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Updated: 18 मई, 2019 05:17 PM
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काफी समय पहले गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था 'बंगाल आज जो सोचता है, वो भारत कल सोचेगा'. उस दौर में बंगाल साहित्य, विज्ञान, शिक्षा, सामाज सुधार और देशभक्ति की राह पर चलता था. लेकिन अफसोस कि वो वक्त अब बीत चुका है. आज अगर भारत पश्चिम बंगाल से कुछ सीख सकता है तो वो है - चुनावों में धांधली कैसे की जाए. पंचायत से संसद तक चुनावों को प्रभावित करने में कुछ कला है तो कुछ विज्ञान. और इसमें मदद करता है सामाजिक वास्तविकताओं, अर्थशास्त्र और सामान्य इंसान के मनोविज्ञान का पता होना.

बंगाल को इसमें महारथ हासिल है जिसे "वैज्ञानिक धांधली" (scientific rigging) कहा जाता है. धांधली (rigging) कोई नई बात नहीं है. सिद्धार्थ शंकर रे के नेतृत्व में कांग्रेस ने 1972 के विधानसभा चुनाव जीतने के लिए धांधली का सहारा लिया था. यह भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा था जिसे चुनाव जीतने की कला में दक्षता हासिल थी. फिलॉसोफी बिल्कुल सरल थी- अंत मूल को सही ठहराता है. और अगर इसका आश्य वोट के लिए गोलियां चलाना है, तो यही सही.

mamata-banerjeeपश्चिम बंगाल की राजनीतिक प्रयोगशाला में हिंसा हमेशा से एक महत्वपूर्ण तत्व रहा है

वाम मोर्चे ने 1977 से 2011 तक पश्चिम बंगाल पर शासन किया. अपने 30 साल से भी ज्यादा के शासन में वामपंथियों ने बंगाली समाज के हर पहलू पर घुसपैठ की. और इससे कम्युनिस्टों के लिए चुनाव प्रभावित करना आसान हो गया. नामांकन से लेकर मतदान तक, हर कदम पर पैनी जांच की जाती. शुरुआत में थोड़ी परेशानी हुई लेकिन 2006 में 14वें विधानसभा चुनावों के समय तक माकपा का चुनाव तंत्र बेहद कुशल और असरदार हो गया था.

खून की कोई कीमत नहीं

पश्चिम बंगाल की राजनीतिक प्रयोगशाला में हिंसा या हिंसा का खतरा हमेशा से एक महत्वपूर्ण तत्व रहा है. मतदाता सूची से शुरुआत करते हैं. मतदाता सूच से विपक्षी समर्थकों के नाम हटाकर बोगस नाम जोड़े जाते हैं. जो विरोधी उम्मीदवार चुनाव लड़ना चाहते हैं, उन्हें रोका जाता है. पहले विनम्रता से, और बाद में ये थोड़ा फिजिकल हो जाता है. क्षेत्र भर में लोगों की भीड़ फैला दी जाती है जिससे विपक्षी उम्मीदवार नामांकन ही दाखिल न कर सकें.

प्रतीकों का भी काफी महत्व होता है. विपक्षी उम्मीदवारों की पत्नियों को सफेद कपड़े के टुकड़े भेजे जाते हैं (बंगाली हिंदुओं में इसे विधवा होने का प्रतीक माना जाता है.) ताकि वे अपने पति को चुनाव लड़ने से रोक सकें. और निश्चित रूप से सबसे बड़ा खतरा बलात्कार का होता है. आप एक विरोधी उम्मीदवार के रूप में खड़े हों और परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहें.

1977 में माकपा के सत्ता में आने के ठीक बाद पुलिस बल, शिक्षकों और राज्य सरकार के कर्मचारियों की यूनियन बनने में तोजी आई. ये सभी लोग या तो कानून के प्रवर्तक के रूप में या बूथ अधिकारियों के रूप में चुनाव प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. मतदान केंद्रों और उसके आसपास इन लोगों का होना काफी मदद करता है.

और फिर मुख्य विपक्षी उम्मीदवार के ही नाम वाला दूसरा उम्मीदवार उतारना. ये ईवीएम से पहले होता था जब बैलट पेपर पर उम्मीदवार का चेहरा नहीं दिखता था. ये मतदाताओं को भ्रमित करने का बेहद आसान सा तरीका था.

जब कार्यकर्ता मैदान में उतरते हैं

मतदान के दिन तक, अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में अपने हजारों कार्यकर्ताओं को फैला दिया जाता है जो मतदाताओं को विपक्ष को वोट देने के नुक्सान याद दिलाते रहते हैं. आमतौर पर धीरे से हाथ मरोड़ा जाता है लेकिन उससे ये इशारा कर दिया जाता है कि आगे और भी बहुत कुछ हो सकता है. ये रणनीति मतदाताओं को सिर्फ ये बताने के लिए है कि वोट देने मत आओ, उनके वोटों का ध्यान रख लिया जाएगा. चिलचिलाते सूरज के नीचे लाइन में क्यों खड़े होना जब "पार्टी" खुद एमएलए या सांसद चुनने जैसे मामूली कामों का ध्यान रख सकती है? आखिर मार्क्सवादी पार्टी लोगों की ही तो पार्टी है?

लेकिन कुछ जिद्दी मतदाता भी होते हैं जो अपने मताधिकार का प्रयोग खुद करना पसंद करते हैं. जब वो मतदान केंद्र पर पहुंचते हैं तो उन्हें एक लंबी कतार मिलती है, जो आमतौर पर फर्जी मतदाताओं की होती है. ये फर्जी मतदाता मतदान अधिकारियों के साथ बहस करके समय बर्बाद करने में मदद करते हैं. मतदान करने के स्थान को खिड़कियों के पास लगाया जाता है ताकि सही उम्मीदवार चुनने में मतदाताओं को बाहर से मदद मिल सके और ये भी पता लग सके कि किसने विपक्ष को वोट दिया.

votingखिड़की से मतदाताओं को मदद की जाती है

विपक्षी मतदाताओं का पता लगाने के लिए ईवीएम युग में एक नया तरीका निकाला गया है. EVM मशीन पर विपक्ष के बटन पर बहुत तेज सुगंध वाला इत्र लगा दिया जाता है. पार्टी के कार्यकर्ता मतदाताओं की उंगलियों को सूंघकर पता लगा लेते हैं कि किसने विपक्ष को वोट किया है.

और फिर बम का इस्तेमाल भी किया जाता है. इससे मतदाताओं में डर भी आ जाता है और सुरक्षा बलों का ध्यान भी भटक जाता है. पश्चिम बंगाल में चुनावों को लेकर हमेशा एक डर बना रहता है. और इसका मुख्य कारण बढ़ता हुआ आतंक है. प्रतिद्वंद्वियों के पोलिंग एजेंटों को ऐसे पीटा जाता है जैसे वो मतदाता हों.

ये हिंसा तृणमूल कांग्रेस के शासन में और भी ज्यादा उग्र हो गई है. और चिंताजनक बात ये है कि पिछले कुछ सालों में हिंसा का संस्थानीकरण हुआ है. निश्चित रूप गोपाल कृष्ण गोखले का ये मतलब नहीं था.

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