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Updated: 31 जनवरी, 2022 02:08 PM
सरिता निर्झरा
सरिता निर्झरा
  @sarita.shukla.37
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उत्तर प्रदेश में चुनाव का मौसम है. कोरोना या सर्दी का कोई असर नहीं नज़र आ रहा क्योंकि विशाल जन सभा को भले ही कोर्ट के आदेश से रोक दिया गया हो घर घर जा कर कैम्पेनिंग पूरे ज़ोर पर है और वोट बैंक के हर दावेदार को रिझाया जा रहा है. जहां एक तरफ ओबीसी और कोटा की राजनीति चमक रही है वहीं वीमेन कार्ड हर पार्टी खेल रही है. न न गलत मत समझिये वीमेन कार्ड मतलब सीट का कार्ड यानी की नामांकन में महिलाओं को तरजीह. हर पार्टी अपनी अपनी तरह से महिलाओं को लुभाने और उनके मत अपनी तरफ खींचने में लगी है. जहां कांग्रेस ने 'लड़की हूं लड़ सकती हूं', का कैम्पेन चला कर लोगो को पूरी तरह इस रंग में रंगना चाहा वहीं इस कैम्पेन की विफलता टीम की ब्रेनस्टॉर्मिंग से ज्यादा इम्प्लीमेंटेशन पर सवाल खड़ा करती है. क्योंकि 'भाईसाहब टैग लाइन जबर थी और भिड़ने के मूड में प्रियंका कह भी गयी की सीएम का चेहरा वो हो सकती हैं लेकिन शायद हार के डर ने उन्हें बैक आउट करने पर मजबूर किया. शक्ल सूरत आवाज़ कभी भी ज़मीनी काम के अनुभव को नकार नहीं सकती. इंदिरा इंदिरा थीं. विरोधी भीउनका दम भरते थे और पासे खेलना - हारना जीतना- दोनो ही बखूबी जानती थी.

UP Assembly Elections 2022, Assembly Elections, UP, Priyanka Gandhi, Woman, Girl, Ticketयूपी चुनाव में चाहे वो कांग्रेस हो या सपा और भाजपा सबकी निगाहें महिला वोटर्स पर है

बहरहाल एक कमज़ोर विपक्ष के रूप में पार्टी और इमोशनल कार्ड पर महिलाओं को टिकट जिनकी सीधी टक्कर है सरकार से. लेकिन हम आप दोनों समझते हैं, सिसटम में रहनेवाला सबसे ताकतवर. कल ये थे आज कोई और है. हालात बदले हैं आम जनमानस की हालत नहीं. फिर भी उन्नाव जिले में पूर्णतया भावनाओं पर खेला जाने वाला इलेक्शन रण देखने लायक होगा.

दूसरी तरफ सपा और बीजेपी यूं तो पूर्णतया पुरुष प्रधान पार्टी हैं जिन्होंने समय समय आप अपनी बुद्धि का परिचय दिया है. किन्तु चुनाव के समय महिलाओं के मत की कीमत का अंदाज़ा इन्हे बखूबी है. यूं तो हर पार्टी अपने अपने तरीके से सेंध मारती है लेकिन इस मामले में बीजेपी दहला फेंक चुकी है.

सपा परिवार से अपर्णा यादव का भाजपा ज्वाइन करना बे आवाज़ तमाचे सा देखा जा रहा है. वहीं रायबरेली से चुनाव लड़ रहीं अदिति सिंह कांग्रेस की बागी नेत्री और पेशे से वकील हैं और प्रियंका के सामने डट कर खड़ी हैं. लड़की हैं लड़ सकती हैं, इस वाक्य का उदाहरण सहित व्याख्या देने को.

मज़ेदार है प्रियंका मौर्या का भाजपा से जुड़ना जो की कुछ दिन पहले तक 'लड़की हूं लड़ सकती हूं 'कहती हुई कांग्रेस की पोस्टर गर्ल थी और अब महिला सुरक्षा के नाम पर मुंह चिढ़ा कर खेमा बदल कर इधर की हों ली. हालिया चुनाव में उत्तर प्रदेश में महिला प्रत्याशियों पर भरोसा कुछ ज़्यादा दिखाया गया है. खास तौर पर कांग्रेस द्वारा, क्योंकि जहां सपा 11 महिला प्रत्याशियों के साथ मैदान में है.

भाजपा करीब 26 के साथ और कांग्रेस 103 महिला प्रत्याशियों के साथ. मतलब 40 % जबकि यही पार्टी बाकि प्रदेशों में बमुश्किल 10 % प्रतिशत महिला प्रत्याशी पर भरोसा किये बैठी हैं. तो क्या है जो उत्तर प्रदेश में ये आंकड़े हैं. राजनीती का गढ़ रहे प्रदेश और चाय पर राजनैतिक चर्चा होती ही है. चाय चौक की हो या आंगन की पर चर्चा समान.

ये महिला प्रत्याशी कितनी ज़रूरी हैं इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है की सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्री अनुराग ठाकुर स्वयं प्लेकार्ड ले कर हज़रतगंज के चौराहे खड़े थे. ये प्रत्याशी इसलिए भी ज़रूरी हैं क्योंकि उत्तरप्रदेश में जहां, 'जौन बाबू कहिएं वहीं अगूंठा लगाय देब', वाली साठ के दशक 47 प्रतिशत महिलाएं वोट डालने आती थीं. वहीं,'हमभी पढ़े लिखे है सरकारी योजना सब हमरे ही ना नाम है' वाले दशक में 60 प्रतिशत महिलाएं वोट डालने आती हैं.

देखने वाली बात ये भी है 2017 के चुनाव में जहां पुरुषों के मतदान का प्रतिशत था 59 % वहीं महिलाओं का था 63.3 %. जी हां. जागरूकता बढ़ रही है और अपने अधिकारों की समझ भी. तो हुआ न महत्वपूर्ण हिस्सा. भइया, चाची, मामी, भौजी, अम्मा जीया- चाहे तो ऊंट को किसी भी करवट बिठवा लें!

इन सभी के बीच में कुछ बातें ध्यान देने योग्य हैं!

क्या महिलाओं की स्तिथि ज्यादा महिला नेताओं के होने से सुधरेगी? निर्भया कांड में दिल्ली की मुख्यमंत्री शिला दीक्षित थी और दिसंबर की ठंड में आंदोलन करते लोगों पर पानी के कैनन चलवाने के लिए शायद इतिहास हमेशा शर्मिंदा रहेगा. क्या महिला नेता वाकई महिला नेता रहती हैं या मात्र नेता रह जाती हैं? राजनीति आपको पूरी तरह से मांगती है.

आप डॉक्टर, इंजीनियर, कवि, गायक, खिलाडी कुछ नहीं रहते - आप होते हैं तो बस राजनीतिज्ञ! नीति आपकी अपनी. क्योंकि मुख्यमंत्री पद पर आसीन होने के बाद भी हालात ऐसे नहीं बदले की की महिला वो महिला नेता को ही मिला हो. इसका कारण हमसे ज़्यादा नेताओं को सोचने की ज़रूरत है.

एक सोच ये भी है कि कोई भी पार्टी क्या पूरी तरह से महिला सुरक्षा और उसके हितों के लिए समर्पित है? न 70 साल का हवाला न 7 साल पर बहस! बात आंकड़ों पर हो और देखा जाये की महिला नेता के होने न होने से क्या ही फर्क पड़ा.

और अगर नहीं पड़ा तो बहन फर्क लाओ !

फर्क लाओं की संसद में तुम्हारे आने पर तुम्हारे कपड़ो से ज़्यादा तुम्हारे भाषण और ज़मीन पर लाये बदलाव नज़र आएं. मौके यूं न गंवाओ क्योंकि यूं भी भाती नहीं हो तुम इन्हे सत्ता के गलियारों में लेकिन क्या करें 60 प्रतिशत महिलाएं उस दिन अपना वोटर कार्ड लिए आएंगी तो बहनापे का ज़ोर नेतागिरी पर भारी पड़ सकता है. तो बस नाम को मत रहो अपना मत दो - बदलाव लाओ.

भारतीय राजनीति में महिलाओं का हस्तक्षेप नया नहीं और आप उन्हें पसंद करें न करें उनके नकार नहीं सकते और इस बात का महिला होने के नाते पुरज़ोर स्वागत करती हूं. नज़रअंदाज़ न कर पाना दिखाता है की आ तो हम गए हैं, रुकने टिकने ठहरने. हां पैठ बनाने में वक़्त लगेगा क्यों जड़ें गहरी है पुरुषसत्ता की सोच की.

फ़िलहाल स्वागत इसी बात पर है की महिला नेता महिलाओं की भागीदारी का दावा पेश करती हुई उनके मत लाएंगी. जिस दिन इन नेताओं में से किसी से सचमुच सत्ता और बदलाव का दावा पेश किया बात उस दिन होगी.

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हार का डर या वर्चस्व की कवायद तजीन फातिमा के स्वार से पर्चे ने सारी दास्तां खुद बता दी है!  

लेखक

सरिता निर्झरा सरिता निर्झरा @sarita.shukla.37

लेखिका महिला / सामाजिक मुद्दों पर लिखती हैं.

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