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Updated: 04 जून, 2020 04:31 PM
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भारत में पश्चिम यानी यूरोप, अमेरिका (America) जैसे विकसित देशों से सीखने, अनुसरण (Follow) करने और वहां की किसी घटना से प्रभावित होकर कुछ वैसा करने की कोशिश सैद्धांतिक और वैचारिक स्तर पर लंबे समय से होती रही है, लेकिन क्या व्यावहारिक स्तर पर 130 करोड़ लोगों वाले लोकतांत्रिक देश में यह संभव है? यह सवाल बीते कुछ दिनों से भारत के प्रबुद्ध या यूं कहें कि देश-काल और परिस्थिति की चिंता करने वाले लोगों के मन में है. वे लोग इसका हल ढूंढने की कोशिश में भी हैं कि काश जिस तरह अमेरिका में एक अश्वेत नागरिक की हत्या के बाद वहां के लोग वाइट हाउस की तरह कूच कर गए, जगह-जगह प्रदर्शन देखने को मिले और रंगभेद के खिलाफ सोशल मीडिया पर विश्वव्यापी आंदोलन देखने को मिला, वैसी कोशिश, मुहिम या आंदोलन, प्रदर्शन भारत में क्यों नहीं? संदर्भ अमेरिका में अश्वेत अमेरिकी जॉर्ड फ्लॉयड (george floyd Murder) के बाद शुरू हुए देशव्यापी आंदोलन (US Protests) का है. सवाल लाजिम और प्रासंगिक है, लेकिन क्या इसका जवाब सकारात्मक, संतोषजनक संभव है? तो चलिए, हम इतिहास की पर्त खंगालते हैं.

Who is George Floyd, What is Black life matter protest, Anti CAA Protest India जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद पूरा अमेरिका सड़कों पर है और वहां उग्र प्रदर्शन हो रहे हैं

भारत में बीते साल नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देशव्यापी आंदोलन शुरू हुआ. जगह-जगह आंदोलन का हिंसात्मक स्वरूप भी देखने को मिला. समय बीतता गया और आंदोलन का स्वरूप भी छोटा होता गया. बुद्धिजीवी इसका कारण बताते हैं- आंदोलन को दिशा देने वाले किसी ऐसे व्यक्तित्व का अभाव, जिसके कहने पर लोग घरों से निकल आएं और हल्ला बोल का नारा सड़क से संसद तक गूंजने लगे.

कुछ मिलाकर बात का सार यही है कि जिस तरह का प्रभाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी बातों या व्यवहार से छोड़ते हैं, उस तरह का कोई प्रभावशाली व्यक्तित्व नेतृत्वकर्ता के रूप में नागरिकता संशोधन कानून विरोधी (Anti CAA Protest) प्रदर्शन करने वालों को नहीं मिला और आंदोलन धीरे-धीरे शाहीन बाग और मुस्लिम संप्रदाय तक ही सीमित रह गया.

यहां एक बात का जिक्र करना बेहद जरूरी है कि जिस तरह लोग फिलहाल अमेरिका में हो रहे विरोध प्रदर्शनों की भारतीय संदर्भ में व्याख्या और क्रियान्वयन की कोशिश करने जैसी बातों पर जोर दे रहे हैं, उन्हें पता तो होगा ही कि किसी भी आंदोलन का स्तर व्यापक करने के साथ ही उसे प्रभावशाली बनाने में समाज के हर वर्ग के लोगों की वैचारिक एकता और क्रियान्वय के तरीके की अहम भूमिका होती है.

आज अमेरिका में हो रहे विरोध प्रदर्शन का सकारात्मक असर इसलिए दिख रहा है क्योंकि वहां अश्वेतों का श्वेत अमेरिकी भी बखूबी साथ निभा रहे हैं और कदम-कदम पर अश्वेतों के साथ खड़े हैं, लेकिन भारत में क्या हुआ? एंटी सीएए प्रोटेस्ट में तो प्रदर्शनकारी ही दो गुटों में बंट गए. एक गुट सीएए को हरसंभव समर्थन दे रहा था तो एक गुट सीएए विरोधी आंदोलन को बढ़ाने में. अंतिम में हुआ क्या, आंदोलन राजनीति की भेंट चढ़ गया और ठंडे बस्ते में चला गया. हालांकि मराठा आंदोलन समेत कुछ ऐसे आंदोलन भी हुए हैं, जिनका असर देखने को मिला और वो भी सकारात्मक माहौल में.

भारत में हमने राजनीतिक रैलियों में तो एक जगह लाख-डेढ़ लाख लोगों की भीड़ देखी है, लेकिन ऐसे कम मौके दिखे हैं, जब लोग अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने या अपने अधिकारों के लिए लाखों की संख्या में सड़कों पर उतरे हों. भारत में एक अलग ही चलन है कि जैसे ही भीड़ बढ़ती है कि प्रदर्शन या आंदोलन का स्वरूप ही हिंसात्मक हो जाता है, चाहे वह राजनीतिक कारण से हो या गुटबंदी से.

एक और बात ये है कि यहां नागरिक अधिकारों या सरकार विरोधी प्रदर्शनों को उतना बल नहीं मिल पाता, जितना पश्चिमी देशों और विकसित राष्ट्रों में होने वाले प्रदर्शनों या आंदोलनों को मिलता है. विकसित देशों में मीडिया हो या वहां के प्रभावशाली बुद्धिजीवी, वे नागरिक आंदोलन का भरपूर समर्थन करते दिखते हैं, लेकिन भारत में तो स्थिति उलट है. यहां मीडिया दो गुटों में और बुद्धिजीवी कई गुटों में बंट जाते हैं, राजनीतिक दलों की तो बात ही छोड़िए.

भारत में जो बचे-खुचे तथाकथित बुद्धिजीवी हैं, वे या तो किसी खास विचारधारा से अति प्रेरित दिखते हैं या अति प्रभावित, ऐसे में उनसे ईमानदारी और निष्पक्षता की उम्मीद करना थोड़ा अजीब लगता है. आंदोलन या विरोध प्रदर्शन की सफलता इस बात पर निर्भर है कि किन मुद्दों पर प्रदर्शन हो रहे हैं. अमेरिका का हालिया प्रदर्शन वहां जड़बद्ध काले-गोरे के भेद को लेकर है और इसका लंबा इतिहास है.

1960 के दशक में मार्टिन लूथर किंग ने काले-गोरे का भेद मिटाने और लोक अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़ी. अमेरिका में अफ्रीकी मूल के अमेरिकियों से भेदभाव की खबरें आए दिन आंदोलन या प्रदर्शन का कारण बनती हैं. लेकिन भारतीय संदर्भ में बात करें को यहां जातिगत आरक्षण और समानता को लेकर जितने भी आंदोलन हुए हैं, वह क्षेत्र विशेष में सिमटकर रह जाते हैं, जिससे पार पाने के लिए छोटे-मोटे सरकारी प्रयास ही काफी होते हैं और इसका असर भी दिख जाता है.

इन सबके बीच कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना होगा. सबसे पहले तो ये कि सोशल मीडिया के दौर में जजमेंटल होना आम बात है और हालिया अमेरिकी घटना में अश्वेत जॉर्ज फ्लॉयड के हत्यारे पुलिस अधिकारी डेरेक शौवीन (Derek Chauvin) को लेकर अमेरिकी पुलिस डिपार्टमेंट की काफी बदनामी हो रही है. लेकिन गुनहगार तो सिर्फ एक है. सभी पुलिसवाले तो डेरेक जैसे नहीं हैं. ऐसे में लोगों को पुलिस के खिलाफ गुस्सा निकालने और हिंसक प्रदर्शन के दौरान पुलिसकर्मियों को टारगेट करने की जगह गुनहगार को सजा दिलाने के लिए आंदोलन करना चाहिए और किसी तरह की अराजक सोच के झांसे में नहीं आना चाहिए.

आप इसे भारत में हुए नागरिकता कानून विरोधी देशव्यापी प्रदर्शन के संदर्भ में भी देख सकते हैं. सीएए को लेकर बीते साल दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ, जिसकी आंच धीरे-धीरे पूर्वोतर दिल्ली की तरफ फैली और हिंसा भड़क गई. इस घटना में सैकड़ों पुलिसकर्मी घायल हुए और कुछ की जान भी गई. कुछ प्रदर्शनकारी भी मारे गए और घायल हुए. सीलमपुर, सीलापुरी समेत कई इलाकों में प्रदर्शनकारियों के हिंसक हो जाने के पीछे वो अराजक सोच और कुछ अतिवादी लोग थे, जिन्होंने अपने सोशल मीडिया पोस्ट, भड़काऊ भाषणों से लोगों के दिमाग में जहर भर दिया.

लेकिन जरा वे सोचें कि आज कोरोना संकट काल में वही पुलिसकर्मी उनकी जान बचाने को अपनी जान जोखिम में डालकर ड्यूटी निभा रहे हैं. लोगों के लिए घर में बैठकर पुलिस की आलोचना करना काफी आसान है, लेकिन जरा एक दिन के लिए भी आप पुलिस की जिंदगी जीने को मजबूर होंगे तो कभी उनके खिलाफ जाने की नहीं सोचेंगे और कुछ खास विचारधारा के लोगों के भड़काऊ भाषणों और देश तोड़ने की बातों में नहीं आएंगे.

21वीं सदी के भारत में एक आंदोलन जो सबसे ज्यादा प्रभावी दिखा और जिसने सत्ता की जड़ें हिला दी, वह था साल 2011 का भारतीय भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (Indian anti-corruption movement). जब जनता कांग्रेस के शासन से त्रस्त हो गई थी और चहुंओर भ्रष्टाचार की बातें होने लगी थी, तब समाजसेवी अन्ना हजारे के नेतृत्व में पूरा देश एकजुट हो गया और लंबे समय तक अहिंसक आंदोलन चला, जिसका परिणाम साल 2014 में सत्ता परिवर्तन के रूप में दिखा.

बाकी समय-समय पर देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग मुद्दों पर आंदोलन देखने को मिलते रहते हैं, जिसके सफल होने की गारंटी उनकी आक्रामकता और सही उद्देश्य पर निर्भर रही और इसके मिश्रित परिणामों ने देश में आंदोलन का स्वरूप कायम रखने में महती भूमिका निभाई.

समय, काल और परिस्थिति जो भी हो, अमेरिका में जिस तरह लोग #BlackLivesMatter का नारा लगाते हुए सड़कों पर उतर आए हैं, इससे पूरी दुनिया को सीख लेनी चाहिए कि अगर बात अधिकारों की आती है, समानता पर किसी तरह का खतरा हो या अस्तित्व पर आंच आने लगे तो आपको एकजुट होकर विरोध प्रदर्शन का रास्ता अपनाना चाहिए, जो कि फिलहाल भारत के प्रभावशाली लोग भी कह रहे हैं कि काश, भारत में भी अमेरिका जैसे विरोध प्रदर्शन हों.

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