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Updated: 15 जनवरी, 2023 04:49 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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जेपी नड्डा यानी जगत प्रकाश नड्डा (JP Nadda) कितने आश्वस्त हैं, ये नहीं मालूम. लेकिन बीजेपी के भीतर और बाहर ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो मान कर चल रहे हैं कि जेपी नड्डा आगे भी अध्यक्ष बने रहेंगे - और नहीं कम से कम 2024 के आम चुनाव तक तो बीजेपी अध्यक्ष (BJP President) की कुर्सी से कोई छेड़छाड़ नहीं ही होगी.

लेकिन क्या पता मोदी-शाह ने सबके लिए कोई सरप्राइज प्लान कर रखा हो. अभी तो भूपेंद्र यादव को भी फिर से संगठन में लाये जाने की चर्चा है. फिलहाल वो मोदी कैबिनेट के सदस्य हैं. कई चुनावी मिशन को सफलतापूर्वक अंजाम तक पहुंचाने वाले भूपेंद्र यादव की संगठन में कभी तो महसूस होगी ही.

अध्यक्ष पद के दावेदार तो भूपेंद्र यादव 2020 में भी थे, लेकिन तब वो बिहार के प्रभारी हुआ करते थे. तब उनकी पोजीशन में कोई भी तब्दीली काफी जोखिमभरी हो सकती थी. पिछले कैबिनेट फेरबदल और विस्तार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने भूपेंद्र यादव को संगठन से सरकार में ले लिया था.

वैसे तो प्रधानमंत्री मोदी ने जेपी नड्डा को गुजरात विधानसभा चुनाव में जीत का श्रेय दिया, लेकिन जब व्यक्तिगत प्रदर्शन की बारी आयी तो गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल बाजी मारते नजर आये - तभी से सीआर पाटिल को अहमदाबाद से दिल्ली शिफ्ट किये जाने की काफी चर्चा है.

ये सीआर पाटिल ही हैं जो जेपी नड्डा के लिए बड़े चैलेंजर साबित हो सकते है. सीआर पाटिल गुजरात की जीत के बाद हीरो बने हुए हैं, और बदकिस्मती ये देखिये कि नड्डा पर हिमाचल की हार का एक हल्का सा धब्बा तो लग ही गया है.

हिमाचल प्रदेश चुनाव नतीजों की तोहमत से जेपी नड्डा इसलिए खुद को अलग नहीं कर सकते, क्योंकि वो उनका गृह राज्य है. हालांकि, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के मुकाबले आंकड़े जेपी नड्डा के पक्ष में दिखायी देते हैं. अनुराग ठाकुर के संसदीय क्षेत्र हमीरपुर के बिलासपुर में बीजेपी का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है, जहां से जेपी नड्डा आते हैं.

अनुराग ठाकुर को भी अब सरकार से संगठन में लाये जाने की चर्चा चल रही है. हो सकता है ये अनुराग ठाकुर को भूल सुधार का मौका देने के लिए हो रहा हो. अब वो नड्डा की टीम में होंगे या किसी और बीजेपी अध्यक्ष के नेतृत्व में काम करेंगे, औपचारिक घोषणा तक इंतजार तो करना ही होगा.

गुजरात चुनाव में चेहरा तो प्रधानमंत्री मोदी ही थे. व्यावहारिक तौर पर भी मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल कम ही नजर आते थे. चुनावी जीत का रिकॉर्ड कायम करना अलग बात है, और जीत पक्की करना और बात होती है. मोदी और भूपेंद्र पटेल होने का फर्क भी यही है.

जेपी नड्डा को गुजरात की जीत का क्रेडिट देने के पीछे बीजेपी नेतृत्व की रणनीति भी लगती है. प्रधानमंत्री मोदी नहीं चाहते कि हिमाचल प्रदेश की वजह से कार्यकर्ताओं और लोगों में कोई संदेहास्पद मैसेज जाये. उसके मुकाबले गुजरात की जीत पर ज्यादा जोर जनता का ध्यान खींचने और बीजेपी कार्यकर्ताओं का जोश बनाये रखने के लिए लगता है.

पूरे तीन साल के कार्यकाल की बात करें तो जेपी नड्डा को जो जिम्मेदारी मिली हुई है, अपनी तरफ से उनके प्रयासों में कोई कमी तो नहीं ही दिखायी पड़ती है. वैसे भी जेपी नड्डा का मुख्य काम, नेतृत्व के नाम पर, नीतियां तैयार करना नहीं बल्कि मोदी-शाह की पॉलिसी को अमल में लाना है. आसानी से समझने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का भी उदाहरण दिया जा सकता है. जैसे मल्लिकार्जुन खड़गे को राहुल गांधी, सोनिया गांधी और अब प्रियंका गांधी वाड्रा की तय लाइन पर कांग्रेस को कायम रखना होता है. माना तो यहां तक जाता है कि कांग्रेस नेतृत्व को मल्लिकार्जुन खड़गे जैसी व्यवस्था का आइडिया भी बीजेपी से ही मिला है.

चुनावी हार में भी जीत होती है

शाहरुख खान की फिल्म बाजीगर का एक डायलॉग है, 'कभी-कभी कुछ जीतने के लिए कुछ हारना भी पड़ता है - और हार कर जीतने वाले को बाजीगर कहते हैं.'

2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी के प्रदर्शन को कुछ ऐसे भी देख सकते हैं. ये सही है कि बीजेपी 100 सीटें नहीं जीत पाने की प्रशांत किशोर की भविष्यवाणी को गलत नहीं साबित कर सकी, लेकिन कांग्रेस और लेफ्ट को पछाड़ते हुए मुख्य विपक्षी पार्टी तो बन ही चुकी है.

jp nadda, narendra modi, amit shahजेपी नड्डा आगे भी बीजेपी अध्यक्ष बने रहेंगे या नहीं?

2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के साथ भी ऐसा ही हुआ था - और अगर वही पैटर्न 2026 में दोबारा देखने को मिलता है, तो ममता बनर्जी के लिए तो ये बहुत ही खतरनाक बात होगी.

बंगाल के साथ ही तमिलनाडु में भी विधानसभा के चुनाव हुए थे. और देखा जाये तो बीजेपी ने तमिलनाडु में भी अपनी ताकत बढ़ाई ही है. तमिलनाडु में एक जमाने में डीएमके से टूट कर एआईएडीएमके बनी थी. करुणानिधि, एमजीआर और फिर जयललिता की लड़ाइयां चलती रहीं. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन पुरानी बातें भुला कर आगे बढ़ना चाहते हैं. एआइएडीएमके से तो वो निबट ले रहे हैं, लेकिन केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की सरकार के प्रतिनिधि गवर्नर आरएन रवि ने तो वैसे ही कहर बरपा रखा है जैसे पश्चिम बंगाल के गवर्नर रहते जगदीप धनखड़ किया करते थे.

डीएमके और एआईएडीएमके आपस में लड़ते रहे और कांग्रेस वहां भी करीब करीब खत्म ही हो गयी. कांग्रेस फिलहाल डीएमके के साथ है. बीजेपी, एआईएडीएमके के जरिये जमीन तलाश रही है. डीएमके के साये में कांग्रेस को तो कुछ खास तो मिलने से रहा, लिहाजा बीजेपी अपनी पैठ बनाने में जुटी हुई है. एआईएडीएमके में ईपीएस बनाम ओपीएस की तनातनी चल रही है - और बीजेपी ताक में बैठी है कि कब वो मौका आये जब अपना सिक्का चला सके.

कुल मिला कर तमिलनाडु में भी बीजेपी पश्चिम बंगाल की तरह प्रमुख विपक्षी दल बनने की दिशा में बढ़ रही है - और असम में तो बीजेपी की शानदार वापसी भी जेपी नड्डा के कार्यकाल की ही उपलब्धि है. केरल में आंकड़े दर्ज कराने में बीजेपी भले चूक गयी हो, लेकिन लोगों के बीच चर्चा आगे बढ़ाने में को सफल ही रही है. नुकसान तो मेट्रोमैन ई. श्रीधरन को हुआ, फायदे में तो बीजेपी रही ही.

दक्षिण में बीजेपी के पास ले देकर नाम लेने के लिए पहले कर्नाटक हुआ करता था, त्रिपुरा से आगे बढ़ते हुए बीजेपी ने नॉर्थ ईस्ट में भगवा लहराया - और नगालैंड, मिजोरम के बाद पुड्डुचेरी में तो बीजेपी का सत्ता में हिस्सेदार होना जेपी नड्डा के कार्यकाल में ही तो बात है.

2019 के आम चुनाव से लेकर जेपी नड्डा के अध्यक्ष बनने तक बीजेपी को मिलीजुली परिस्थितियों से गुजरना पड़ा था. ये ठीक है कि तब अमित शाह बीजेपी अध्यक्ष हुआ करते थे, लेकिन कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में नड्डा की भूमिका कोई कम भी नहीं रही - देखा जाये तो बाद में भी स्थिति बहुत बदली तो नहीं लगती.

जेपी नड्डा ने जब कमान संभाली तब दिल्ली में चुनाव हो रहे थे. बीजेपी फिर से हार गयी. उससे पहले बीजेपी झारखंड में सत्ता गंवा चुकी थी. हरियाणा में बहुमत से पीछे रह जाने के बावजूद बीजेपी सरकार बनाने में सफल रही, लेकिन महाराष्ट्र में चुनाव जीत कर भी गठबंधन की राजनीति में मात जरूर खा गयी - लेकिन बिहार में तो छोटे भाई से बड़ी बहन बन ही गयी, भाई ने परिवार को छोड़ अपना नया घर बसा लिया ये और बात है.

जून, 2019 में जेपी नड्डा को बीजेपी का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था. जेपी नड्डा के लिए वो दौर अध्यक्ष पद के लिए इंटर्नशिप जैसा ही समझ सकते हैं - कुछ ही दिन बाद कर्नाटक में बीजेपी ने ऑपरेशन लोटस की बदौलत बीएस येदियुरप्पा की सरकार बना ली थी.

जेपी नड्डा ने इंटर्नशिप के दौरान जो कुछ सीखा था, अध्यक्ष बनने के छह महीने के भीतर ही मध्य प्रदेश में न सिर्फ सीखे हुए नुस्खे आजमाये, बल्कि अंजाम तक पहुंचाया भी. मध्य प्रदेश में अपनी सरकार बना लेना भी तो जेपी नड्डा की बहुत बड़ी उपलब्धि ही रही.

सिंधिया से कैप्टन तक - तमाम नेता बीजेपी में आते रहे: नेताओं का आना जाना लगा रहता है, लेकिन आकलन इसी आधार पर होता है कि आने वाले ज्यादा हैं या जाने वाले.

ये ठीक है यूपी चुनाव के दौरान बीजेपी को कुछ नेता गंवाने पड़े थे, लेकिन मुलायम सिंह के घर से अपर्णा यादव को लाकर बीजेपी ने भरपाई भी कर ली गयी. यूपी में चुनाव से पहले जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह का बीजेपी में आना भी महत्वपूर्ण उपलब्धि रही और ये भी जेपी नड्डा के खाते में ही दर्ज होगी.

पश्चिम बंगाल में शुभेंदु अधिकारी और पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह का बीजेपी में आना चाहे जिन परिस्थितियों में संभव हुआ हो, क्रेडिट तो जेपी नड्डा को मिलेगा ही. कांग्रेस से ज्योतिरादित्य सिंधिया को बीजेपी में लाना भी तो बड़ी उपलब्धि रही. अगर वसुंधरा राजे राजस्थान में आलाकमान के लिए मुसीबत नहीं बनी होतीं तो शायद सचिन पायलट की राह भी साफ हो चुकी होती.

मुकम्मल जहां तो किसी को भी नहीं मिलता

अगर उपलब्धियों की लंबी फेहरिस्त है तो जेपी नड्डा के खाते में नाकामियां भी कम नहीं दर्ज हुई हैं - और सबसे बड़ी नाकामी तो किसान आंदोलन के दबाव में मोदी-शाह की अगुवाई वाली सबसे मजबूत सरकार का कदम पीछे हटाने को मजबूर होना लगता है.

किसानों तक मोदी सरकार की बात नहीं पहुंचा सके: सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद जेपी नड्डा की लीडरशिप में बीजेपी कार्यकर्ता लोगों को मोदी सरकार की बात नहीं समझा सके.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आखिर चाहते क्या हैं. वो चाहते तो यही हैं कि सरकार की नीतियों को सही तरीके से लोगों तक पहुंचाया जा सके - और इस काम में मंत्रियों तक को लगा दिया जाता है, बीजेपी के बाकी नेताओं और कार्यकर्ताओं के आखिर इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है.

लेकिन दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी होने का दावा करने वाली बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा और उनकी टीम कृषि कानूनों के फायदे किसानों को नहीं समझा सकी. नतीजा ये हुआ कि अपनी ही तपस्या में कमी बता कर आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी को तीनों कृषि कानून वापस लेने पड़े - ये तपस्या तो जेपी नड्डा के हिस्से की ही रही. जेपी नड्डा को ये काम तो अच्छी तरह बताया ही गया होगा, लेकिन वो ये टास्क पूरा नहीं कर पाये.

गठबंधन सहयोगी जाते रहे: किसान आंदोलन के दौरान ही पंजाब के अकाली दल और राजस्थान के हनुमान बेनिवाल ने एनडीए छोड़ने का ऐलान किया था - और अब तो नीतीश कुमार भी उस सूची में फिर से नाम दर्ज करा चुके हैं.

ये ठीक है कि नीतीश कुमार के मामले में लालू यादव की परिभाषा के हिसाब से जेपी नड्डा को संदेह का लाभ मिल सकता है. लालू यादव, असल में नीतीश कुमार को 'पलटू राम' कहते रहे हैं. जब तक नीतीश कुमार महागठबंधन में हैं, ये चीज होल्ड पर रख दी गयी है. मतलब, नीतीश कुमार तो कभी भी जा सकते थे, लेकिन लीडरशिप तो वही होती है जो जाने वाले को भी रोक ले.

एक बड़ी वजह ये भी है जिसके चलते कांग्रेस में राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाये जाते हैं. वैसे राहुल गांधी ने कांग्रेस नेताओं को डरपोक और निडर कैटेगरी में बांट कर बचाव का रास्ता भी खोज लिया है. कांग्रेस छोड़ कर जाने वाले नेताओं को राहुल गांधी डरपोक बताते हैं. क्योंकि ये सब संघ, बीजेपी और मोदी-शाह से नहीं डरने के उनके अपने स्टैंड के खिलाफ जाता है.

सच तो ये है ही कि बिहार में बीजेपी के हाथ से सत्ता फिसल गयी - और उससे सबसे बड़ा खतरा 2024 में संसदीय सीटें जीतने को लेकर है. बीजेपी ने 2019 में महाराष्ट्र में भी एक गठबंधन साथी गवां दिया था. हालांकि, तब जेपी नड्डा कार्यकारी अध्यक्ष ही हुआ करते थे.

ये भी है कि बीजेपी ने शिवसेना से बदला भी ले लिया है. ये ठीक है कि तोड़फोड़ से ज्यादा नुकसान तो उद्धव ठाकरे को हुआ है, लेकिन पहले वाली शिवसेना जैसा सपोर्ट एकनाथ शिंदे तो बीजेपी को कभी नहीं दे सकते, तात्कालिक फायदे की बात और है.

निश्चित तौर पर तमाम सफलताओं के बावजूद, नतीजे अलग भी हो सकते थे. ये ठीक है कि मोदी लहर में ही जेपी नड्डा भी चल गये, लेकिन असली इम्तिहान तो 2024 में आने वाला है - और पूरे कार्यकाल के लिए न सही, तब तक के लिए जेपी नड्डा को बीजेपी अध्यक्ष बनाये रखना कोई बुरा फैसला भी नहीं कहा जाएगा.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

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