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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 04 अप्रिल, 2018 01:41 PM
अभिरंजन कुमार
अभिरंजन कुमार
  @abhiranjan.kumar.161
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भारतीय समाज को बांटने वाली शक्तियों ने समय-समय पर बंटवारे की भावना को उभारकर हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों इत्यादि को अलग-अलग कर दिया. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमान भी भारत की मुख्यधारा से अलग नहीं हैं और उनमें से ज़्यादातर मुगल शासकों के अत्याचारी शासन के दौरान धर्मांतरित लोगों के वंशज हैं, लेकिन उनमें भी लगातार इस तरह की भावना भरी गई कि एक दिन उनका एक बड़ा तबका पाकिस्तान लेकर हमसे अलग हो गया और फिर उन्हीं से बांग्लादेश भी बना.

हाल-फिलहाल, ऐसी ही शक्तियों ने कर्नाटक में लिंगायतों को भी अल्पसंख्यक का दर्जा देने का प्रस्ताव पारित कर उन्हें मुख्यधारा से अलग करने और कर्नाटक एवं भारत को कमज़ोर करने की साजिश रची है. मूल रूप से, ऐसी ही शक्तियां हमारे दलित भाइयों-बहनों को भी लगातार उकसा रही हैं, ताकि वे खुद को अलग-थलग महसूस करें. दलितों को उकसाने वाले अनेक तत्व पहले भी धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा दे-देकर यह साबित करते रहे हैं कि वे एकता की बजाय बंटवारे में यकीन करने वाले लोग हैं.

sc st violenceये हिंसा उकसाने का ही नतीजा है

पिछले नौ सौ सालों में भारत की सांस्कृतिक एकता को कमज़ोर करने के इन प्रयासों के मुख्य रूप से तीन चरण रहे हैं. पहले मुगल आक्रांताओं ने भारतीय लोगों के साथ तरह-तरह से बर्बर व्यवहार करके बड़ी संख्या में उन्हें धर्मांतरित और हमारी मुख्यधारा से अलग होने के लिए मजबूर किया. फिर अंग्रेज़ों ने लगातार भारतीय समाज को बांटने और राज करने के फॉर्मूले पर काम किया. फिर देश की आज़ादी के बाद भी अनेक ताकतें वोट बैंक की राजनीति करने लगीं और इसके तहत चुनावी जीत का समीकरण बनाने के चक्कर में बंटवारे की भावना को उकसाते रहने को ही अपना मुख्य हथियार बना लिया.

भारत को बांटने की साज़िशें रचने वाली इन शक्तियों में अनेक एनजीओ, धार्मिक, राजनीतिक और वैचारिक संस्थाएं भी शामिल हैं. इनमें से अनेक के पास भारी मात्रा में विदेशों से भी पैसा आता है. यह पैसा तरह-तरह की चैरिटी के नाम पर खुले तरीके से भी आता है और छिपे तरीके से भी आता है. यह एक ऐसी बात है, जिसे सभी जानते हैं, लेकिन जब तक कि भारतीय कानून और संविधान के मुताबिक साबित होने लायक कोई गैरकानूनी काम न हुआ हो, और सरकार की इसे सचमुच में रोकने की मंशा हो, तब तक इसे रोकना संभव नहीं है. ये बांटने वाली शक्तियां हम भारतीयों की इसी मजबूरी का फ़ायदा उठाती हैं.

मेरा मानना है कि इन बांटने वाली शक्तियों को छोड़कर भारत में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है, जो दलितों को अपने जिगर का टुकड़ा, हृदय की धड़कन या अपने शरीर का लहू नहीं मानता. मैं चाहता हूं कि भारत में जातियां ख़त्म की जाएं, दलितों पर से दलित होने का ठप्पा हटाया जाए, पिछड़ों पर से पिछड़ा होने का ठप्पा हटाया जाए और अगड़ों पर से भी अगड़ा होने का तमगा हटाया जाए. जातियां ख़त्म होंगी, तभी सबकी बेहतरी होगी और भारतीय समाज सामूहिक रूप से आगे बढ़ेगा, क्योंकि पिछले 70 साल में हमने देख लिया है कि जातियों को बरकरार रखकर न वे जातियां आगे बढ़ पा रही हैं, न भारतीय समाज आगे बढ़ पा रहा है, ऊपर से लगातार मनमुटाव का ख़तरा बना रहता है.

मेरा मानना है कि जातियों को अचानक ख़त्म करना तो संभव नहीं हो पाएगा, क्योंकि बांटने वाली ताकतें इसे अचानक ख़त्म करने नहीं देंगी. इसलिए भारत की सरकार को मेरा सुझाव है कि अंतर्जातीय विवाहों के संशोधित रूप को बढ़ावा दिया जाए. अंतर्जातीय विवाहों के संशोधित रूप से मेरा तात्पर्य उस अंतर्जातीय विवाह से नहीं है, जिसकी आजकल कई लोग वकालत करते हैं. उदाहरणस्वरूप, मैं यह नहीं चाहता कि एक जाति की लड़की दूसरी जाति के लड़के से शादी करके लड़के की जाति में शामिल हो जाए और फिर उसके बच्चे भी लड़के की जाति के माने जाएं. क्योंकि इससे जातियों की दीवारें टूटती नहीं, केवल व्यक्ति एक जाति से दूसरी जाति में चला जाता है.

इसलिए, मेरा मानना है कि जब एक जाति की लड़की और अन्य जाति का लड़का आपस में विवाह करने का फैसला करते हैं, तो उनके पास यह विकल्प हो कि दोनों अपनी-अपनी जाति छोड़ दें और सरकार उनके लिए यह व्यवस्था करे कि वे सरकारी और कानूनी दस्तावेजों में

(1) या तो अपनी जाति/कैटेगरी, धर्म और राष्ट्रीयता तीनों कॉलमों में भारतीय, भारतीय और भारतीय लिख सकें.

(2) या फिर वे चाहें तो अपनी जाति/कैटेगरी और धर्म दोनों कॉलमों में हिन्दू और हिन्दू लिख सकें और राष्ट्रीयता के कॉलम में भारतीय लिखें.

(3) या फिर वे चाहें तो जाति/कैटेगरी का कॉलम खाली छोड़ दें और धर्म के कॉलम में हिन्दू और राष्ट्रीयता के कॉलम में भारतीय लिखें.

तात्पर्य यह कि किसी पर किसी बात के लिए दबाव तो न डाला जाए, लेकिन उनके पास यह विकल्प हो कि वे स्वेच्छा से अपनी-अपनी जातियां छोड़ दें. ऐसा करने के लिए ऐसे सभी जातिमुक्त भारतीयों को प्रोत्साहन के तौर पर सरकार कुछ विशेष सुविधाएं भी दे सकती है. मुझे पूरा विश्वास है कि जातिवाद के विषवृक्ष को समाप्त करने एवं देश की एकता और अखंडता को बढ़ावा देने के लिए नए नौजवानों को दी जाने वाली इन सुविधाओं का भारत के सभी समझदार लोग समर्थन करेंगे और उससे किसी को कोई एतराज नहीं होगा. वास्तव में जो लोग जातियों की दीवारों के बीच घुट रहे हैं, उनके लिए इससे बाहर निकलने का इससे बेहतर कोई फॉर्मूला नहीं हो सकता.

आज एससी-एसटी एक्ट को लेकर जो लड़ाई है, वह यही तो है कि श्रेष्ठता-भाव से भरे कुछ दबंग किस्म के लोग विकास की धारा में पीछे रह गए अन्य कुछ लोगों को उनकी जातियों के नाम से तरह-तरह से प्रताड़ित करते हैं, लेकिन यह समस्या तो तब तक रहेगी, जब तक अलग-अलग जातियां रहेंगी. लेकिन सोचिए कि अगर जातियां ही ख़त्म हो जाएंगी, और सभी एक ही पहचान के अंतर्गत आ जाएंगे, तो कौन किसको किस आधार पर नीचा दिखाएगा?

इसलिए, मेरा स्पष्ट मानना है कि आज की व्यवस्था में लोगों को जातियों के प्रति कट्टरता दिखाने के लिए प्रोत्साहन दिया जा रहा है, जो कि देश के लिए घातक है. जबकि नएफॉर्मूले में नौजवानों को जातियां छोड़कर एकजुट होने के लिए प्रोत्साहन दिया जाएगा, जिससे दो-तीन पीढ़ियों में ही देश से जातियों का नामोनिशान मिट जाएगा. मौजूदा फॉर्मूले पर चलकर इस देश ने 70 साल गंवा दिए हैं. क्या अगले 70 साल यह देश इस नए फॉर्मूले पर चलकर देख सकता है? मेरा दावा है कि अगर देश यह फैसला कर सके, तो 70 साल बाद उसकी एकता और अखंडता समूची दुनिया के लिए मिसाल होगी, वह बुलंदियों पर होगा और हिन्दू समाज की भी सबसे बड़ी बुराई, जो कि निश्चित रूप से जातिवाद ही है, वह पूरी तरह से समाप्त हो चुकी होगी.

youth indiaक्या अगले 70 साल यह देश इस नए फॉर्मूले पर चलकर देख सकता है?

कोई भी देश जाति, धर्म, भाषा आदि के बंटवारे पर चलकर आगे नहीं बढ़ सकता. भारत की विविधता भारत की ताकत है, लेकिन भारत की अनेकता उसकी ताकत नहीं हो सकती. हमें विविधता को कायम रखना है और अनेकता को लगातार कम करते हुए एकता को बढ़ावा देते रहना होगा. भारतीय समाज जाति, धर्म, भाषा के नाम पर जितने टुकड़ों में बंटेगा, उसके हर टुकड़े की कमज़ोरी उतनी ही बढ़ती जाएगी. हम जिन बांटने वाली शक्तियों की तरफ इशारा कर रहे हैं, हमें उनके मंसूबों को विफल करना होगा.

याद रखें, एक-एक लकड़ी को तोड़ना आसान है, जबकि गट्ठर को तोड़ना किसी महाबली के लिए भी संभव नहीं है. अगर बचपन में पढ़ी इस कहानी को हम याद रखें, तो हमारी मज़बूती और तरक्की को कोई बाधित नहीं कर सकता.

इधर, कुछ दिनों से एससी-एसटी एक्ट को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर जिस तरह का माहौल बनाया जा रहा है, वह लोगों को गुमराह और विभाजित करने वाला है. इस एक्ट को लेकर हुई हिंसा में मारे गए लोगों के लिए मैं विचलित हूं और उनके साथ ही मुझे अपना भी खून बह गया महसूस हो रहा है. जहां तक मैं समझ पाया हूं, उसके मुताबिक सुप्रीम कोर्ट ने इस एक्ट को ख़त्म करने के लिए नहीं कहा है, बल्कि केवल इतना कहा है कि इसका दुरुपयोग न हो, और इसके लिए किसी की गिरफ्तारी से पहले मामले की थोड़ी छानबीन कर ली जाए. ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट ने दहेज-विरोधी कानून आईपीसी की धारा 498 के लिए भी कहा है, क्योंकि उस कानून का भी दुरुपयोग काफी बढ़ गया था.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब 498 के मामलों में किसी की गिरफ्तारी से पहले मामले की थोड़ी छानबीन कर लेने के लिए कहा, तो इसका मतलब यह नहीं कि सुप्रीम कोर्ट या भारत की सरकार महिला-विरोधी हैं. इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट ने अभी एससी-एसटी एक्ट के संदर्भ में जो कुछ भी कहा है, वह महज इस एहतियात भर के लिए है कि कोई निर्दोष व्यक्ति किसी गलत शिकायत का शिकार न बन जाए. मुझे नहीं लगता कि इससे हमारे दलित भाइयों-बहनों को मिली कानूनी सुरक्षा पर कोई नकारात्मक फ़र्क़ पड़ने वाला है.

मेरा मानना है कि जब बांटने वाली शक्तियां प्रबल हों, तो लोगों को सही तरीके से समझाने और सावधान करने के लिए जिस पैमाने पर काम किया जाना चाहिए, उस पैमाने पर काम करने में भारत की पिछली तमाम सरकारों की तरह ही, मौजूदा सरकार भी पूरी तरह विफल रही है. लेकिन, कभी भी देर नहीं होती. जब से जागो तभी सवेरा. क्या मेरे देश की सरकार बंटवारे वाली जाति-व्यवस्था को ख़त्म करने और देश की एकता और अखंडता को मज़बूत करने के लिए जातियों को ख़त्म करने के लिए उपरोक्त फॉर्मूले को टेस्ट करने की छोटी-सी पहल कर सकती है?

आज इस लेख के माध्यम से मैं अपनी जाति/कैटेगरी हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ने का एलान करता हूं और इसके लिए व्यक्तिगत मुझे सरकार या समाज से कोई विशेष सुविधा भी नहीं चाहिए. क्या मेरे देश की सरकार अपने दस्तावेज़ों में मुझे उपरोक्त तीन में से किसी भी तरीके से जाति/कैटेगरी छोड़ने का विकल्प दे सकेगी?

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लेखक

अभिरंजन कुमार अभिरंजन कुमार @abhiranjan.kumar.161

लेखक टीवी पत्रकार हैं.

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