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Updated: 25 जून, 2022 08:08 PM
ज्योति गुप्ता
ज्योति गुप्ता
  @jyoti.gupta.01
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'आदिवासी' या 'जनजाति' शब्‍द सुनने पर शहरी आबादी को क्‍या समझ में आता है? कुछ फिल्‍मी दृश्‍य जहन में आते हैं? काले-बदरंग लोग जिनके चेहरे पर कुछ सफेदा मला हुआ है, कपड़े की जगह पत्‍ते लपेटे हुए हैं और वो छींगा-लाला करके हीरो-हिरोइन के पीछे नाच रहे हैं. क्‍या आदिवासियों की ये छवि किसी भी तर्क से जायज है? आदिम जीवन के प्रति हमारी सोई चेतना को जगाने आई हैं द्रौपदी मुर्मू.

द्रौपदी मुर्मू के नाम पर भले ही आप राजनीति कर लें लेकिन यह बात सच है कि वे आमजन की नेता हैं, जो आम लोगों के बीच से निकली हैं. इस बात से हम इनकार नहीं कर सकते कि, द्रौपदी मुर्मू की जड़ें आज भी जमीन से जुड़ी हुईं हैं. राज्यमंत्री और राज्यपाल रहने के बाद भी वे अपने गृहनगर ओडिशा के मयूरभंज जिले के ऊपरबेड़ा गांव में रहना पसंद करती हैं. जबकि अगर वे चाहें तो देश के किसी भी हिस्से के बड़े-से बड़े शहर में रह सकती हैं. उनके रहने का अंजादा भी बेहद साधारण है, उनका व्यक्तित्व बताता है कि वे सादगी से भरी हुई हैं.

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असल में वे आदिवासी संथाल परिवार से तालुक्क रखती हैं. हम सभी को पता है कि प्रकृति के सबसे करीब आदिवासी समाज ही रहता है. आदिवासी लोग हमसे कई गुना अच्छी तरह से जानते हैं कि प्रकृति के बीच कैसे जिंदगी जी जा सकती है. कैसे इंसान खुद को कम संसाधनों में संतुष्ट रख सकता है. द्रौपदी मुर्मू हमें बताने आईं हैं कि आदिवासी लोगों की जो इमेज हमने अपने दिमाग में बसाई है वे वैसे बिल्कुल नहीं हैं. आदिवासी लोग पत्ते लपेटकर नहीं रहते, वे हमारी और आपकी तरह कपड़े पहनते हैं. हमारी तरह सुख-दुख में हंसते रोते हैं.

बेशक उनके पहनने का तरीका अलग हो सकता है, लेकिन जिंगालाला हू-हू वाला तो बिल्कुल नहीं है जैसा फिल्मों में दिखाया जाता है. हमने आदिवासियों को जाना ही कितना, क्या कभी हम उनके बीच गए? उनके करीब जाना तो छोड़ो हमने तो उनके बारे में जानने की कोशिश ही नहीं, क्योंकि हमने हमेशा उन्हें दूसरी दुनिया का प्राणी माना. हमने उन्हें हमेशा छोटी ही माना, लेकिन वे आज हम उनकी तरह प्राकृतिक जिंदगी जाने को आतुर हैं.

पहले हम भी तो जंगल में थे, फिर गावों में आएं और शहरों में बस गए. इसके बाद हम शहर से बड़े शहरों में जाकर रहने लगे और विदेश की यात्राएं करने लगे. अब जब हमें स्वस्थ जिंदगी के लिए प्रकृति का महत्व समझ आया तो हम छुट्टियां बिताने प्रकृति के बीच जाते हैं. हम ऐसे ड्रीम हाउस की कल्पना करते हैं जो प्रकृति के बीच में हो. हम अपने घरों में पेड़, पौधे लगाते हैं. अब हमें जंगल और नदी के बीच रहना अच्छा लगता है. जब हमें कई तरह की बीमारियों ने जकड़ लिया तब ऑर्गेनिक फूड के पीछे भागने लगे. हम उन चीजों को मॉल में जाकर चार गुने कीमत पर खरीदने लगे जिसे हमने अनदेखा किया. खुद को मॉडर्न बताने के लिए हमने खुद को प्रकृति से बेहद दूर कर दिया, लेकिन हम जिन आदिवासी लोगों का मजाक उड़ाते हैं वे तो हमेशा से ही नेचुरल ही रहे.

द्रौपदी मुर्मू, किसी अमीर घर की नेता नहीं हैं. वे मंदिर में झाड़ू लगा सकती हैं, मंदिर का फर्श साफ कर सकती हैं और ऐसा करने में उन्हे कोई झिझक नहीं है. उन्होंने अपने संघर्ष के दिनों में भी ऐसी ही रहीं जैसी अब हैं. पद मिलने के बाद हम और आप शायद बदल जाएं, शायद घमंडी हो जाएं लेकिन गांव से निकली हुई द्रौपदी मुर्मू आज भी एक आम महिला की तरह ही हैं. वे हमें समझाने आईं है कि असल में इंसान को कैसा रहना चाहिए.

कम उम्र में पति की मौत और दो बेटों को खोने के बाद भी वे जिंदगी की जंग में डटी रहीं. झारखंड की पहली महिला राज्यपाल रहते हुए वे आदिवासी बच्चों की शिक्षा के लिए चिंतित रहीं. वे खुद ही स्कूलों और कॉलेजों में भ्रमण करती थीं. वे छात्रओं से परेशानी पूछतीं फिर उसके सामाधान के लिए निर्देश देतीं. वे स्कूल के प्रिंसिपल और कुलपतियों से खुद वीडियो कॉल पर बात करती थीं. उनके इस प्रयास से ही आदिवासी भाषाओं के शिक्षकों की नियुक्ति शुरु हुई. द्रौपदी मुर्मू वो हैं जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत एक मामूली क्लर्क से की थी.

वो सहायक शिक्षक बनी, पार्षद बनी फिर राज्यमंत्री और राज्यपाल बनीं. इस जमीनी महिला की तुलना आप किसी और नेता से करके उसका अपमान कर सकते हैं. भले ही आप विपक्ष हों, लेकिन राजनीति से परे देखेंगे तो समझ आएगा कि यह जिंदगी के असली स्वाद को चखने वाली मुट्टी और प्रकृति से निकली नेता हैं. जो हमें सीखाती हैं कि आदिवासी होने का मतलब बदसूरत और घिनौना होना नहीं होता. काले चेहरों को देखकर मुंह बनाना नहीं होता...

असल में आदिवासी होने का मतलब द्रौपदी मुर्मू होता है. जो हमसे कह रही हैं कि मैं किसी अलग दुनिया से नहीं आई, मैं तो तुम्हारे स्त्रोत की दुनिया से ही आई हूं. जो तुम कभी थे और हो सकते हो...असल में मैं तुम ही हूं, यह सिर्फ तुम्हारी सोच का फर्क है कि मैं आदिवासी हूं और तुम शहरी...

शहर तो गांव से बने और गांव जंगल से...इसलिए जो लोग द्रौपदी मुर्मू को अपशब्द कह रहे हैं, उन्हें सोचना चाहिए कि वह किसी अशरफी वाला दुनिया से अवतरित हुए बल्कि इन्हीं जगंल और पहाड़ों से उनका जन्म हुआ है. वे एक बुजुर्ग महिला को गाली देकर किसी और का नहीं बल्कि अपनी जड़ों का ही अपमान कर रहे हैं.

तो अब जब हमारे बीच कोई आदिवासी बच्चा पढ़ रहा हो, साथ में काम कर रहा हो या साथ रह रहा तो उसे जंगली बंदर कहने से पहले यह सोच लेना कि, हम मानव जाति का निर्माण भी इसी प्रकृति से हुआ है, जिसे हमने सालों पहले भुला दिया और अब फिर द्रौपदी मुर्मू हमें हमारी पहचान की याद दिला रही हैं. खुद को हाई-फाई कहलाने के लिए हमने पहले जंगल काटे और अब फिर उसी जंगल के बीच भाग रहे हैं.

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लेखक

ज्योति गुप्ता ज्योति गुप्ता @jyoti.gupta.01

लेखक इंडिया टुडे डि़जिटल में पत्रकार हैं. जिन्हें महिला और सामाजिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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