कश्मीर समस्या: शेख अब्दुल्ला का रहस्यमय किरदार
शेख अब्दुल्ला प्रो-पाकिस्तान नहीं थे, यह तो साफ है, लेकिन क्या वे प्रो-इंडिया भी थे, इसको लेकर इतिहासकारों के बीच पर्याप्त मतभेद रहे हैं.
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कश्मीर समस्या को लेकर जितने भ्रम की स्थितियां निर्मित हैं, उनमें एक व्यक्ति का केंद्रीय योगदान था और वे थे, "शेरे-कश्मीर" कहलाने वाले शेख अब्दुल्ला, जो कि नेशनल कांफ्रेंस के संस्थापक थे और तीन बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री (पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री, जब राज्य के सत्ता प्रमुख को वजीरे-आजम और संवैधानिक प्रमुख को सद्रे-रियासत कहा जाता है) रहे थे. उनके बाद उनके बेटे फारूख अब्दुल्ला भी तीन बार और उनके पोते उमर अब्दुल्ला एक बार जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे. कह सकते हैं कि अब्दुल्ला परिवार जम्मू-कश्मीर की सियासत में फर्स्ट फैमिली की हैसियत रखता है और शेख अब्दुल्ला उसके प्रथम पुरुष थे.
सन् 1947 में जम्मू-कश्मीर को लेकर चार तरह की थ्योरी चलन में थीं. यह थ्योरी तो खैर तब भी पूरी तरह से "आउट ऑफ कंसिडरेशन" थी कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान में जाएगा. पहले महाराजा हरि सिंह और उसके बाद शेख अब्दुल्ला दोनों ही इस पर एकमत थे कि जम्मू-कश्मीर पाकिस्तान के साथ नहीं जाएगा. हरि सिंह एक डोगरा हिंदू होने के नाते ऐसा मानते थे और शेख अब्दुल्ला पाकिस्तान को कठमुल्लों का देश समझते थे. लिहाजा, शेख अब्दुल्ला प्रो-पाकिस्तान नहीं थे, यह तो साफ है, लेकिन क्या वे प्रो-इंडिया भी थे, इसको लेकर इतिहासकारों के बीच पर्याप्त मतभेद रहे हैं.
जो चार कश्मीर थ्योरी सन् 1947 में चलन में थीं, वे थीं : 1) राज्य में जनमत-संग्रह हो और उसके बाद वहां के लोग ही यह तय करें कि उन्हें किसके साथ जाना है. जूनागढ़ में इससे पहले यह प्रयोग हो चुका था और वहां के लोगों ने भारत के पक्ष में वोट दिया था. कश्मीर में इससे पीछे हटने की कोई वजह भारत के पास नहीं थी और नेहरू भी इसके लिए तत्पर थे. 2) कश्मीर एक संप्रभु स्वतंत्र राष्ट्र बने और भारत और पाकिस्तान दोनों ही उसकी सुरक्षा की गारंटी लें.3) राज्य का बंटवारा हो, जम्मू भारत को मिले और शेष घाटी पाकिस्तान के पास चली जाए, और 4) जम्मू और कश्मीर भारत के पास ही रहें, केवल प्रो-पाकिस्तानी पुंछ पाकिस्तान के पास चला जाए.
इनमें शेख अब्दुल्ला का स्टैंड क्या था? शेख अब्दुल्ला अलीगढ़ में शिक्षित लिबरल, सेकुलर, प्रोग्रेसिव व्यक्ति थे. उनके दादा एक हिंदू थे और उनका नाम राघौराम कौल था. शेख के जन्म के महज 15 साल पूर्व ही यानी 1890 में उन्होंने इस्लाम स्वीकार किया था. (शेख की जीवनी 'आतिश-ए-चिनार' में इसका उल्लेख किया गया है) नेहरू से शेख की गहरी मित्रता थी. सन् 1946 में जब महाराजा हरि सिंह ने शेख को जेल में डाल दिया था तो नेहरू इससे इतने आंदोलित हो गए थे कि अपने दोस्त का पक्ष रखने कश्मीर पहुंच गए थे. 1949 में कश्मीर में दो 'प्रधानमंत्रियों' का मिलन हुआ था, जब 'भारत के प्रधानमंत्री' नेहरू 'जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री' शेख के यहां छुट्टियां मनाने पहुंचे और दोनों ने झेलम में घंटों तक साथ-साथ नौका विहार किया था. हर लिहाज से शेख को प्रो-इंडिया माना जा सकता था, वे भारत के संविधान में दर्ज धारा 370 के प्रावधानों में गहरी आस्था रखते थे, कश्मीर को विशेष दर्जे के पक्षधर थे और पाकिस्तान से घृणा करते थे. लेकिन क्या शेख के भीतर अलगाववादी स्वर भी दबे-छुपे थे?
कश्मीर समस्या की नियति गहरे अर्थों में शेख अब्दुल्ला के व्यक्तित्व के साथ जुड़ी हुई है. 40 के दशक में शेख कश्मीर के सबसे कद्दावर नेता थे और उस सूबे की पूरी अवाम उनके पीछे खड़ी हुई थी. उनकी नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा सेकुलर था, यानी केवल मुस्लिम ही नहीं, बल्कि जम्मू-कश्मीर में रहने वाले हर समुदाय के व्यक्ति के अधिकारों और हितों का संरक्षण. ऐसे में शेख के निर्णयों को कश्मीर के अवाम का निर्णय मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए. और यह शेख का निर्णय था कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बना रहेगा. फिर दिक्कतें कहां थीं? नेहरू और गांधी दोनों ने ही शेख को कश्मीर का वजीरे-आजम बनाने के लिए पूरा जोर लगा दिया था और महाराजा हरि सिंह को चुपचाप हाशिये पर कर दिया गया था, फिर आखिर क्या कारण था कि ये ही शेख 1950 का साल आते-आते खुलेआम अलगाववादी तेवर दिखाने लगे थे? और क्या कारण था कि अगस्त 1953 में शेख के जिगरी दोस्त नेहरू ने ही उन्हें गिरफ्तार करवाकर उनके स्थान पर बख्शी गुलाम मोहम्मद को नया प्रधानमंत्री बनवा दिया था?
कश्मीर समस्या की जड़ें अगर इस राज्य की विशेष रणनीतिक स्थिति, उसकी मुस्लिम बहुल जनसांख्यिकी और नेहरू की भ्रामक मनोदशा में छुपी हैं तो शेख अब्दुल्ला के अनियमित रुख और उनकी विराट महत्वाकांक्षाओं को भी क्या इसके लिए इतना ही जिम्मेदार नहीं माना जाना चाहिए? आखिरकार वे "शेरे-कश्मीर" थे, कश्मीर के अवाम की आवाज़ थे और कश्मीर के मामले में उन्हें जो फैसला लेना था, उसे इतिहास में कश्मीर के अवाम के फैसले की ही तरह याद रखा जाना था.
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