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Updated: 12 सितम्बर, 2022 01:21 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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महागठबंधन का मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की तरफ से दो प्रमुख दावे किये जा रहे हैं - एक, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) 2024 के आम चुनाव के बाद सत्ता में वापसी नहीं कर पाएंगे - और दो, वो खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं. वैसे नीतीश कुमार ने बीजेपी के सत्ता से बाहर हो जाने का दावा करते हुए प्रधानमंत्री का नाम नहीं लिया है, बस इतना ही कहा था कि जो 2014 में आये थे.

कोई पूछता है तब भी और नहीं पूछता है, तब भी नीतीश कुमार आजकल ये दोहराना नहीं भूलते कि वो सिर्फ विपक्ष को एकजुट करने में जुटे हैं. वो ये भी बताते हैं कि वो बीजेपी को सत्ता से बाहर करने के लिए काम कर रहे हैं. वो ये भी समझाते हैं कि फिलहाल प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार (Prime Minister Candidate) या नेता कौन होगा, मुद्दा नहीं होना चाहिये.

आखिर नीतीश कुमार को ये बात पर बार बार जोर देकर कहनी क्यों पड़ रही है? और ऐसा ही दावा तो ममता बनर्जी भी करती रही हैं. केसीआर की तरफ से भी करीब करीब ऐसा ही बयान आया है. यहां तक कि नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद के दावेदार होने को लेकर भी केसीआर का जवाब रहा कि अगर वो अपनी तरफ से कह भी दें तो कोई मानेगा नहीं?

ये तो है कि सत्ता पक्ष के खिलाफ अब तक कोई भी मोर्चा इसलिए भी नहीं खड़ा हो पाता क्योंकि हर छोटे बड़े राजनीतिक दल का नेता प्रधानमंत्री पद का दावेदार होता ही है - और कांग्रेस तो नेचुरल दावेदारी समझती है. ममता बनर्जी भी कांग्रेस को विपक्षी गठबंधन से इसीलिए किनारे करने लगाने में लगी थीं क्योंकि राहुल गांधी का प्रदर्शन जैसा भी हो, प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी तो खत्म नहीं होने वाली.

अभी अभी हुए एक सर्वे में भी लोगों से पूछा गया कि नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने में कामयाब हो पाएंगे क्या? सीवोटर के सर्वे में महज 44 फीसदी लोगों को ही ऐसी उम्मीद है कि नीतीश कुमार विपक्ष को बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ 2024 में एकजुट कर पाने में कामयाब रहेंगे, बाकी 56 फीसदी लोगों को नहीं लगता कि नीतीश कुमार ऐसा कुछ कर भी पाएंगे?

क्या नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद को लेकर बार बार डिस्क्लेमर पेश करने की ये भी वजह हो सकती है? सर्वे के जरिये लोगों से ये जानने की भी कोशिश हुई कि क्या नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने से बीजेपी को फायदा हो सकता है? जवाब में 53 फीसदी लोगों ने माना कि बीजेपी को फायदा हो सकता है, लेकिन 47 फीसदी लोग ऐसे भी मिले जो मान कर चल रहे हैं कि नीतीश कुमार के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से बीजेपी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है.

नीतीश कुमार अभी तक तो ऐसे ही समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि वो भी शरद पवार की ही तरह विपक्ष को एकजुट करने भर की कोशिश में हैं, ताकि बीजेपी को दिल्ली की गद्दी से विदाई दी जा सके. अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान नीतीश कुमार ने जिन नेताओं से मुलाकात की उनमें शरद पवार भी शामिल रहे.

नीतीश कुमार और शरद पवार में एक बड़ा फर्क है. शरद पवार जनाधार वाले नेता हैं - अब मालूम पड़ा है कि जल्दी ही नीतीश कुमार जातीय राजनीति के जरिये अपना जनाधार मजबूत करने की कोशिश भी कर रहे हैं.

जब नीतीश कुमार के पास सुशासन की ब्रांडिंग है, महिलाओं के मामले और शराबबंदी जैसे सामाजिक सरोकारों के लिए काम करने वाले नेता की छवि बनी हुई है, फिर नीतीश कुमार को अचानक देश भर में अपनी बिरादरी का नेता बनने की जरूरत क्यों पड़ने लगी? ऐसा क्यों लगता है कि नीतीश कुमार प्रधानमंत्री न बनने के अपने स्टैंड से पीछे भी हट सकते हैं?

जातीय जनगणना के बाद का एजेंडा

ये जातीय जनगणना का मुद्दा था जो 2020 के चुनाव के बाद नीतीश कुमार पहली बार मोदी के साथ आमने सामने बात करने की स्थिति में पहुंचे थे - और तब लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव उनके साथ बगल में बैठे हुए थे.

Nitish Kumarपाला बदलने वाली पॉलिटिक्स के अलावा भी नीतीश कुमार बहुत दूर तक की सोचते हैं - और इसीलिए लगता है कि आखिरी वक्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सामने मैदान में कूद न पड़ें!

केंद्रीय मंत्री नित्यानंद राय के संसद में जातीय जनगणना कराने से इंकार कर देने के बाद लालू यादव ने बीजेपी के खिलाफ नयी जंग का ही ऐलान कर दिया था. लालू यादव ने यहां तक कह दिया कि अगर सरकार जातीय जनगणना नहीं कराएगी तो पिछड़े वर्ग के लोग जनगणना का ही बहिष्कार कर देंगे. हालांकि, उसके बाद लालू यादव फिर से जेल चले गये और मामला कुछ दिन ठंडा पड़ा रहा.

फिर अचानक एक दिन तेजस्वी यादव ने जातीय जनगणना न होने की सूरत में दिल्ली तक मार्च करने का ऐलान कर दिया. तभी नीतीश कुमार ने मिलने के लिए बुला लिया. मुलाकात हुई, बात हुई. अब तो ये भी मान कर चलना चाहिये कि एनडीए छोड़ कर महागठबंधन ज्वाइन करने को लेकर भी नीतीश कुमार ने तेजस्वी को भरोसा दिलाया होगा. बहरहाल, तेजस्वी यादव ने मुलाकात के बाद बताया कि मुख्यमंत्री ने जातीय जनगणना राज्य के स्तर पर कराने का आश्वासन दिया और जब वो ऐसा कह रहे हैं तो भरोसा तो करना ही पड़ेगा. कुछ ही दिन बाद बीजेपी के साथ रहते हुए ही नीतीश कुमार ने वो प्रक्रिया आगे भी बढ़ा दी थी. बीच में तेजस्वी यादव की तरह से ये क्रेडिट लेने के भी प्रयास हुए कि जातीय जनगणना के लिए सबसे पहले मांग करने वाले नीतीश कुमार नहीं बल्कि लालू यादव हैं.

आगे के लिए अपडेट ये है कि नीतीश कुमार पूरे देश में जातीय राजनीति की मदद से आगे बढ़ने का प्रयास कर रहे हैं. नीतीश का नया ट्रंप कार्ड है - कुर्मी कार्ड. असल में नीतीश कुमार खुद इसी बिरादरी से ही आते हैं.

नीतीश की भी यूपी पर नजर है

2015 के बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान ही नीतीश कुमार ने शराबबंदी लागू करने का वादा किया था. सत्ता में लौटने के बाद चुनावी वादा पूरा भी किया. ये बात अलग है कि शराबबंदी के बावजूद बिहार में लगातार कई बार लोगों की मौतें भी हुईं, लेकिन ये ऐसा मुद्दा रहा कि नीतीश कुमार के विरोधी भी कभी खुल कर मुद्दा नहीं बना पाये.

नीतीश कुमार के एनडीए में रहते हुए भी बीजेपी नेता चाहे जितने भी हमलावर नजर आये हों, लेकिन शराबबंदी की समीक्षा से ज्यादा कभी डिमांड नहीं कर सके. तब विपक्ष में रहे तेजस्वी यादव भी मौतों पर चिंता जताते रहे लेकिन कभी शराबबंदी वापस लेने की मांग नहीं की.

पिछली बार महागठबंधन का नेता रहते नीतीश कुमार ने कई बार उत्तर प्रदेश का दौरा किया था - और बार बार प्रधानमंत्री मोदी को देश भर में शराबबंदी लागू करने के लिए भी ललकारते रहे. गुजरात में लागू शराबबंदी की याद भी दिलाते रहे.

तब 2017 के यूपी चुनावों के लिए नीतीश कुमार विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रहे थे. तमाम छोटे छोटे दलों के नेताओं से दिल्ली में मुलाकातें भी हुईं. तब आरएलडी नेता अजीत सिंह भी थे और गठबंधन की बात काफी आगे तक पहुंच चुकी थी. बताते हैं कि बीच में ही जयंत चौधरी के लिए डिप्टी सीएम की डिमांड रख दी गयी और बात वहीं खत्म भी हो गयी. थक हार कर नीतीश कुमार पटना में बैठ गये और फिर कभी यूपी का रुख नहीं किया. 2022 में भी चाहते थे कि कुछ सीटों पर बीजेपी से सहमति बन जाये, इसे लेकर नीतीश कुमार को आरसीपी सिंह ने आश्वस्त भी किया, लेकिन कुछ हुआ नहीं. बाद में वो योगी आदित्यनाथ के खिलाफ मुकेश सहनी के आक्रामक अंदाज को देखते हुए ही खुश हो लिये होंगे.

अब ऐसी चर्चा है कि नीतीश कुमार एक बार फिर यूपी का रुख करने जा रहे हैं - और साल के आखिर तक वो यूपी में कम से कम तीन रैलियां करने वाले हैं. खास बात ये है कि इन रैलियों में नीतीश कुमार के साथ मंच पर अखिलेश यादव और लालू यादव दोनों के मौजूद रहने की संभावना है.

तीन हफ्ते के भीतर नीतीश कुमार चार पर आरजेडी नेता लालू यादव से पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी के आवास पर जाकर मुलाकात कर चुके हैं. लालू यादव की तबीयत में भी काफी सुधार बताया जा रहा है. कुछ दिन पहले तो तबीयत काफी खराब हो गयी थी और एयर एंबुलेंस से पटना से दिल्ली ले जाना पड़ा था. तब से वो दिल्ली में ही रुक कर इलाज करा रहे थे. लेकिन नीतीश कुमार के महागठबंधन में लौटने के बाद लालू यादव भी पटना में डेरा जमा चुके हैं.

लालू यादव से ये मुलाकातें नीतीश कुमार की दिल्ली यात्रा के इर्द गिर्द ही हुई हैं. दिल्ली जाने से पहले भी नीतीश कुमार ने लालू यादव से मुलाकात की थी - और लौटने के बाद भी मिले हैं. मतलब, महागठबंधन की अखिल भारतीय रणनीति दोनों दोस्त जैसे भाई मिल कर ही बना रहे हैं.

अखिलेश यादव को लेकर तो नीतीश कुमार पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि यूपी में महागठबंधन के नेता वही होंगे. पता चला है कि नीतीश कुमार ने बीएसपी नेता मायावती से भी संपर्क किया है. मजबूरी जो भी हो, माना जा रहा है कि नीतीश कुमार से मिलने को लेकर मायावती ने कोई उत्साह नहीं दिखाया, लेकिन बाद में चाय पर चर्चा के लिए तैयार भी हो गयी हैं.

नीतीश कुमार से मुलाकात को लेकर मायावती के अनमनेपन की एक वजह तो अखिलेश यादव भी लगते हैं. अब अगर अखिलेश यादव यूपी में महागठबंधन के नेता होते हैं और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी में भी मायावती का कहीं नाम न आ रहा हो तो भला उनकी नीतीश कुमार से मिलने में दिलचस्पी क्यों होगी? बहरहाल, ये तय हो गया है कि नीतीश कुमार के लखनऊ पहुंचने पर मायावती से उनकी मुलाकात होगी - कब और कहां ये नहीं पता चला है.

कुल मिला कर ये तो साफ हो गया है कि नीतीश कुमार अब जातीय राजनीति के सहारे ही आगे बढ़ने की कोशिश करने वाले हैं - और ये राजनीति भी वो अपनी ही बिरादरी को एकजुट करते हुए करने वाले हैं.

कुर्मी बिरादरी के राष्ट्रीय नेता बनेंगे नीतीश कुमार: जिस कुर्मी बिरादरी से नीतीश कुमार आते हैं बिहार में उनकी आबादी 3.5 फीसदी है, जबकि उत्तर प्रदेश में कुर्मी आबादी 9 फीसदी है.

आपको याद होगा शुरू शुरू में हार्दिक पटेल और नीतीश कुमार को एक दूसरे के प्रति आकर्षित देखा जा रहा था, लेकिन बाद आगे नहीं बढ़ी. 2017 के गुजरात चुनाव से पहले माना जा रहा था कि नीतीश कुमार हार्दिक पटेल के लिए चुनाव प्रचार भी कर सकते हैं क्योंकि तब भी वो महागठबंधन के ही नेता हुआ करते थे.

गुजरात के पटेलों की ही तरह गंगवार और कटियार जैसी जातियां भी कुर्मी जैसी ही हैं. मध्य प्रदेश में 5 फीसदी और झारखंड में इनकी आबादी 6 फीसदी है. झारखंड में ये लोग महतो कहे जाते हैं. कहा जा रहा है कि साल के आखिर तक नीतीश कुमार को अखिल भारतीय कुर्मी सभा की तरफ से जगह जगह सम्मानित किये जाने पर भी विचार हो रहा है.

इंडियन एक्सप्रेस के अपने कॉलम में कूमी कपूर लिखती हैं, नीतीश कुमार की कोशिश सरदार पटेल की तरह कुर्मी बिरादरी का राष्ट्रीय नेता बनने की है - और ये प्रचारित करने की तैयारी है कि कुर्मी बिरादरी के लिए जो सरदार पटेल नहीं कर सके, वो सब नीतीश कुमार करके दिखाएंगे. सरदार पटेल को लेकर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहां तक कह चुके हैं कि अगर जवाहरलाल नेहरू की जगह वो देश के प्रधानमंत्री बने होते तो आज देश की तस्वीर अलग होती.

लालू यादव का नीतीश कुमार से अपना स्वार्थ है, लेकिन देखना है कि ये साथ कब तक दोनों पक्ष निभा पाते हैं. वरना, नीतीश कुमार के लिए सांप से लेकर गिरगिट तक न जाने क्या क्या लालू परिवार की तरफ से कहा जा चुका है. तेजस्वी यादव तो नीतीश कुमार को पलटू चाचा तक कह चुके हैं. वैसे अब तो राबड़ी देवी भी कह चुकी हैं - सब माफ है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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