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Updated: 08 दिसम्बर, 2018 05:46 PM
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एग्जिट पोल अंतिम नतीजे तो नहीं होते, लेकिन बहुत कुछ संकेत तो दे ही देते हैं. अगर रॉबर्ट वाड्रा के ठिकानों पर प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी किसी खत का मजमून है तो पढ़ना ज्यादा मुश्किल भी नहीं है. ऐसा लगता है एग्जिट पोल के नतीजे बीजेपी के आंतरिक सर्वे के काफी करीब हैं, वरना ऐसे रिएक्शन का कोई मतलब नहीं होता. वैसे ये सब पूरी तरह साफ तो 11 दिसंबर को ही हो पाएगा.

अगर नतीजे भी एग्जिट पोल की ही तरह आ गये, फिर तो बीजेपी हार का ठीकरा फोड़ने की होड़ शुरू हो जाएगी. कहने की जरूरत नहीं बीजेपी अपने ब्रह्मास्त्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो सिर्फ जीत का ही श्रेय देगी, हार की जिम्मेदारी तो औरों को ही मजबूरन ही सही लेनी ही होगी.

Exit Poll जो इशारा कर रहा है उससे शिवराज सिंह चौहान, रमन सिंह और वसुंधरा राजे के सामने नये चैलेंज उभर आये हैं - हालांकि, तीनों के आगे चुनौतियां बिलकुल तरीके की हैं.

शिवराज की पहली और आखिरी कोशिश कुर्सी बचाने की ही होगी

मध्य प्रदेश को लेकर आये एग्जिट पोल में कांग्रेस को बराबरी की टक्कर देते देखा जा रहा है. इसका मतलब ये कतई नहीं कि कांग्रेस पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने ही जा रही है. मतलब ये भी है कि शिवराज सिंह चौहान साफ तौर पर सरकार नहीं बचा पा रहे हैं, लेकिन गुंजाइश पूरी है. और जिस तरीके का बीजेपी का ट्रैक रिकॉर्ड रहा है उसमें तो सरकार बनाने की संभावना सौ फीसदी बनती है.

shivraj singh chauhanफिक्र सिर्फ कुर्सी बचाये रखने की है

किसी भी सूबे में सरकार बनाने को लेकर बीजेपी के मन की बात समझनी हो तो सिर्फ गोवा और मणिपुर पर अटके रहने से काम नहीं चलने वाला, कर्नाटक की कारगुजारियां भी गौर फरमाने वाली ही हैं.

एग्जिट पोल में शिवराज के खाते में 102-120 सीटें आने की संभावना जतायी गयी है. फर्ज कीजिए सीटों की संख्या निम्नतम पर सिमट जाती है, फिर भी जोड़ तोड़ के मौके तो बचे ही रहेंगे. सरकार बनाने के लिए शिवराज को जितने एमएलए की कमी पड़ेगी उसकी कमी निर्दलीय विधायकों के सपोर्ट से पूरा करने की होगी.

अगर बीजेपी के चाल, चरित्र और चेहरे के हिसाब से देखें तो कर्नाटक ताजातरीन उदाहरण है. ध्यान देने वाली बात ये भी है कि चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने साफ साफ बता दिया है कि जब तक बहुत जरूरी नहीं होगा आधी रात को सुनवाई नहीं होगी. अगर नये हालात में कांग्रेस को प्रतिकूल परिस्थितियों में कोर्ट की मदद नहीं मिली तो गोवा और मणिपुर को याद कर संतोष कर लेने के अलावा कोई चारा भी नहीं होगा.

मध्य प्रदेश संघ और बीजेपी का पुराना किला है. अगर मध्य प्रदेश के किले पर आंच भी आयी तो बर्दाश्त करना काफी मुश्किल होगा. यही वो वजह है जो ऊपर से नीचे तक हर किसी को हर संभव कोशिश करने के लिए मजबूर करेगी, बशर्ते नतीजे भी एग्जिट पोल की ही तरह आये.

डॉक्टर रमन सिंह की नजर भी कुर्सी पर ही होगी, लेकिन...

एग्जिट पोल के हिसाब से देखें तो रमन सिंह के सामने शिवराज जैसी स्थिति नहीं है. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को मिलती बढ़त साफ देखी जा रही है. ऐसी हालत में रमन सिंह की रणनीति निश्चित तौर पर शिवराज से अलग होगी.

2019 को लेकर कांग्रेस की तमाम रणनीतियों में एक लाइन है - केंद्र की सत्ता हासिल हो न हो, किसी भी सूरत में प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी दोबारा न बैठ पायें. कांग्रेस की ऐसी मंशा वाली खबर एक बार नेशनल हेराल्ड में आयी थी - लेकिन तुरंत ही उस पर सफाई भी आ गयी. खबर अपनी जगह है और रणनीति अपनी जगह. वैसे ये लाइन कांग्रेस को काफी हद तक सूट भी करती है. धारणा तो एक ये भी रही है कि राहुल गांधी का 2019 की जगह 2024 पर ज्यादा जोर लगता है.

raman singhफिक्र कुर्सी की नहीं, आगे बैठने वाले को लेकर है

छत्तीसगढ़ को लेकर बीजेपी हलके में भी कुछ ऐसी ही चर्चा है. बाकी बातें अपनी जगह हैं, सत्ता गंवाने की हालत में रमन सिंह के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात ये होगी कि कांग्रेस के कोटे से मुख्यमंत्री कौन बनता है? हार जीत अपनी जगह है, लेकिन राजनीतिक रसूख बनाये रखने के लिए ऐसी चीजें, खासतौर पर क्षत्रपों के लिए काफी मायने रखती हैं. वैसे तो रमन सिंह को भी अंतिम परिणामों की प्रतिक्षा रहेगी, रहनी भी चाहिये - लेकिन सियासत में प्लान-बी शतरंज की तरह बहुत पहले से तैयार रखना जरूरी होता है.

छत्तीसगढ़ कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद के कई दावेदार हैं. पहला हक तो प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भूपेश बघेल का ही बनता है. फिर तो भूपेश बघेल कांग्रेस की ओर से सबसे बड़े दावेदार होंगे. वैसे कांग्रेस के इतिहास को देखते हुए ऐसा होगा ही कतई जरूरी नहीं है. हरीश रावत इस बात के जीते जागते उदाहरण हैं. ताजा विधानसभा चुनाव में भूपेश बघेल की भी वही भूमिका है जो 2012 के उत्तराखंड चुनाव में हरीश रावत की रही, लेकिन उन्हें दिल्ली बुला लिया गया.

भूपेश बघेल के अलावा कांग्रेस के पास टीएस सिंहदेव भी हैं जो कांग्रेस विधायक दल के नेता हैं. इसी तरह ताम्रध्वज साहू ओबीसी चेहरा हैं तो चरणदास महंथ सीनियर नेताओं में शुमार हैं.

रमन इफेक्ट बचाये रखने के लिए कोशिश ये है कि कांग्रेस भूपेश बघेल को कुर्सी पर न बिठाये. ऐसी न जाने कितनी प्रतिकूल परिस्थितियां आयीं लेकिन रमन सिंह के खिलाफ भूपेश बघेल एक मजबूत खंभे की तरह डटे रहे. अगर ये कहा जाये कि कांग्रेस का अस्तित्व बचाये रखने में सबसे बड़ा रोल किसी का है तो वो हैं भूपेश बघेल.

जो शख्स छत्तीसगढ़ में बिखरी पड़ी कांग्रेस को लगातार मुकाबले में बनाये रखा उसका मुख्यमंत्री बनना भला रमन सिंह कैसे हजम करेंगे. सवाल है कि फिर करेंगे क्या? फिर तो यही संभव है कि जितनी ताकत शिवराज सिंह सरकार बनाने के लिए लगाएं, उतनी ही शक्ति रमन सिंह इस मामले में लगा दें. जब जोड़ तोड़ से सरकार बनायी जा सकती है तो ये काम क्यों नहीं हो सकता? मुश्किल बेशक है, लेकिन नामुमकिन तो नहीं कहा जा सकता?

वसुंधरा के लिए तो आगे अस्तित्व की लड़ाई है

हालत तो वसुंधरा की भी रमन सिंह जैसी ही है, लेकिन उनके सामने अलग तरीके की चुनौतियां हैं. वसुंधरा बीजेपी नेतृत्व के साथ कदम-कदम पर दो-दो हाथ करती नजर आयी हैं. चुनावों से पहले राजस्थान बीजेपी अध्यक्ष की नियुक्ति से लेकर टिकट बंटवारे तक, सबको मालूम है ऐसा ही हुआ. गौरव यात्रा में भी वसुंधरा ने मौजूदा बीजेपी अध्यक्ष मदनलाल सैनी को जितना संभव हुआ दूर ही रखा, जबकि पूर्व अध्यक्ष अशोक परनामी ही कदम कदम पर करीब नजर आये.

vasundhara, amit shahफिक्र कुर्सी की नहीं, वर्चस्व बनाये रखने की है

वसुंधरा की सत्ता में वापसी हो जाती तो और बात होती, लेकिन हार के बाद नेतृत्व के पास भी अपनी मनमानी का पूरा मौका होगा - और ऐसी हालत में वसुंधरा को राजस्थान बीजेपी में वर्चस्व की लड़ाई लड़नी होगी.

वसुंधरा के सामने आने वाली पहली चुनौती 2019 का चुनाव है. टिकट बंटवारे में वसुंधरा का हस्तक्षेप कितना चल पाएगा, अभी कहना मुश्किल है. जिस तरह की तनातनी वसुंधरा और मोदी-शाह की जोड़ी के बीच रही है - आने वाला कल हद से ज्यादा चुनौतीपूर्ण हो सकता है.

माना ये जा रहा है कि आखिरी दौर में प्रधानमंत्री मोदी की रैलियां वैसी ही प्रभावी रही हैं जैसी गुजरात और कर्नाटक चुनावों में रहीं. अब दिल्ली से भी जयपुर को यही बताया जाएगा कि अगर मोदी ने मोर्चा नहीं संभाला होता तो हालात और भी खराब हो सकती थी.

11 दिसंबर को अगर वसुंधरा की किस्मत ने खेल कर दिया तो बात और है, वरना नेतृत्व फिर से गजेंद्र सिंह शेखावत और युवा ऊर्जा से लबालब राज्यवर्धन राठौड़ को मुकाबले में उतार देगा, पक्का है.

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