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Updated: 15 दिसम्बर, 2022 07:16 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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2023 के आखिर तक होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए बीजेपी अब डबल इंजन कैंपेन चलाएगी - एक मोदी का चेहरा होगा, और दूसरा नया गुजरात मॉडल (Gujarat Poll Model). और इस तरह आगे के लिए भी मान लेना चाहिये कि 2024 में भी ये सिलसिला यूं ही जारी रहेगा.

2024 से पहले बीजेपी के कैंपेन से बहुत सारी चीजें साफ भी हो जाएंगी कि कमजोरी कहां है और कौन मजबूत पक्ष है. आम चुनाव की जंग में उतरने से पहले बीजेपी संसदीय बोर्ड फिर से समीक्षा कर लेगा - और उसी के हिसाब से पार्टी की रणनीति और पॉलिटिकल लाइन तय हो जाएगी.

ये बीजेपी संसदीय बोर्ड ही है, जिसने कुछ महीने पहले तय किया था कि आम चुनाव से पहले होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ही होंगे. और ये उन राज्यों पर भी लागू होगा जहां बीजेपी की ही सरकार है. यानी बीजेपी मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ेगी. और गुजरात चुनाव में ये महसूस भी किया गया. गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल भर रस्में निभाते रहे. मसलन, नामांकन दाखिल करना, महत्वपूर्ण मौकों पर मौजूद रहना.

और अब तो ऐसा लग रहा है कि गुजरात में बीजेपी की सत्ता में वापसी का रिकॉर्ड भले ही उनके नाम दर्ज हो रहा हो, लेकिन श्रेय तो सिर्फ स्टेट बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल को मिल रहा है. और उसी में से थोड़ा सा शेयर प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों पर गौर करें तो बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को मिल रहा है. तब भी जबकि हिमाचल प्रदेश की हार (BJP Himachal loss) में जेपी नड्डा की भूमिका पर अनुराग ठाकुर के साथ ही सवालिया निशान लग चुका है.

बीजेपी संसदीय बोर्ड की बैठक में भी प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात की जीत का क्रेडिट जेपी नड्डा को वैसे ही दिया, जैसे चुनाव नतीजों के बाद के भाषण में सुनने को मिला था - लेकिन लगे हाथ मोदी ने जिस गुजरात मॉडल का जोर देकर जिक्र किया, उसमें हिमाचल प्रदेश की तरफ भी संकेत और संदेश समझने की कोशिश हो रही है.

प्रधानमंत्री मोदी अब जिस गुजरात मॉडल का जोर शोर से जिक्र कर रहे हैं, वो संगठन की शक्ति के लिए है. और ये देश की जनता के लिए नहीं बल्कि बीजेपी के नेताओं और कार्यकर्ताओं के लिए लग रहा है.

पहले, यानी 2014 के आम चुनाव में मोदी जिस गुजरात मॉडल की तारीफ करते नहीं थकते थे, वो गवर्नेंस और विकास का मॉडल हुआ करता था. और वो बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों के खिलाफ देश की जनता को मैसेज देने की कोशिश हुई थी.

ऐसा भी नहीं है, विकास का गुजरात मॉडल पीछे छूट गया है. और ये सोच कर ही मोदी ने गुजरात में बीजेपी के शासन की पश्चिम बंगाल में तीन दशक के लेफ्ट सरकार के कामकाज से की है. तमाम बातों के बीच, संसदीय बोर्ड में मोदी के भाषण को लेकर सूत्रों के हवाले से प्रकाशित मीडिया रिपोर्ट से दो और बातें सामने आयी हैं - हिमाचल प्रदेश जैसी लापरवाही से हर हाल में बचना होगा और हां, चंद्रकांत रघुनाथ पाटिल की तरह चुनाव रणनीति तैयार करनी होगी.

हिमाचल में बीजेपी की हार के लिए जिम्मेदार कौन?

गुजरात बीजेपी अध्यक्ष सीआर पाटिल की जिस तरह से प्रधानमंत्री मोदी ने दिल खोल कर तारीफ की है, निश्चित तौर पर बाकी नेता उनमें अमित शाह की छवि देखने लगे होंगे. गुजरात के चुनावों में अमित शाह के नुस्खे आजमाने के बाद ही 2014 के लिए उनको उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी दी गयी थी. कहने की जरूरत नहीं कि अमित शाह को मोदी की सिफारिश पर ही यूपी सौंप दिया गया था - और अमित शाह ने साबित भी किया, जिसके बाद वो बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये गये. और जैसे किसी भी सफल इंसान के लिए पीछे मुड़ कर नहीं देखने की बात की जाती है, अमित शाह का मामला भी बिलकुल ऐसा ही लगता है.

लेकिन ऐन उसी वक्त प्रधानमंत्री के भाषणों में बराबर तारीफ बटोर रहे जेपी नड्डा के मन में काफी उलझन भी होगी. आखिर गुजरात की जीत का क्रेडिट मोदी उनको क्यों दे रहे हैं? और ये उलझन तब और भी बढ़ जाती होगी जब हिमाचल प्रदेश की हार के लिए मोदी की तरफ से अब तक सिर्फ वोट शेयर का अंतर ही गिनाया गया है. चुनाव नतीजे आने के बाद मोदी के भाषण से पहले नड्डा ने ही बताया था कि कांग्रेस से बीजेपी के हार जाने के बावजूद फर्क सिर्फ 0.1 फीसदी वोटों का ही रहा. और बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने भी वही बात दोहरायी थी.

narendra modi, cr paatil, bhupendra patelगुजरात में बीजेपी की जीत के बाद मोदी ने तो सीआर पाटिल को बाकी नेताओं के लिए रोल मॉडल ही बना दिया है

गुजरात चुनाव में जेपी नड्डा की भूमिका भी तो मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल जितनी ही महसूस की गयी. वैसे भी जब बीजेपी चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ रही थी, अमित शाह खुद चुनावी रणनीति और कैंपेन की निगरानी कर रहे थे, सीआर पाटिल छोटी से छोटी चीजों पर बारीक नजर रख रहे थे - बीजेपी अध्यक्ष के रूप में रस्मअदायगी से ज्यादा जेपी नड्डा का रोल क्या था?

और हिमाचल प्रदेश की बात करें तो अपना राज्य होने के नाते जेपी नड्डा हर मामले में निजी दिलचस्पी ले रहे थे. नड्डा के साथ साथ केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का भी खास दखल रहा ही होगा - और हैरानी की बात ये है कि सबसे खराब नतीजे तो अनुराग ठाकुर के हमीरपुर संसदीय क्षेत्र और उनके पिता प्रेमकुमार धूमल के हमीरपुर जिले से ही आये हैं.

68 सदस्यों वाली हिमाचल प्रदेश विधानसभा में भारतीय जनता पार्टी को 25 सीटें मिली हैं, जबकि 40 सीटों के साथ कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत वाली सरकार बना ली है. सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री के रूप में कामकाज संभालते ही एक्शन में भी आ गये हैं. खास बात ये है कि सीएम सुक्खू ही नहीं डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी अनुराग ठाकुर के इलाके से ही चुनाव जीत कर विधानसभा पहुंचे हैं - बीजेपी के लिए सबसे चिंता की बात तो ये है कि अनुराग ठाकुर के हमीरपुर संसदीय क्षेत्र की 17 विधानसभा सीटों में से 12 कांग्रेस के हिस्से में चले गये हैं. हमीरपुर जिले की पांचों सीटें भी कांग्रेस के पास ही हो गयी हैं.

ऐसे में जब गुजरात की जीत के लिए प्रधानमंत्री मोदी सीआर पाटिल की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे होते हैं, तो हिमाचल प्रदेश में उनके समानांतर चुनाव रणनीति और कैंपेन देख रहे लोग ही निशाने पर समझे जाने चाहिये. और ऐसे लोगों में जेपी नड्डा या अनुराग ठाकुर तो शामिल नहीं ही हैं. ये वे लोग हैं जो राज्य स्तर पर चुनाव के प्रभारी रहे.

लेकिन ऐसा भी नहीं हो रहा है कि जब सीआर पाटिल की तारीफ हो रही हो तो हिमाचल प्रदेश के उन नेताओं पर उंगली उठ रही हो, फिर तो निशाने पर जेपी नड्डा और अनुराग ठाकुर ही लगते हैं. अगर नड्डा को संदेह का लाभ दे दिया जाये तो, अनुराग ठाकुर ही कठघरे में खड़े हो जाते हैं और उसकी खास वजह भी है - अनुराग ठाकुर के पिता की प्रत्यक्ष राजनीति से विदाई. करीब करीब वैसे ही जैसे 2014 में पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार को लालकृष्ण आडवाणी के साथ मार्गदर्शक मंडल भेज दिया गया था.

जनता ने तो यही देखा कि प्रेमकुमार धूमल ने खुद ही चुनाव न लड़ने की पहल की थी. लेकिन जनता ने तो ये भी देखा था कि उत्तराखंड में अपनी विधानसभा सीट हार जाने के बाद भी पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन प्रेम कुमार धूमल को ठीक उसी बिनाह पर खारिज कर दिया गया था. फिर भी वो पांच साल तक चुपचाप इंतजार किये, लेकिन ऐन वक्त पर पीछे हट गये. भला कौन मान लेगा कि प्रेमकुमार धूमल ने ये सब अपने मन से ही किया होगा?

हुआ तो ऐसा गुजरात भी था, जहां धूमल की ही तरह मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद विजय रुपानी और डिप्टी सीएम रहे नितिन पटेल ने भी चुनाव न लड़ने की घोषणा कर डाली थी - अगर चुनाव लड़ने का तौर तरीका एक ही रहा तो 27 साल के शासन के बाद भी बीजेपी गुजरात में चुनाव जीतने में कामयाब रही, और पांच साल में ही हिमाचल प्रदेश में चलती बनी - भला क्यों?

गुजरात मॉडल पर ही जोर रहे

सीआर पाटिल सूबे में बीजेपी की कमान संभालने वाले पहले गैर-गुजराती नेता हैं. और जब उनको ये जिम्मेदारी सौंपी गयी थी, ज्यादातर नेताओं के लिए अचरज की बात थी - लेकिन आज देखिये और किसी की कौन कहे, स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सीआर पाटिल की मेहनत और काबिलियत की मिसाल दे रहे हैं.

बताते हैं, संसदीय बोर्ड की मीटिंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कह रहे थे, "अगर गुजरात की जीत का श्रेय किसी एक व्यक्ति को देना हो, तो वो सीआर पाटिल हैं."

और फिर मोदी की समझाइश होती हैं, 'अगर हर राज्य इकाई वैसे ही काम करे जैसे गुजरात इकाई ने किया, तो पार्टी का प्रदर्शन हमेशा ही अच्छा रहेगा.'

ऐसी तारीफ मोदी के मुंह से न तो यूपी में बीजेपी की जीत को लेकर सुनी गयी और न ही बीते दिनों हुए असम, उत्तराखंड, गोवा या मणिपुर को लेकर ही सुनने को मिला था. ये भी याद रखा जाना चाहिये कि जब असम के चुनाव हो रहे थे तो मोदी पश्चिम बंगाल पर ज्यादा जोर दे रहे थे और उत्तराखंड चुनाव के वक्त उत्तर प्रदेश पर.

ध्यान देने वाली बात ये भी है कि गुजरात में चुनाव में फ्रंट पर जहां मोदी मोर्चा संभाले हुए थे, पीछे से सारा दारोमदार अमित शाह के जिम्मे था. चुनावों में मोदी ने लोगों से एक और बात भी कही थी - नरेंद्र से बेहतर जीत भूपेंद्र को मिलनी चाहिये. लोगों ने मोदी का मान भी रखा और बीजेपी की झोली में झट से 156 सीटें डाल दी.

अमित शाह ने गुजरात में 150 सीटें जीतने का लक्ष्य दिया था, साथ ही अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की गतिविधियों पर नजर रखते हुए एक दायरे के आगे न बढ़ने देने की सलाह दी थी.

लेकिन शुरू से ही सीआर पाटिल 182 सीटों पर बीजेपी की जीत सुनिश्चित करने के हिसाब से काम कर रहे थे. सीआर पाटिल को जुलाई, 2020 में गुजरात बीजेपी का अध्यक्ष बनाया गया था और तभी से वो अपने मिशन में जुट गये थे. वो तभी से कांग्रेस के 149 सीटें जीतने का रिकॉर्ड तोड़ना चाहते थे और मेहनत रंग भी लायी बीजेपी 156 सीटें जीत भी गयी.

ये भी ध्यान रहे कि नवसारी लोक सभा क्षेत्र की सभी सातों सीटों पर सीआर पाटिल ने भगवा फहरा दिया है. सीआर पाटिल नवसारी से ही लोक सभा सांसद हैं. ऐसी सूरत में हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के नतीजे पर ध्यान तो बरबस ही चला जाता है.

तभी तो मोदी भी सीआर पाटिल की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं. कहते हैं, "कभी भी गुजरात भाजपा प्रमुख को मंच पर फोटो खिंचवाते नहीं देखा." भला बीजेपी के बाकी नेताओं के लिए इससे भी बड़ी कोई नसीहत होगी क्या?

पाटिल को लेकर संसदीय बोर्ड की मीटिंग में मोदी का कहना रहा, ‘उन्होंने पन्ना समिति मॉडल पर काम किया है... और एक मजबूत संगठन बनाया... सभी को उन्हें बधाई देनी चाहिये… गुजरात में शानदार जीत का श्रेय सीआर पाटिल को दिया जाना चाहिये.’

वैसे ये तो बाद की बात है, इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट बीजेपी नेताओं के हवाले से ही संभावना जतायी जा चुकी है कि सीआर पाटिल को राष्ट्रीय राजनीति में कोई बड़ी भूमिका दी जा सकती है.

बंगाल में लेफ्ट शासन का जिक्र: बीजेपी के 27 साल से शासन के बाद और पांच साल के लिए मिले जनादेश की तुलना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा के शासन से की है. हालांकि, बंगाल में वाम मोर्चा के शासन की बराबरी करने के लिए बीजेपी को अभी सात साल का सफर और करना होगा.

पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु 1977 में मुख्यमंत्री बने थे और 2011 में ममता बनर्जी के मुख्यमंत्री बनने तक लेफ्ट का ही शासन रहा. मोदी ने बीजेपी नेताओं से कहा, वाम मोर्चे के शासन में बंगाल बदहाल हो गया, और देखो हम गुजरात में कहां हैं?

ये ठीक है कि लंबे शासन की मिसाल देने के लिए मोदी ने पश्चिम बंगाल में लेफ्ट शासन का नाम लिया, लेकिन ममता बनर्जी को क्यों बख्श दिया? अगर मोदी की नजर में बंगाल आज भी बदहाल है तो पिछले 11 साल से मुख्यमंत्री होने के नाते ममता बनर्जी की भी जिम्मेदारी तो बनती ही है - लेकिन हैरानी की बात ये है कि मोदी ने सिर्फ लेफ्ट का नाम लिया!

कहीं ममता बनर्जी का नाम न लेकर मोदी ने समझने वालों के लिए सस्पेंस वैसे ही छोड़ दिया है क्या - जैसे हिमाचल प्रदेश की हार के लिए जिम्मेदार बीजेपी नेताओं को?

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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