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Updated: 03 अप्रिल, 2018 03:02 PM
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बचपन में एक कहानी सबने सुनी होगी. बिल्लियों की लडा़ई हो गई. रोटी को लेकर. झगड़ा देख कर बंदर आया और उसने मसला सुलझाने की पेशकश कर दी. तराजू के पलड़ों में रखी रोटी को बंदर तोड़-तोड़ कर खाता गया, और बिल्लियां बराबर-बराबर हिस्सा मिलने के इंतज़ार में पूरी रोटी गंवा बैठीं.

भारतीय मीडिया की हालत भी आज उन बिल्लियों जैसी ही है. अपने को बेहतर साबित करने के लिए दूसरे पर फेक न्यूज़ या फर्ज़ी खबरें चलाने का लांछन लगा-लगा कर उन्होंने अपनी ऐसी हालत कर ली कि बंदर को काज़ी बनने की पेशकश करने का मौका मिल गया. न कथित पत्रकार एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए फेक न्यूज़ का प्रोपोगैंडा चलाते, न सरकार को ये मौका मिलता कि वो उनके काम में दखल दे.

खैर, जहां तक फेक न्‍यूज के मामले में सूचना प्रसारण मंत्री स्‍मृति ईरानी द्वारा जारी दिशा-निर्देश की बात थी, तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हस्‍तक्षेप के बाद वापस ले लिया गया. और फेक न्‍यूज की चुनौती से निपटने की जिम्‍मेदारी प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया पर छोड़ दी गई है. लेकिन बड़ा सवाल अब भी बाकी है ?

fake newsसरकार कह रही है कि झूठी खबरें चलाने वालों पर कार्रवाई करेंगे, उनकी मान्यता रद्द कर देंगे

बेशक ये तय करना सरकार का काम नहीं है कि क्या खबर हो और क्या नहीं. खबरों को प्रमाण पत्र देना भी सरकार का काम नहीं है. अलबत्ता सरकार के रखे हुए तथ्यों की परख करना और नतीजों को जस का तस जनता के सामने रख देना मीडिया का काम ज़रूर है. लेकिन अगर अपनी ज़रूरत का 'नैरेटिव' सेट करने के लिए कुछ लोग गैंग बनाकर उन्हीं तथ्यों से छेड़खानी करने लगें- तो उनका इलाज कौन करे? ये ही असली बहस का विषय है.

सरकार कह रही थी कि झूठी खबरें चलाने वालों पर कार्रवाई करेंगे, उनकी मान्यता रद्द कर देंगे. चार दिन पहले, पोस्टकार्ड नाम की एक वेबसाइट चलाने वाले महेश हेगड़े की कर्नाटक में गिरफ्तारी को फेक न्यूज़ के खिलाफ़ बड़ी कामयाबी बता कर जश्न मनाने वाले लोग अब कह रहे हैं कि सरकार अभिव्यक्ति की आज़ादी और सवाल पूछने के हक को मार देना चाहती है.  

बेशक ये सच है कि व्हाट्सऐप, ट्विटर, फेसबुक पत्रकारिता के दौर में, सिर्फ टीवी-अखबार पर ठीकरा फोड़ देना जायज़ नहीं है. पहली गाइडलाइन इन गैर-पारंपरिक और ज़्यादा पहुंच वाले माध्यमों के लिए बननी चाहिए.

लेकिन लड़कियों से छेड़खानी करने वाले को 'घोड़ा पालने का शौकीन होने की वजह से दलित मारा गया' यह तो अखबार-टीवी ही बता रहे हैं ! एक राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता को मुंबई में चमड़े के बैग की वजह से ऑटो रिक्शा से उतार कर कथित गौरक्षक द्वारा पीटे जाने की खबर पर तांडव तो टीवी चैनल्स और अखबारों ने ही किया था ! ये नैरेटिव सेट करना ही तो है कि घोड़े की टांग टूटने पर मातम मनाया जाए लेकिन गाय काट कर खाने के खिलाफ़ कानून बनाने की बात हो तो कहा जाए कि सरकार कौन होती है हमारी रसोई में तांक-झांक करने वाली? ये नैरेटिव बदलना ही तो है कि कासगंज में मुसलमानों के मुहल्ले से धार्मिक यात्रा निकले तो कहें कि उन्हें चिढ़ाने के लिए है, लेकिन कहीं राजपूतों की गली से दलित की बारात निकलने पर विवाद हो जाए तो कहा जाए कि गली-मुहल्ले को धर्म और जाति में क्यों बांट रहे हो?      

मसला 'फेक न्यूज़' का कम और 'फेक नैरेटिव' का ज़्यादा है. इसीलिए हंगामा भी ज़्यादा है. और सबसे ज़्यादा चिंता वही कथित बड़े बड़े पत्रकार दिखा रहे हैं जो अब तक दूसरों को 'फेक न्यूज़' के सर्टीफिकेट्स बांटते आए हैं.

इस देश में हत्या के खिलाफ़ कानून है. बलात्कार के खिलाफ़ कानून है. चोरी, डकैती, लूट, छेड़खानी, धोखाधड़ी सबके खिलाफ़ कानून है. क्या देश का हर नागरिक इन कानूनों से खौफ़ खाता है? नहीं. केवल उन्हीं लोगों को इन कानूनों का डर सताता है जो ऐसे काम करना चाहते हैं. ठीक वैसे ही, फेक न्यूज़ के खिलाफ़ कार्रवाई का डर किसे लगना चाहिए? उन्हीं को न, जो ये जानते हैं कि वो तथ्य़ों को तोड़-मरोड़ कर अपने या अपने किसी राजनीतिक आका के हित को साधने के लिए ख़बरें छापना या चलाना चाहते हैं.

मीडिया को बांधने की कोशिशें हर दौर में हुई हैं. अंग्रेज़ों ने भी कीं. इमरजेंसी लगाने वालों ने भी. मीडिया को गोदी में बिठाने वालों ने भी. लेकिन पूरी तरह कामयाब कोई भी नहीं हो पाया. अब भी अगर सरकार की नीयत में खोट होगी तो देर-सवेर पकड़ में आ जाएगी. लेकिन उसके पहले, मीडिया को अपने अंदर झांक कर उन लोगों को पकड़ लेना होगा जिनकी खुद की नीयत में खोट है.

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लेखक

रोहित सरदाना रोहित सरदाना @rohitsardanaofficialpage

लेखक आजतक चैनल में संपादक हैं और सामाजिक- राजनैतिक मुद्दों पर पैने विचार रखते हैं

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