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Updated: 28 फरवरी, 2023 12:40 PM
अशोक भाटिया
अशोक भाटिया
 
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राहुल गांधी ने कांग्रेस में एक परिवार एक पद का नारा दिया था. उन्होंने गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के व्यक्ति को पार्टी नेतृत्व देने पर भी जोर दिया था. परिवार से बाहर का अध्यक्ष तो आ गया, लेकिन क्या कांग्रेस सचमुच प्रथम परिवार के प्रभाव से मुक्त होकर लोकतांत्रिक बन पाई? कांग्रेस संचालन समिति का खरगे को कार्यसमिति बनाने का अधिकार देना भले ही लोकतांत्रिक लगे, लेकिन कांग्रेसजनों को भी पता है कि अगली कार्यसमिति ठीक वैसे ही गांधी-नेहरू परिवार की मर्जी से बनेगी, जैसी बनती रही है. कांग्रेस ने परिवारवाद के आरोप को सतह पर खारिज करने की कोशिश की, लेकिन अधिवेशन में जो हुआ, उससे लोगों में वह विश्वसनीयता नहीं बना पाई. इसका संकेत आम कांग्रेसियों के बयान हैं, जो साबित करते हैं कि रायपुर में जो हुआ, उसके पीछे गांधी-नेहरू परिवार की ही मर्जी थी.

25 फरवरी को रायपुर पहुंचीं प्रियंका के स्वागत में रायपुर हवाई अड्डे से महाधिवेशन स्थल तक की करीब दो किलोमीटर की सड़क पर गुलाब की पंखुड़ियां बिछाई गईं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की ओर से प्रियंका के लिए ऐसा किया गया. इससे कांग्रेस में पहले परिवार के प्रति चाटुकारिता की पराकाष्ठा का ही संदेश गया.

Congress, Congress leader Rahul Gandhi, CWC Election, Sachin Pilotकांग्रेस कार्य समिति में गांधी परिवार के राहुल और सोनिया के अलावा तीसरी सदस्य प्रियंका भी होंगी.

समाचारों के अनुसार, कांग्रेस के 137 साल के इतिहास में पहली बार ऐसा होगा कि नेहरू गांधी परिवार के तीन सदस्य एक साथ कांग्रेस कार्य समिति में होंगे. इससे पहले संभवतः कभी ऐसा नहीं हुआ है. परिवार के दो सदस्य तो एक साथ कार्य समिति में रहे हैं. लेकिन कांग्रेस की जो नई कार्य समिति बनेगी उसमें परिवार के तीन सदस्य एक साथ रहेंगे. कांग्रेस ने संविधान में संशोधन करके पूर्व अध्यक्षों को स्थायी सदस्य बनाने की व्यवस्था कर दी है. ध्यान रहे पार्टी में अभी सिर्फ दो ही पूर्व अध्यक्ष हैं. एक तो 20 साल से ज्यादा समय तक अध्यक्ष रहीं सोनिया गांधी और दूसरे करीब दो साल तक अध्यक्ष रहे राहुल गांधी. सो, ये दोनों कार्य समिति के सदस्य रहेंगे. सोनिया गांधी भले सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लें लेकिन कार्य समिति की सदस्य बनी रहेंगी.

कांग्रेस कार्य समिति में तीसरी सदस्य प्रियंका गांधी वाड्रा होंगी. अगर संविधान के मुताबिक कार्य समिति के 11 सदस्यों का चुनाव होता तो प्रियंका के चुनाव लड़ने की संभावना थी. लेकिन अब सभी 23 सदस्य मनोनीत होंगे. बताया जा रहा है कि पार्टी के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे उनको कार्य समिति में मनोनीत करेंगे. वैसे भी वे चार साल से पार्टी की महासचिव हैं, उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की प्रभारी रही हैं और हाल ही में हिमाचल प्रदेश के चुनाव में उन्होंने अकेले प्रचार किया और चुनाव जीतने का श्रेय उनको दिया गया. राहुल गांधी उस समय भारत जोड़ो यात्रा कर रहे थे. रायपुर के कांग्रेस अधिवेशन में भी प्रियंका गांधी वाड्रा को मंच पर प्रमुखता से जगह मिली थी. वे आगे के चुनावों में भी कांग्रेस की स्टार प्रचारक रहने वाली हैं. इसलिए कार्य समिति में उनके लिए स्वाभाविक रूप से जगह बनती है.

हाल ही में राहुल गांधी ने इटली के एक अखबार को दिए इंटरव्यू में आरोप लगाया कि मोदी के दबाव में मीडिया उनकी खबरें तक नहीं दिखाता, उनका बयान तक नहीं छापता. इस आरोप की कलई इस महाधिवेशन की हुई धुआंधार मीडिया रिपोर्टिंग ने खोल दी. जिस तरह विशेषकर टीवी पर कार्यक्रम की रिपोर्टिंग हुई, साफ है कि कांग्रेस का महत्व मीडिया की नजर में कम नहीं हुआ है. महाधिवेशन में कांग्रेस ने अपने मिनी घोषणापत्र में कहा कि तीसरे मोर्चे की अवधारणा और गठन, चुनावों में भाजपा के लिए फायदेमंद साबित होगा. मतलब साफ है कि समूचा विपक्ष उसकी छतरी के नीचे आ खड़ा हो. बिहार के पूर्णिया की रैली में नीतीश कुमार ने इस विचार का एक तरह से समर्थन भी कर दिया. लेकिन अभी शरद पवार, ममता बनर्जी और के चंद्रशेखर राव जैसे नेताओं की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. यानी कांग्रेस की चुनावी छतरी के नीचे आने को लेकर विपक्षी धड़े में अब भी उलझन है.

कांग्रेस के संदेशों पर कांग्रेसजन भरोसा कर सकते हैं, लेकिन महाधिवेशन में जिस तरह पार्टी के पहले परिवार का वर्चस्व एक बार फिर साबित हुआ है, उससे भाजपा के लिए उस पर परिवारवाद का आरोप लगाने का और मौका मिलेगा. वैचारिक आधार पर भी पार्टी कोई ठोस संदेश नहीं दे पाई. शशि थरूर के भाषण से इसका संकेत भी मिला. ऐसे में कांग्रेस मोदी पर उनकी सादगी के बहाने जब भी तंज कसेगी, लोग उसे विश्वसनीय नहीं मानेंगे. चुनावी मैदान में उसका परिवारवाद उसकी राह में फिर बाधा बनकर खड़ा नजर आएगा. जनता के दिलों में जब भी उतरने की बात होगी, उसके सामने चुनौतियां होंगी. यानी कांग्रेस की राह बहुत मुश्किल है और महाधिवेशन से बहुत कुछ नहीं बदल रहा है.

भारतीय लोकतंत्र के लिए ये बेहद जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर एक मजबूत विपक्ष हो. लेकिन ये हम सब जानते हैं कि 2014 से ऐसा कतई नहीं है. संख्या बल के हिसाब से तो कह ही सकते हैं. विपक्ष है भी तो बिखरा हुआ. कांग्रेस को इस दिशा में गंभीरता से प्रयास करना चाहिए था . हालांकि उसकी ओर से इस दिशा में कोई संजीगदी दिख नहीं दी . 2024 के आम चुनाव में अब कमोबेश एक साल का ही वक्त रह गया है. भाजपा राष्ट्रीय स्तर पर इतनी मजबूत है कि एकजुट विपक्ष ही उसकी सत्ता के लिए थोड़ी बहुत चुनौती पेश कर सकता है. थोड़ी बहुत इसलिए कि यूनिट के तौर पर संगठन और कार्यकर्ता के लिहाज से भाजपा का मुकाबला करना किसी भी पार्टी के लिए फिलहाल मुश्किल है.

कांग्रेस को एक बात भलीभांति समझ लेनी चाहिए था कि मौजूदा समय में उसकी राजनीतिक हैसियत इतनी नहीं है कि बाकी विपक्षी दल उसके पास आएंगे. दूसरी बात जितने भी भाजपा विरोधी दल है, हम कह सकते हैं कि उनमें सिर्फ कांग्रेस ही एकमात्र पार्टी है जिसका जनाधार सिर्फ एक राज्य तक सीमित नहीं है, उसके पास कमोबेश राष्ट्रव्यापी आधार है. कांग्रेस को छोड़ दें तो फिलहाल ममता बनर्जी, नीतीश कुमार और के चंद्रशेखर राव अपने-अपने हिसाब से विपक्षी दलों को लामबंद करने में जुटे हैं. इनमें ममता बनर्जी का सियासी ज़मीन पश्चिम बंगाल, नीतीश का बिहार और केसीआर का तेलंगाना में ही है. चाहे ये तीनों कितना भी प्रयास करें, फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर इनकी राजनीतिक हैसियत क्षेत्रीय क्षत्रप की ही है. इन तीनों नेताओं के दिमाग में भले ही राष्ट्रीय मंसूबे पल रहे हों, लेकिन बगैर कांग्रेस के उन मंसूबों से भाजपा को नुकसान की बजाय फायदा ही होगा. जितना विरोधी वोट बंटेगा, भाजपा उतनी मजबूत होते जाएगी.

ऐसे हालात में कांग्रेस का ये राजनीतिक दायित्व भी बन जाता था है कि वो विपक्षी पार्टियों को एकजुट करने के लिए गंभीरता से पहल करती और वो भी बिना समय गवाए क्योंकि 2024 के चुनाम में अब ज्यादा समय नहीं रह गया है. ये कांग्रेस के लिए ही ज्यादा फायदेमंद रहता . ममता, नीतीश और केसीआर की राजनीति एक सूबे पर आधारित रही है और अगर 2024 में उनका दायरा नहीं बढ़ा, तब भी उनकी राजनीति पर ज्यादा असर नहीं पड़ने वाला. लेकिन कांग्रेस अगर 2024 में बेहतर प्रदर्शन कर भाजपा को चुनौती नहीं दे पाई तो उसके सामने अस्तित्व का भी संकट खड़ा हो सकता है. ये बात तय है कि अकेले कांग्रेस 2024 में नरेंद्र मोदी की सत्ता को चुनौती नहीं दे सकती.

इसमें शायद ही किसी राजनीतिक विश्लेषक को संदेह हो. केंद्र की राजनीति में जितनी बड़ी ताकत भाजपा बन गई है, उसको देखते हुए कांग्रेस के सामने एकजुट विपक्ष ही एकमात्र रास्ता है और इसके लिए अभी से ही कांग्रेस को सभी विपक्षी दलों से संवाद करना चाहिए था . ये बात ममता, नीतीश और केसीआर को भी अच्छे से पता है कि बगैर कांग्रेस विपक्षी दलों का कोई भी गुट भाजपा के लिए खतरा नहीं बन सकता है. नीतीश ये बात कह भी चुके हैं कि कांग्रेस को भाजपा विरोधी दलों को एकजुट कर गठबंधन बनाना चाहिए. नीतीश का तो इतना तक कहना है कि अगर कांग्रेस ऐसा कर पाएगी तो 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 100 से भी कम सीट पर रोका जा सकता है. हालांकि ये नीतीश का मानना है, लेकिन इतना तो तय है कि भाजपा को थोड़ी भी चुनौती मिलेगी तो वो सिर्फ और सिर्फ एकजुट विपक्ष से ही मिल सकती है.

2024 में अगर भाजपा को चुनौती देना है तो विपक्षी एकता की बागडोर कांग्रेस को अपने हाथों में लेने की बात करनी चाहेए थी . इसके लिए उसे देशभर के तमाम भाजपा विरोधी दलों से बातचीत कर उनकी चिंताओं पर भी गौर करना चाहिए था . इस प्रक्रिया में हो सकता था कि उसे कुछ राज्यों में कुछ सीटों का नुकसान उठाना पड़ता , लेकिन राजनीतिक दूरदर्शिता यही कहती है कि कांग्रेस को इस नुकसान में भी फायदा ही होता . अगर सभी विरोधी दलों के एकजुट होने से 2024 में भाजपा के विजय रथ को रोकने में कामयाबी मिलने की तनिक भी संभावना बनती , तो ये कांग्रेस के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद होता . विपक्षी दलों की एकजुटता से कांग्रेस की सीटें बढ़ने के साथ ही उसके जनाधार का दायरा भी व्यापक होगा.

कोई भी रणनीति बनाने से पहले कांग्रेस को ये बात हमेशा जे़हन में रखनी चाहिए कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में उसका क्या हश्र हुआ था. 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस 19.31 फीसदी वोटों के साथ महज़ 44 सीटों पर सिमट गई थी. उसे 162 सीटों और 9 फीसदी से ज्यादा वोटों का नुकसान हुआ था. कांग्रेस का वोट शेयर कभी इतना कम नहीं हुआ था. ये कांग्रेस का अब तक सबसे खराब प्रदर्शन था. स्थिति इतनी बुरी थी कि लोकसभा में आधिकारिक तौर से विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने भर भी सीटें नहीं हासिल कर पाई थी. ये एक तरह से खतरे की घंटी जैसी थी. कांग्रेस ने इस प्रदर्शन से भी कोई सबक नहीं लिया. तभी तो इसके अगले चुनाव यानी 2019 में भी कांग्रेस का प्रदर्शन कुछ ऐसा ही रहा. वोट बैंक में तो कुछ ज्यादा सुधार नहीं हुआ, हालांकि सीटें 44 से बढ़कर 52 हो गई.

भले ही कांग्रेस रायपुर अधिवेशन के कितने भी गुणगान कराले पर उसकी इस वक्त दो सबसे बड़ी समस्याए है. पहला कार्यकर्त्ताओं में जोश की कमी और दूसरा कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का राज्यों के नेताओं में घटता खौफ. चुनावी मुद्दों की बात छोड़ दें, तो भाजपा इन दो मुद्दों में ही इतनी मजबूत दिखती है, जिसकी वजह से वो चुनाव दर चुनाव जीत हासिल करते जा रही है. भाजपा वैचारिक और राजनीतिक दोनों स्तर पर अपने कार्यकर्ताओं को भरपूर महत्व देती है. साथ ही साथ उसके शीर्ष नेतृत्व का पार्टी नेताओं में भय भी बना रहता है. ऐसा नहीं है कि राज्यों में भाजपा के बड़े नेताओं के भीतर अंदरूनी कलह नहीं है, लेकिन गहलोत-पायलट की तरह बयानबाजी करने की हिम्मत शायद ही कहीं नज़र आती हो.

कांग्रेस को ये नहीं भूलना चाहिए कि वो वहीं पार्टी है जिसकी अगुवाई में भारत को आजादी मिली, जिसने भारत के लोगों को राजनीति का ककहरा सिखाया है, जो आजादी के बाद चुनावी राजनीति शुरू होने के बाद के 70 में से करीब 50 साल केंद्र की सत्ता पर काबिज रही है. ये सब जिन वजहों से मुमकिन हो पाया था, उनमें से सबसे प्रमुख था कार्यकर्ताओं को दिया जाने वाला महत्व, जो धीरे-धीरे कम होते गया हैं . पार्टी को इस दिशा में भी गंभीरता से कदम उठाए जाने की जरूरत है. अब हालात ऐसे बन गए हैं कि कांग्रेस के अस्तित्व पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं, इस सवाल का जवाब कांग्रेस अपनी खोई सियासी ज़मीन को पाकर ही दे सकती है और इस लिहाज से उसे कार्यकर्ताओं की एक बड़ी फौज खड़ी करनी चाहिए थी . अब जनता के दिलों में जब भी उतरने की बात होगी, कांग्रेस के सामने ये सब चुनौतियां होंगी. यानी कांग्रेस की राह बहुत मुश्किल है और महाधिवेशन से बहुत कुछ नहीं बदला है.

लेखक

अशोक भाटिया अशोक भाटिया

अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक एवं टिप्पणीकार पत्रकारिता में वसई गौरव अवार्ड – 2023 से सम्मानित, वसई पूर्व - 401208 ( मुंबई ) फोन/ wats app 9221232130 E mail – vasairoad.yatrisangh@gmail।com

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