की वजह से है.

और, ठीक उसी वक्त यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सूबे के छात्रों को कोटा से और प्रवासी मजदूरों को जगह जगह से लाने के इंतजाम कर रहे थे. योगी आदित्यनाथ के काम से तो कई मुख्यमंत्री तक नाराज हो उठे. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो लोगों को लाने ले जाने के लिए राष्ट्रीय नीति की मांग करने लगे थे.

अरविंद केजरीवाल को अगर लगता है कि बीजेपी राम के भरोसे दिल्ली पहुंच गयी, तो वो हनुमान जी के भरोसे लखनऊ में भी खूंटा गाड़ कर बैठने में कामयाब रहेंगे तो अभी के हिसाब से तो वो हवाई किला ही बना रहे हैं.

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अगर अरविंद केजरीवाल को लगता है कि सब कुछ हनुमान जी के भरोसे हो जाएगा, तो वो अभी अंधेरे में ही हैं. रामायण काल में हनुमान जी का काम सीता को वापस लाने के साथ साथ लंका दहन और राम को विजय दिलाना रहा, तो कलियुग में उनका काम अयोध्या में राम मंदिर बनवाना था - और वो बन कर तैयार होने जा रहा है. बीजेपी ने आम चुनाव अयोध्या मुद्दा होल्ड भी कर लिया था.

अगर केजरीवाल दिल्ली के अक्षरधाम मंदिर में दिवाली मना कर योगी आदित्यनाथ के अयोध्या की दिवाली की बराबरी करना चाहते हैं तो कौन समझाये. मंदिर बन कर पूरा होने जा रहा है. अब राम मंदिर के नाम पर वोट नहीं मिल रहा है, बीजेपी से बेहतर इसे कौन समझ रहा होगा. वरना बीजेपी को महाराष्ट्र में झटका, हरियाणा में डांवा डोल स्थिति और झारखंड में सत्ता हाथ से नहीं फिसल पाती - और दिल्ली में तो वो कब की काबिज हो चुकी होती.

अरविंद केजरीवाल को मालूम होना चाहिये दिल्ली में हनुमान जी कमाल इसलिए दिखा देते हैं - क्योंकि वहां अलग तरीके की राजनीति चलती है, लेकिन यूपी पहुंच कर राजस्थान की तरह वो भी दलित राजनीति में फंस जाते हैं.

अगर भ्रष्टाचार नहीं है तो केजरीवाल की जरूरत कहां

पूर्वांचल के जिन लोगों ने दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को वोट दिया होगा उनसे अगर वो उम्मीद करते हैं कि उनके घर वाले यूपी में भी आम आदमी पार्टी को वोट देंगे तो वो बिलकुल भी सही नहीं सोच रहे हैं. दिल्ली और यूपी में वोट देने का आधार अलग अलग होता है. बेशक अरविंदर केजरीवाल भी जाति और धर्म की राजनीति में घुसपैठ की कोशिश में हैं, लेकिन वो उसके बहुत अंदर की स्थिति को बिलकुल भी नहीं समझ पा रहे हैं.

आशुतोष के आम आदमी पार्टी छोड़ देने के बाद एक मीडिया रिपोर्ट में आप के जातीय आधार पर वोट बटोरने की बात सामने आयी थी. बताते हैं कि 2014 के आम चुनाव में आशुतोष को तब बहुत बुरा लगा था जब लोक सभा चुनाव में उनसे अपना टाइटल हाइलाइट करने को कहा जा रहा था - ताकि वो अपनी जाति बतायें और लोग वोट करें. जो आशुतोष अपने नाम से जातिसूचक टाइटल हटा चुके हों, उनको वोट मांगने के लिए इस्तेमाल करने का दबाव कितना बुरा लगा होगा समझा जा सकता है. ये भी करीब करीब वैसे ही था जैसे गोरखपुर में नयी पीढ़ी के लोगों ने जाना का भोजपुरी स्टार रवि किशन दरअसल ब्राह्मण हैं - रवि किशन शुक्ला.

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने न तो ऐसा कोई करिश्मा दिखाया है और न ही गवर्नेंस का कोई विशेष मॉ़ल पेश किया है जो दूसरे राज्यों के लोगों को बेमिसाल लगे और अरविंद केजरीवाल की पार्टी का निशान ईवीएम में देखते ही वे बगैर ज्यादा सोचे समझें बटन दबा दें. दिल्ली के लोगों के लिए अरविंद केजरीवाल सरकार को लेकर 'समथिंग इज बेटर दैन नथिंग' वाला ही भाव है - बेशक बिजली पानी और बच्चों की फीस पर कंट्रोल बहुत बड़ी राहत है. लेकिन कोरोना काल में सभी परेशान रहे. मैसेज यही गया कि अमित शाह ने सब संभाल लिया वरना, केजरीवाल ने तो हाथ ही खड़े कर दिये थे. वैसे ही जैसे दंगों के वक्त, लेकिन हर काम दिल्ली पुलिस ही थोड़े करती है - जब तक तबलीगी जमात वाली राजनीति चली थी दिल्ली पुलिस भी डटी रही मोर्चे पर. याद तो होगा ही. अरविंद केजरीवाल भारतीय राजनीति में भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए आये थे - तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार रही और यूपीए 2 के दौरान 2जी से लेकर कोयला घोटाले तक तमाम आरोप लगे थे - जब अरविंद केजरीवाल ने राजनीतिक पारी शुरू की तो बड़ी उम्मीदों के साथ अपना जमा जमाया कामधाम छोड़ कर लोगों ने आम आदमी पार्टी ज्वाइन किया, लेकिन दूसरे दलों की तरह अरविंद केजरीवाल के इर्द गिर्द भी चापलूसों का जमावड़ा हो गया - और फिर धीरे धीरे कुछ को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंका गया और कई हालत देखकर ही रास्ता बदल लिये.

सबसे बड़ा सवाल ये है कि जब देश में भ्रष्टाचार जैसी कोई चिड़िया है ही नहीं - तो अरविंद केजरीवाल की जरूरत ही क्या है?

ऐसा भी नहीं कि अरविंद केजरीवाल केंद्र सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार का कोई आरोप लगाये हों या फिर किसी राज्य सरकार के खिलाफ ही ऐसा कोई इल्जाम हो. ऊपर से रही सही कसर अरविंद केजरीवाल ने नेताओं से माफी मांग कर पूरी कर दी. जब भ्रष्टाचार के आरोप लगाने के बाद खुद फंस जाने पर अरविंद केजरीवाल माफी ही मांगते फिर रह हों, तो भला कौन यकीन करेगा कि ये वही अरविंद केजरीवाल हैं.

अरविंद केजरीवाल गवर्नेंस के नाम पर कोई मील का पत्थर नहीं बना पाये हैं - और कुछ नहीं तो दिल्ली दंगों में लोगों के साथ खड़े दिखे होते, ऐसा भी नहीं हुआ चाहते तो क्या कोरोना के वक्त लोगों को वास्तव में परेशानियों से बचा नहीं लिये होते - फिर तो यूपी में भी एक बार लोग विचार जरूर करते.

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