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Updated: 05 अप्रिल, 2016 11:30 AM
पीयूष द्विवेदी
पीयूष द्विवेदी
  @piyush.dwiwedi
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एक कथन है कि शत्रु का शत्रु सबसे अच्छा मित्र होता है. चीन यह बात बहुत अच्छे से जानता है. इसी नाते वह भारत को दुश्मन मानने वाले पाकिस्तान को साधने तथा उसका भारत के खिलाफ इस्तेमाल करने की लगातार कोशिश करता रहता है, जिसमे कि उसे अपेक्षित कामयाबी भी मिली है. इसका सबसे ताजा उदाहरण हाल में देखने को मिला जब भारत ने पठानकोट हमले तथा देश में हुए अन्य कई और आतंकी हमलों के गुनाहगार जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबन्ध लगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में प्रस्ताव पेश किया.

भारत के इस प्रस्ताव पर विचार करने को 15 में से 14 देश सहमत थे. लेकिन, अकेले चीन इसके विरुद्ध खड़ा था. उसने भारत के इस प्रस्ताव के खिलाफ अपने वीटो का प्रयोग कर इसे निष्प्रभावी कर दिया. चीन ने तर्क यह दिया कि मसूद अज़हर आतंकी होने के संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित मानदंडों को पूरा नहीं करता है, इसलिए उस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता. भारत ने इसपर अपनी कड़ी प्रतिक्रिया जरूर जाहिर की है, मगर उससे चीन पर कोई प्रभाव पड़ता नहीं दिख रहा.

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 मसूद अजहर

दरअसल यह तो एक मौका है जब चीन का पाक प्रेम और भारत विरोध अंतर्राष्ट्रीय पटल पर सामने आया है. अन्यथा तो वो लम्बे समय से और विभिन्न स्तरों पर भारत के खिलाफ पाक का साथ देता रहा है. विगत दिनों चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पाकिस्तान दौरे के दौरान भी चीन का ऐसा ही कुछ रुख देखने को मिला था, जब उसने इस दौरे के दौरान भारत की तमाम आपत्तियों के बावजूद गुलाम कश्मीर से होकर गुजरने वाले 46 अरब डॉलर के चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरीडोर की शुरुआत कर दी थी.

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इसके अलावा चीन की तरफ से पाकिस्तान को घोषित-अघोषित रूप से तमाम आर्थिक व तकनिकी सहयोग आदि मिलता रहता है. साथ ही, जम्मू-कश्मीर विवाद को लेकर भी चीन अकसर पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा होता रहा है और पाक अधिकृत कश्मीर में तो उसके सैनिकों की मौजूदगी की बात भी सामने आ चुकी है. अब वैसे तो चीन का पाक-प्रेम नया नहीं है मगर हाल के एकाध वर्षों में ये प्रेम काफी ज्यादा बढ़ता दिख रहा है. इसका कारण यही प्रतीत होता है कि विगत वर्ष भारत में नई सरकार के गठन के बाद से ही भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भारतीय विदेश नीति को जिस तरह से साधा गया है, उसने कहीं न कहीं भीतर ही भीतर चीन को परेशानी में डाल दिया है. फिर चाहें वो एशिया हो या योरोप मोदी भारतीय विदेश नीति को सब जगह साधने में पूर्णतः सफल रहे हैं.

एशिया के नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश, मालदीव, जापान आदि देश हों, विश्व की द्वितीय महाशक्ति रूस हो या फिर यूरोप के फ़्रांस, जर्मनी हों अथवा स्वयं वैश्विक महाशक्ति संयुक्त राज्य अमेरिका, इन सबके दौरों के जरिये प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले 10-11 महीनों के दौरान भारतीय विदेश नीति को एक नई ऊंचाई दी है. साथ ही इनमें से अधिकांश देशों के राष्ट्राध्यक्षों का भारत में आगमन भी हुआ है.

भारत की बढ़ती वैश्विक साख ने चीन को परेशान किया हुआ था कि तभी भारत के दबाव में आकर श्रीलंका ने चीन को अपने यहां बंदरगाह बनाने की इजाजत देने से इंकार कर दिया. वहीं दूसरी तरफ भारतीय प्राधानमंत्री नरेंद्र मोदी मॉरीशस और सेशेल्स में एक-एक द्वीप निर्माण की अनुमति प्राप्त कर लिए. इन बातों ने चीन को और परेशान कर के रख दिया.

कहीं न कहीं भारत की इन्हीं सब कूटनीतिक सफलताओं से भीतर ही भीतर बौखलाए चीन की बौखलाहट इन दिनों पाकिस्तान पर हो रही भारी मेहरबानी के रूप में सामने रही है. कहने की जरूरत नहीं कि इन सब गतिविधियों के मूल में चीन का एक ही उद्देश्य है कि पाकिस्तान के जरिये भारत को दबाया जाए और परेशान किया जाए. चूंकि, पाकिस्तान भारत का ऐसा निकटतम पडोसी है, जिससे भारत के सम्बन्ध अत्यंत खटास भरे रहते आए हैं. चीन भारत-पाक संबंधों की इसी अस्थिरता का लाभ लेने की कोशिश में रहता है और कूटनीतिक दृष्टिकोण से उसका ये करना गलत भी नहीं कहा जा सकता.

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 चीन और पाकिस्तान का याराना

ऐसे में, सवाल यह है कि चीन-पाक के इस गठजोड़ का भारत के लिए कितना महत्व है ? क्या इसमें भारत के लिए चिंतित होने जैसा कुछ है ? निस्संदेह चीन की असीमित शक्ति और पाकिस्तान की कुटिल प्रवृत्ति का ये एका भारत के लिए चिंताजनक है और इस सम्बन्ध में भारत को पूरी तरह से सचेत रहने की आवश्यकता है. अब सवाल उठता है कि भारत चीन-पाक के इस गठजोड़ के खिलाफ किस रणनीति के तहत चले कि चीन को जवाब भी मिल जाए और भारत को कोई हानि भी न हो. मतलब कि सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे. इस संदर्भ में किसी विद्वान का यह कथन उल्लेखनीय होगा कि अटैक इज द बेस्ट डिफेंस. भारत के प्रति चीन की विदेश व कूटनीति हमेशा से इसी कथन पर आधारित रही है. वो शुरू से ही भारत के प्रति यही नीति अपनाता रहा है, पर भारत ने हमेशा से चीन के प्रति रक्षात्मक रवैया अख्तियार करने में ही विश्वास किया है.

मगर अब समय बदल गया है तो भारत को अपने इस रक्षात्मक रुख में परिवर्तन लाना चाहिए. चीन के प्रति आक्रामक रुख अपनाते हुए भारत चाहे तो उसे उसीकी नीतियों के जरिये दबा सकता है. अब जैसे कि चीन-पाक गठजोड़ का प्रश्न है तो चीन के इस वार का प्रतिकार भारत जापान के रूप में कर सकता है. चूंकि, विगत कुछ वर्षों से चीन-जापान संबंधों में समुद्री द्वीपों को लेकर काफी खटास आई है. भारत इस स्थिति का लाभ लेते हुए जापान को अपनी ओर कर चीन को काफी हद तक परेशान कर सकता है.

इसके अलावा अन्य छोटे और कमजोर एशियाई देशों से अपने संबंधों को बेहतर कर तथा उनका समर्थन हासिल करके भी भारत चीन-पाक गठजोड़ की चीनी कूटनीति को जवाब दे सकता है. सुखद बात यह है कि मोदी सरकार के आने के बाद इस दिशा में कदम उठाए गए हैं, लेकिन जरूरत है कि इन संबंधों को और मजबूती दी जाय तथा कूटनीतिक दृष्टिकोण से इनका लाभ लेने के लिए कदम भी उठाए जाएं. ऐसे ही, जम्मू-कश्मीर मामले में चीन के हस्तक्षेप को जवाब देने के लिए भारत का सबसे उपयुक्त अस्त्र तिब्बत है. वैसे भी, तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा भारत से अत्यंत प्रभावित रहते आए हैं. ऐसे में, भारत को चाहिए कि वो दलाई लामा को अपने साथ जोड़कर चीनी नाराजगी की परवाह किए बगैर तिब्बत मामले को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाते हुए चीन पर दबाव बनाए कि वो तिब्बत को स्वतंत्र करे.

इनके अतिरिक्त और भी तमाम उपाय हो सकते हैं, जिनके जरिये भारत चीन की कूटनीतिक चालों का समुचित उत्तर दे सकता है. बशर्ते कि भारत अब अपनी अतिरक्षात्मक और किसी भी कीमत पर शांति की नीति को तिलांजलि देकर आक्रामक रूख अपनाए और यह स्मरण रखे कि विदेश नीति में सबसे ऊपर केवल और केवल राष्ट्रहित होता है.

लेखक

पीयूष द्विवेदी पीयूष द्विवेदी @piyush.dwiwedi

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं

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