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Updated: 18 दिसम्बर, 2022 04:17 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की भारत जोड़ो यात्रा 108वें दिन दिल्ली में दाखिल हो रही है. 24 दिसंबर को फरीदाबाद के रास्ते. ये संयोग है या प्रयोग, ये तो राहुल गांधी और उनके कांग्रेसी सलाहकार ही बेहतर जानते होंगे - हो सकता है बीजेपी के भीतर भी मंथन चल रहा हो कि कैसे रिएक्ट करना है.

फिलहाल ये भारत जोड़ो यात्रा राजस्थान में है, और भारत यात्रियों के स्वागत के लिए दिल्ली में काफी तैयारियां चल रही हैं. भारत जोड़ो यात्रा के दिल्ली आते ही 'हाथ से हाथ जोड़ो' मुहिम शुरू होने वाली है. ये यात्रा दिल्ली बॉर्डर से सीधे राजघाट पहुंचेगी. महात्मा गांधी समाधि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद हफ्ते भर का ब्रेक दिया जाएगा - और फिर 2 या 3, जनवरी 2023 से भारत जोड़ो यात्रा पहले से तय कार्यक्रमों के अनुसार आगे बढ़ेगी.

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी तमाम मुद्दों पर प्रेस कांफ्रेंस या सोशल मीडिया पर वीडियो जारी कर अपनी बात रखते रहे हैं, लेकिन यात्रा के 100 पूरे होने के मौके पर जो कुछ कहा है उस पर अलग ही बवाल शुरू हो गया है. ज्यादा बवाल तो चीन के युद्ध की तैयारियों को लेकर उनके दावे पर हो रहा है - लेकिन क्षेत्रीय दलों (Regional Parties) को लेकर जो बात राहुल गांधी ने दोहरायी है, उस पर अलग ही रिएक्शन होने वाला है.

राहुल गांधी का पहले भी दावा रहा है, और अब भी है कि बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ उनकी विचारधारा की लड़ाई है. गुजरात चुनाव के नतीजों के प्रसंग में एक बार फिर राहुल गांधी ने दावा किया है कि बीजेपी को सिर्फ कांग्रेस ही हरा सकती है, न कि ये किसी क्षेत्रीय दल के वश की बात है.

जाहिर है, राहुल गांधी ऐसी बातें हिमाचल प्रदेश के नतीजों की वजह से करने लगे हैं. वरना, 2019 के आम चुनाव से लेकर अब तक जितने भी चुनाव हुए हैं, राहुल गांधी को ऐसा कह पाने का मौका तो मिला नहीं. कुछेक को छोड़ दें तो ज्यादातर चुनावों में तो राहुल गांधी खुद ही मोर्चा संभाले हुए थे - और कांग्रेस को जीत हिमाचल प्रदेश में मिली है जहां वो झांकने तक नहीं गये थे. राहुल गांधी इस बात को चाहे जैसे समझें अच्छा ही होगा.

राहुल गांधी, दरअसल, ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि गुजरात में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी की वजह से कांग्रेस की सीटें कम हो गयीं और वोट शेयर भी घट गया. तो इसमें ऐसी क्या बात है जो किसी को पहले से नहीं मालूम है. वो तो अक्सर मोबाइल देखते रहते हैं और कभी कभी फोटो, वीडियो और खबरों के अलावा ओपिनियन भी देखते ही होंगे. ये भी मालूम होगा ही कि जो बातें उनके करीबी नेता नहीं बताते होंगे, सही फीडबैक मिल जाएगा.

और राहुल गांधी को तो ये भी मालूम होना चाहिये कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस को ही काट काट कर आज राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने जा रही है - क्या बड़ी लकीर खींच पाना मुश्किल हो रहा है, इसलिए छोटी लकीर को राहुल गांधी मिटा देना चाहते हैं?

सबसे दिलचस्प बात तो ये है कि बीजेपी भी बिलकुल वैसा ही सोचती है. करीब छह महीने पहले, दो हफ्ते के अंतर पर राहुल गांधी और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा (JP Nadda) दोनों ही नेताओं ने क्षेत्रीय दलों को लेकर एक जैसी बातें की थी - और राहुल गांधी फिर से उसी तर्ज पर गुजरात के दर्द का मरहम खोज रहे हैं.

राहुल गांधी कहते हैं, अगर आम आदमी पार्टी को... कांग्रेस को निशाना बनाने के लिए प्रॉक्सी के रूप में नहीं रखा गया होता, तो कांग्रेस गुजरात में भी बीजेपी को हरा सकती थी.

अगर ऐसी बात है तो गुजरात जैसे नतीजे हिमाचल प्रदेश के भी होने चाहिये थे. या कहें कि हिमाचल प्रदेश जैसे ही नतीजे गुजरात के होने चाहिये थे. ऐसा कैसे हो सकता है कि कांग्रेस को हराने के लिए लगाया गया प्रॉक्सी गुजरात में सफल हो जाये और हिमाचल प्रदेश में फेल हो जाये - राहुल गांधी की ये थ्योरी अपनेआप ही औंधे मुंह गिर जाती है.

अगर राहुल गांधी की लेटेस्ट थ्योरी के हिसाब से देखें तो पंजाब चुनाव के नतीजों को कैसे समझा जाये? और पंजाब जैसा ही मामला तो गोवा में भी नजर आया था, लेकिन वहां भी नतीजे बिलकुल अलग आये - ये थ्योरी पश्चिम बंगाल, असम और केरल के मामले में नहीं लागू होती. यूपी और उत्तराखंड या मणिपुर को भी विमर्श के इस दायरे के बाहर रखा जा सकता है, लेकिन जहां जहां आम आदमी पार्टी ने प्रयास किये हैं वहां तो समझने का तरीका एक जैसा ही होगा. है कि नहीं?

राजनीतिक बयान की बात और है, लेकिन अगर वास्तव में राहुल गांधी को हकीकत नहीं समझ आ रही है तो कर्नाटक और राजस्थान चुनाव में बहुत ज्यादा दिन नहीं हैं. साल भर के भीतर दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.

जहां कांग्रेस और बीजेपी का फर्क खत्म हो जाता है!

राहुल गांधी का कहना है कि केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की संगठनात्मक शक्ति और मनी-पावर के बावजूद कांग्रेस ने उसके खिलाफ लड़ाई लड़ी और जीता भी. मान लेते हैं, उनको अपनी बात कहने का हक है. लेकिन राहुल गांधी को ये भी बताना चाहिये कि गुजरात में वो ये सब क्यों नहीं कर पाये - या फिर क्यों और कैसे चूक गये? जो आम आदमी पार्टी गुजरात में कांग्रेस के वोट काट देती है, वो राहुल गांधी के हिसाब से ही हिमाचल प्रदेश में प्रॉक्सी भूमिका निभाने से कैसे चूक जाती है?

rahul gandhi, jp naddaसंघ और बीजेपी से विचारधारा की लड़ाई का राहुल गांधी का दावा बेमानी लगता है

राहुल गांधी के मन में ज्यादा गुस्सा आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन को लेकर है. हो भी क्यों न? दिल्ली और पंजाब के बाद AAP ने गुजरात में भी कांग्रेस को खत्म करना शुरू कर दिया है. और वो काफी तेजी से तरक्की भी कर रही है.

कांग्रेस तकनीकी तौर पर भले ही राष्ट्रीय दल है, लेकिन व्यावहारिक तौर पर उसकी राजनीतिक हैसियत क्षेत्रीय दलों से कोई बहुत बेहतर तो है नहीं. और ये अभी अभी की बात नहीं है. हिमाचल प्रदेश में अभी तो कांग्रेस की सरकार तो बन गयी है, लेकिन क्या 2024 में वो बीजेपी को रोक पाएगी? 2018 के विधानसभा चुनाव में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकारें बनी थीं, लेकिन 2019 के लोक सभा चुनाव के नतीजों से ऐसा कुछ महसूस तो हुआ नहीं. कांग्रेस के क्षेत्रीय नेता तो अपना कमाल दिखा देते हैं, लेकिन राष्ट्रीय नेता क्यों चूक जाते हैं?

और क्षेत्रीय दलों के बारे में राहुल गांधी की ये कोई नयी राय नहीं बनी है. मई, 2022 में राजस्थान के उदयपुर में हुए कांग्रेस के नव संकल्प चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कहा था, 'क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी-आरएसएस का सामना नहीं कर सकतीं - क्योंकि उनकी कोई भी वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं होती है.'

और राहुल गांधी के बयान के करीब दो हफ्ते बाद पटना में जेपी नड्डा ने कुछ कहा, ऐसा ही लगा जैसे दोनों के विचार तो बिलकुल एक जैसे हैं. विचारधारा की लड़ाई जैसी बातें तो बस आम अवाम को भटकाने भर के लिए ही है.

पटना में बीजेपी कार्यकर्ताओं से मुखातिब जेपी नड्डा के निशाने पर मुख्य रूप से तो कांग्रेस ही थी, लेकिन उसी के बहाने वो नीतीश कुमार की जेडीयू और लालू यादव की आरजेडी के बारे में भी समझाने की कोशिश कर रहे थे.

कांग्रेस को लेकर जेपी नड्डा ने कहा था, भारतीय जनता पार्टी के विरोध में लड़ने वाली कोई राष्ट्रीय पार्टी बची नहीं. बोले, 'मैं कहता हूं चालीस साल लगाकर भी वो हमारे बराबर नहीं खड़ी हो सकती... हम जिस तरह की पार्टी हैं, वो दो दिनों में नहीं आता... ये आता है संस्कार से और संस्कार कार्यालय से ही आता है.'

और उसके बाद जो जेपी नड्डा ने कहा था वो राहुल गांधी से ही उधार ली हुई लाइन थी, 'हमारी पार्टी की विचारधारा इतनी मजबूत है कि लोग बीस साल दूसरी पार्टियों में रहकर हमारी पार्टी में आ रहे हैं.'

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की विचारधारा की लड़ाई के विपरीत जेपी नड्डा ने समझाया, 'हमारी असली लड़ाई परिवारवाद और वंशवाद से है.'

क्षेत्रीय दल ज्यादातर जगह हावी हैं

कांग्रेस का किला कमजोर होने के बाद 1989 में जब विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने तो, वो क्षेत्रीय नेताओं और उनकी पार्टियों के भरोसे ही राजीव गांधी के खिलाफ खड़े हो पाये थे. राष्ट्रीय स्तर पर न सही, लेकिन राज्यों में तो क्षेत्रीय दलों का दबदबा तब भी कायम था - तमिलनाडु से लेकर हरियाणा तक.

क्षेत्रीय दल चुनाव ही नहीं जीतते आ रहे हैं, बल्कि सरकारें भी चला रहे हैं. तमिलनाडु में राष्ट्रीय पार्टियों के लिए तो डीएमके और एआईएडीएमके के बगैर कांग्रेस की कौन कहे, मौजूदा दौर की सबसे ताकतवर बीजेपी के लिए भी घुसना मुश्किल क्या नामुमकिन सा है - और ये 2019 ही नहीं, 2021 में भी साबित हो चुका है.

हाल तक तो एनसीपी और शिवसेना भी महाराष्ट्र में सरकार चला ही रही थीं. कांग्रेस तो पुछल्ली बनी हुई थी. और बिहार, झारखंड और तमिलनाडु में अब भी यही हाल है.

ओडिशा को लेकर कांग्रेस और बीजेपी की कोशिशें कोई कम तो रही नहीं. आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी करीब करीब वही हाल है - नॉर्थ-ईस्ट में भी कहानी कोई अलग सुनने को तो नहीं ही मिलती.

क्या क्षेत्रीय दलों की कोई आइडियोलॉजी नहीं है?

क्या एनसीपी के पास अपनी कोई आइडियोलॉजी नहीं है? ये तो शरद पवार का ही कहना रहा है कि वो कांग्रेस की आइडियोलॉजी से प्रभावित रहे इसलिए अपनी पार्टी के नाम में भी कांग्रेस जोड़ रखा है - और तृणमूल कांग्रेस का मामला भी तो मिलता जुलता ही है. ये दोनों तो कांग्रेस से ही निकल कर अपनी जगह बनाये हैं. और देखा जाये तो अपने दायरे में कांग्रेस से भी बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं.

और सिर्फ ये ही क्यों जनता परिवार से निकले क्षेत्रीय दलों ने ही कहां अपनी आइडियोलॉजी बदली है? सबके सब तो समाजवाद की ही बात करते हैं. अभी तो पुराने जनता परिवार को एकजुट करने की कोशिशें भी नीतीश कुमार की तरफ से हो रही है.

नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू की ही तरह बीजेडी, जेडीएस भी तो हैं. आरजेडी हो या लोक दल सबके सब तो एक ही स्रोत से निकले हुए राजनीतिक मंच हैं - और समाजवादी पार्टी का तो नाम ही काफी है. नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी की भी अपनी विचारधारा है, कश्मीर केंद्रित ही सही.

चाहे मायावती हों या चिराग पासवान - ये नेता भी कोई आयातित तो हैं नहीं. अगर जातीय राजनीति के आधार पर विचारधारा को झुठलाने की कोशिश चल रही है, तो चुनावों में कांग्रेस और बीजेपी के उम्मीदवार तय करने का आधार कोई और है क्या?

देश के लिए दृष्टिकोण

राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों का महत्व कम करने के लिए राष्ट्र के प्रति उनके नजरिया का भी जिक्र किया है. क्या राहुल गांधी ने कभी ये जानने की जहमत उठायी कि देश के प्रति उनके या कांग्रेस के विचार को देश के लोग कैसे देखते हैं?

आखिर क्यों देश के प्रति कांग्रेस और राहुल गांधी के विचार को लोग बिलकुल वैसा ही समझने लगे हैं, जैसा संघ और बीजेपी की तरफ से समझाया जाता है? आखिर ये कांग्रेस और राहुल गांधी के प्रति अविश्वास नहीं तो क्या है?

2019 के आम चुनाव में राहुल गांधी 'चौकीदार चोर है' का नारा लगा भी रहे थे और अपनी रैलियों में लगवा भी रहे थे, लेकिन बीजेपी के नेताओं ने समझा दिया कि कांग्रेस और राहुल गांधी विपक्षी दलों के साथ मिल कर देश के खिलाफ काम कर रहे हैं. राहुल गांधी के बयानों पर पाकिस्तान में हेडलाइन बनती है - और पूरे देश की कौन कहे, अमेठी के लोगों ने भी बाकी बातों के साथ मान लिया कि राहुल गांधी पाकिस्तान परस्त हैं.

राहुल गांधी कह रहे हैं, कोई भी क्षेत्रीय दल देश के लिए दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है... ये बात कांग्रेस को दूसरों से अलग बनाती है.

अपने बारे में, कांग्रेस के बारे में आप जो भी दावे करें - लेकिन ये तय करने वाले आप कौन होते हैं कि देश को लेकर किसी और के पास कोई दृष्टिकोण नहीं है?

देश को लेकर तो सबका अपना नजरिया हो सकता है, चाहे वो राष्ट्रीय पार्टी हो या कोई क्षेत्रीय पार्टी. राहुल गांधी को ये नहीं भूलना चाहिये कि राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा चुनाव आयोग किसी राजनीतिक दल के देश के प्रति नजरिये को देख कर नहीं देता - बल्कि लोगों तक उसकी पहुंच और चुनावी प्रदर्शन के आधार पर तय करता है - आम आदमी पार्टी ताजातरीन मिसाल है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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