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Updated: 05 मार्च, 2023 09:45 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) भले ही पल्ला झाड़ लें, लेकिन ममता बनर्जी के ऐलान-ए-एकला चलो का श्रेय लेने से वो बच नहीं सकते. और सिर्फ ममता बनर्जी ही क्यों राहुल गांधी ने तो क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लेकर ऐसी अलख जगायी है कि जिस रास्ते पर ममता बनर्जी निकल चुकी हैं, न जाने कितने ही नेता कतार में लगे हुए हैं.

पहले राहुल गांधी उदयपुर में एक तीर छोड़ते हैं. फिर मल्लिकार्जुन खड़गे नगालैंड में उससे बड़ी तीर छोड़ते हैं. कांग्रेस (Congress) के चिंतन शिविर से लेकर राष्ट्रीय अधिवेशन तक के सफर में ये तीरंदाजी कब आतिशबाजी में बदल जाती है, किसी को भी समझ में नहीं आता - रायपुर पहुंच कर कांग्रेस नेतृत्व की तरफ से विपक्ष को ये साफ साफ बता दिया जाता है कि गठबंधन तो कांग्रेस की शर्तों पर ही बनेगा, बिलकुल यूपीए पैटर्न पर.

उदयपुर चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कांग्रेस की विचारधारा को सर्वश्रेष्ठ साबित करने के लिए क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लोकल बता डाला था. राहुल गांधी के बयान पर जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई थी. कर्नाटक से भी और बिहार से भी - और ये समझाने की कोशिश हुई कि कांग्रेस हर इलाके में ड्राइविंग सीट पर बने रहने के बारे में सोचना भी छोड़ दे.

राष्ट्रीय अधिवेशन के मंच से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और महासचिव प्रियंका गांधी विपक्षी दलों के नेताओं से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ एकजुट होने की अपील करतें हैं - और लगे हाथ ये भी बता देते हैं कि शर्तें पहले की तरह ही लागू होंगी.

मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना रहा, '2023 और 2024 में हमारा एजेंडा साफ है... हम देश के मुद्दों पर संघर्ष भी करेंगे... कुर्बानी भी देंगे.'

और फिर प्रियंका गांधी कहती हैं. , 'हम सब को एकजुट हो कर लड़ना होगा... विपक्षी दल एक साथ आयें... हमें एक साथ होना चाहिए. साथ लड़ने की जरूरत है.'

बाद में मल्लिकार्जुन खड़गे आगे आते हैं और धीरे धीरे कांग्रेस की मंशा सामने आती है. अब जरा मल्लिकार्जुन खड़गे की बातें भी जान और समझ लीजिये, '2004 से 2014 के बीच यूपीए गठबंधन में समान विचारधारा वाले कई दल हमारे सहयोगी थे... 10 साल हमारी सरकार कॉमन मिनिमम प्रोग्राम को सामने रख कर चली... आज फिर से उसी गठबंधन को और मजबूती देने की जरूरत है.'

जैसे भारत जोड़ो यात्रा के दौरान समाजवादी नेता अखिलेश यादव को निशाने पर लेते हुए राहुल गांधी कांग्रेस की ताकत के बारे में समझा रहे थे. साथ में आगाह भी कर रहे थे सब के सब सिर्फ अपने अपने मोहल्ले के शेर हैं और केवल कांग्रेस ऐसी है जो बीजेपी (BJP) को आगे बढ़ कर चैलेंज कर सकती है, मल्लिकार्जुन खड़गे भी करीब करीब उसी लहजे में धमकाते हुए नजर आते हैं.

कुछ कुछ एहसान जताते हुए अंदाज में मल्लिकार्जुन खड़गे विपक्षी दलों के नेताओं को संबोधित करते हैं, 'तमाम दल जो बीजेपी और आरएसएस के खिलाफ हैं, हम उनको भी अपने साथ लेने को तैयार हैं.'

ये क्या कर रहे हैं?

कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन से पहले राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे ने नॉर्थ ईस्ट में चुनावी रैलियां की थी. नगालैंड की रैली में मल्लिकार्जुन खड़गे ने केंद्र में बीजेपी की सत्ता को लेकर दावा तो करीब करीब वैसे ही किया था जैसे नीतीश कुमार ने एनडीए छोड़ने के तत्काल बाद - मालूम नहीं जो 2014 में आये थे 2024 में आएंगे कि नहीं? अब तो वही नीतीश कुमार कांग्रेस से कई बार कह चुके हैं कि आओ जी मिल कर लड़ते हैं.

rahul gandhi, sonia gandhi, mallikarjun khargeराहुल गांधी जब तक गंभीर नहीं होंगे, विपक्ष तो हल्ले में ही लेगा!

नीतीश कुमार तो साफ साफ दावा कर रहे हैं कि अगर कांग्रेस साथ दे, और विपक्ष मिल कर चुनाव लड़े तो 2024 में बीजेपी को 100 सीटों के अंदर समेटा जा सकता है. मल्लिकार्जुन खड़गे भी हकीकत को अच्छी तरह समझते हैं, इसलिए कोई नंबर तो नहीं बताते, लेकिन बीजेपी की सरकार न बनने देने का दावा जरूर करते हैं. जैसे 2019 में सोनिया गांधी के मुंह से सुनने को मिलता रहा.

मल्लिकार्जुन खड़गे का दावा है कि 2024 में केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष की सरकार बनेगी - और तभी राहुल गांधी लोगों को समझाने लगते हैं कि तृणमूल कांग्रेस तो महाभ्रष्ट है. जैसे गोवा में पैसे बहा रही थी, मेघालय में भी उड़ा रही है - और सबसे बड़ी तोहमत ये कि ममता बनर्जी की पार्टी बीजेपी की मदद कर रही है.

और तभी चुनाव नतीजों के आते ही ममता बनर्जी घोषणा कर देती हैं कि अगले आम चुनाव में वो अकेले ही लड़ेंगी. किसी के साथ कोई गठबंधन नहीं - और तकरीबन ऐसी ही भाषा में कांग्रेस को अखिलेश यादव भी पहले ही समझा चुके हैं. जेडीएस नेता एचडी कुमार स्वामी से लेकर आरजेडी प्रवक्ता मनोज झा तक, लेकिन किसी को समझ में आये तब तो.

मान लेते हैं कि ममता बनर्जी की पार्टी का हाल भी समाजवादी पार्टी जैसा ही है. समाजवादी पार्टी की विचारधारा कर्नाटक, केरल या बिहार में नहीं चलने वाली - दरअसल, राहुल गांधी अखिलेश यादव को ऐसे ही समझाने की कोशिश कर रहे थे.

ये ठीक है कि जो लोग राहुल गांधी के साथ अभी खड़े हैं उनकी पहुंच भी उनके राज्यों से बाहर नहीं है. जैसे झारखंड मुक्ति मोर्चा नेता हेमंत सोरेन और डीएमके नेता एकके स्टालिन उदाहरण हो सकते हैं - तेजस्वी यादव को आगे कर चल रहे लालू यादव बेशक बड़े नेता हैं, लेकिन अब तो उनका आभामंडल भी सिकुड़ने ही लगा है. जब जेल से आकर रैली करने पर बिहार के लोग भी एक उपचुनाव में उनकी पार्टी को वोट न दें तो क्या समझा जाये?

एक तरफ आलम ये है कि ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल जैसे नेता कांग्रेस से दूरी बना कर चल रहे हैं, दूसरी तरफ सुप्रिया सुले, संजय राउत और आदित्य ठाकरे जैसे नेताओं को भारत जोड़ो यात्रा में राहुल गांधी के साथ मार्च करते देखा जाता है - लेकिन बाकियों के बारे में क्या समझें, जो अगली पीढ़ी को स्थापित करने के लिए वैसे ही कठिन संघर्ष कर रहे हैं जैसे राहुल गांधी कांग्रेस को खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए.

नीतीश कुमार और लालू यादव की तरह शरद पवार, उद्धव ठाकरे, फारूक अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती जैसे नेता भी राहुल गांधी को आगे बढ़ कर सपोर्ट कर रहे हैं - लेकिन खुद उनकी पूछ भी तो राहुल गांधी से ज्यादा नहीं लगती.

नीतीश कुमार तो राहुल गांधी को सपोर्ट देने से कहीं ज्यादा उनकी तरफ उम्मीद भरी नजरों से देख रहे हैं, ताकि लालू परिवार और बीजेपी से जूझने में कांग्रेस का साथ मिल जाये तो थोड़ा मुश्किल वक्त गुजर जाये.

उद्धव ठाकरे के बारे में अब क्या कहा जा सकता है? अभी तो वहां ये उम्मीद भी नहीं बची है कि शिवसेना का कोई खंडहर भी उनके हिस्से में आ पाएगा या नहीं? ले देकर उम्मीद किरण सिर्फ मुंबई ईस्ट और पुणे की कस्बा पेठ उपचुनावों के नतीजे ही दिखा रहे हैं - बाकी तस्वीर तो पूरी तरह धुंधली लगती है.

बेशक शरद पवार सबसे अनुभवी नेता हैं, लेकिन उनको तो ये भी नहीं समझ में आ रहा है कि उनके रिटायर होने के बाद सुप्रिया सुले एनसीपी का वही हाल तो नहीं कर देंगी जो राहुल गांधी कांग्रेस अब तक कर चुके हैं?

क्या हो सकता था?

हाल फिलहाल का एक उदाहरण लेते हैं. विपक्षी एकता की कोशिश में कांग्रेस का रवैया आसानी से समझ में आ जाएगा. कुछ नया नहीं हुआ है, बस ये समझ में आ रहा है कि राहुल गांधी का रवैया नहीं बदला है. अब तक नहीं.

मुश्किल ये है कि राहुल गांधी विपक्ष के नेताओं को भी कांग्रेस नेताओं जैसा ही समझते हैं. कांग्रेस नेताओं की तो मजबूरी है, झंडा ढोने की लेकिन बाकियों को क्या पड़ी है - जब मर्जी हुई झोला उठा कर चल देंगे. ममता बनर्जी ने तो रास्ता भी दिखा दिया है.

अदानी ग्रुप के कारोबार पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट राहुल गांधी के लिए पॉलिटिकल लॉटरी जैसी ही रही. विपक्ष के हमलों का बीजेपी को जवाब देते नहीं बन पा रहा था, जबकि जवाब सबको देना पड़ रहा था - बीजेपी प्रवक्ताओं से लेकर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तक को.

राहुल गांधी ने मुद्दे को संसद में जोर शोर से उठाया भी. सवाल भी पूछे. और डंके की चोट पर जब कह रहे थे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके सवालों का जवाब नहीं दिया तो, तो लोग उनके पसंदीदा नारे 'चौकीदार चोर है' की तरह कोई हल्के में भी नहीं ले रहे थे - लेकिन आस्तीन चढ़ा कर और आंखे तरेर कर भाषण देने भर से कुछ नहीं होता, मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए बैकडोर मैनेजमेंट भी जरूरी होता है. वरना, नतीजा गले मिल कर आंख मार देने जैसा ही होता है.

मान कर चलना चाहिये कि अदानी ग्रुप के कारोबार पर जेपीसी की मांग पर कांग्रेस का अड़े रहना, राहुल गांधी का ही स्टैंड रहा होगा. वरना, कांग्रेस चाहती तो जेपीसी की जिद छोड़ कर सुप्रीम कोर्ट की कमेटी से जांच की मांग मान सकती थी, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ. अगर ऐसा होता तो टीएमसी और लेफ्ट तो साथ रहते ही, बाकी भी साथ में खड़े होते ही. बहरहाल, ये तो किस्मत की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने वो काम कर दिया है.

अब ये भी समझ लीजिये कि राहुल गांधी चाहते तो कैसे अलग अलग राज्यों में विपक्ष को कांग्रेस के साथ बनाये रख सकते थे. कांग्रेस क्षेत्रीय दलों के साथ अलग अलग राज्यों में गठबंधन कर सकती थी - शर्त बस ये है कि जहां जो मजबूत है, ड्राइविंग सीट उसी के पास होनी चाहिये.

विचारधारा को लेकर क्षेत्रीय दलों की बातें अपनी जगह हैं - लेकिन राहुल गांधी अगर ड्राइविंग सीट को लेकर जिद छोड़ दें तो विपक्ष भी धैर्य के साथ विचार कर सकता है. असल में, विपक्ष के सामने कांग्रेस की ड्राइविंग सीट पर खुद होने की जिद भी राहुल गांधी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रिजर्वेशन जैसा ही है.

जैसे सोनिया गांधी ने ममता बनर्जी और शरद पवार को साथ आने के लिए मना लिया था - जगनमोहन रेड्डी के साथ भी तो राहुल गांधी वैसे ही पेश आ सकते थे. सभी तो कांग्रेस से ही निकले हैं, और विचारधारा भी उनकी नहीं बदली है.

नतीजा ये होता कि नवीन पटनायक जैसे नेता भी अपने लिए स्पेस देख सकते थे - क्योंकि बीजेपी की आइडियोलॉजी से तो वो भी पूरी तरह इत्तेफाक नहीं रखते. वैसे भी नवीन पटनायक के लिए बड़ा खतरा तो बीजेपी ही है, कांग्रेस का साथ लेकर अगली पारी मजबूत करने के बारे में सोच भी सकते थे.

ऐसा ही समझौता केरल को लेकर भी हो सकता था. राहुल गांधी खुद भी केरल से ही सांसद हैं. भारत जोड़ो यात्रा लेकर राहुल गांधी केरल में डेरा डाल देते हैं तो सीपीएम विरोध तो करती है, लेकिन सीताराम येचुरी से दोस्ती के कारण उतना बवाल नहीं होता - अगर कांग्रेस की तरफ से समझाया जाता कि स्टेट में तुम रहो और केंद्र में हमारा सपोर्ट करो तो क्या वो खुशी खुशी नहीं मान जाते? मुश्किल हो सकता है, लेकिन नामुमकिन भी तो नहीं?

...और जब इतना सब होता तो अरविंद केजरीवाल और केसीआर भी अकेले अकेले या मिल कर भी क्या कर लेते? हो सकता है, तब नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी की तरफ थर्ड फ्रंट के बजाये पहले मोर्चे में ही जगह तलाशने के बारे में सोचते.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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