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Updated: 31 अक्टूबर, 2019 03:09 PM
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BJP के प्रति Shiv Sena के रूख में थोड़ा बदलाव तो महसूस किया गया है, लेकिन अब तक कोई डील पक्की नहीं हो पायी है - और यही वजह है कि पांच साल बाद भी महाराष्ट्र की राजनीति उसी मोड़ पर खड़ी नजर आ रही है जहां 2014 में थी.

देवेंद्र फडणवीस को एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठने के लिए वैसे ही संघर्ष करने पड़ रहे हैं. शिवसेना नेतृत्व का रूख भी बीजेपी नेता के प्रति करीब करीब वैसा ही है. और तो और एनसीपी और कांग्रेस की भूमिका भी बहुत बदली हुई नहीं है.

तमाम अड़चनों के बावजूद देवेंद्र फडणवीस 2014 में भी मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे, इस बार भी कम से कम इस मामले में कोई बड़ी बाधा नजर नहीं आ रही है - लेकिन चुनौतियां जस की तस बनी हुई हैं. आखिर क्यों?

फिर वही कहानी दोहरायी जाने लगी है

2014 का आम चुनाव तो खुशी खुशी बीत गया, लेकिन जीत का गुरूर बीजेपी और शिवसेना के बीच धीरे धीरे दीवार की शक्ल लेने लगा. पहले बीजेपी जहां सीटों के बंटवारे पर शिवसेना की कृपापात्र बनी हुई थी, अचानक आंख दिखाने लगी.

जब विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे की बात आयी तो बीजेपी ने 144 सीटों की मांग रखी, लेकिन शिवसेना के अड़ियल रवैये को देखते हुए 130 सीटों पर आ गयी. शिवसेना और बीजेपी के साथ गठबंधन में आरपीआई, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन और राष्ट्रीय समाज पक्ष जैसी पार्टियां भी शामिल थीं, लिहाजा बीजेपी को 119 और बाकियों को 18 सीटें ऑफर की गयीं. जैसा बीजेपी ने इस बार किया, शिवसेना ने तब अपने हिस्से में 151 सीटें रखी थीं. बातचीत अटक गयी और चुनाव से पहले ही गठबंधन टूट गया.

144 का चक्कर एनसीपी और कांग्रेस के बीच भी आ खड़ा हुआ. आम चुनाव में शिकस्त के बाद एनसीपी ने कांग्रेस से विधानसभा चुनाव में 144 सीटों की मांग की, साथ ही, मुख्यमंत्री पद पर में 50-50 जैसे इस बार बीजेपी के सामने शिवसेना अड़ी हुई है. अचानक कांग्रेस ने 118 उम्मीदवारों की सूची 25 सितंबर, 2014 को जारी कर दी.

devendra fadnavis with uddhav thackerayसियासत की दुनिया भी गोल ही है!

फिर क्या था, 25 साल पुराना बीजेपी-शिवसेना गठबंधन और 15 साल पुराना कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन एक झटके में टूट कर अलग हो गया. चुनाव हुए और नतीजे आये तो किसी को भी स्पष्ट बहुमत नहीं मिला और फिर से जोड़ तोड़ और सपोर्ट की कवायद चल पड़ी.

2014 में बहुमत साबित करते वक्त खूब बवाल हुआ

2014 में भी महीना नवंबर का ही था. चूंकि अब तक बीजेपी और शिवसेना के बीच सरकार बनाने पर सहमति नहीं बन पायी है, इसलिए तय है शपथ का महीना इस बार भी नवंबर ही होने जा रहा है.

पिछली बार 31 अक्टूबर को देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन की मोहलत मिली थी. 12 दिसंबर को फडणवीस की अगुवाई वाली बीजेपी सरकार ने विधानसभा में विश्वास मत हासिल भी कर दिया - लेकिन खूब शोर-शराबा हुआ.

तब नेता प्रतिपक्ष चुने गये एकनाथ शिंदे ने मत विभाजन की मांग की, लेकिन नवनिर्वाचित स्पीकर हरिभाऊ बागड़े ने मांग ठुकरा दी और विश्वास प्रस्ताव ध्वनि मत से पारित हो गया. शिवसेना को काउंटर करने के लिए एनसीपी ने बीजेपी को सपोर्ट ऑफर किया था. शिवसेना ने तो विश्वास मत के दौरान देवेंद्र फडणवीस के खिलाफ वोट देने की घोषणा कर रखी थी. बहरहाल, जैसे तैसे अमित शाह ने उद्धव ठाकरे को शपथग्रहण में शामिल होने के लिए मना लिया था.

फिर शिवसैनिक और कांग्रेस के नेता आक्रामक हो गये. वे गवर्नर की गाड़ी रोकने की कोशिश किये और सदन के अंदर जाने के रास्ते में लेट गये. स्पीकर को मार्शल बुलाकर विरोध प्रदर्शन कर रहे नेताओं को हटाना पड़ा. कुछ नेताओं पर फौरी एक्शन भी हुआ.

तब एकनाथ शिंदे ने सदन को अंदर जो कुछ हुआ उसे लेकर बीजेपी पर जनमत के अपमान करने का आरोप लगाया था. इस बार भी एकनाथ शिंदे को शिवसेना ने विधायक दल का नेता चुना है, जिसे पार्टी की रानीतिक रणनीति देखी जा रही है क्योंकि अब तक तो वो आदित्य ठाकरे के लिए मुख्यमंत्री पद की मांग पर अड़ी हुई थी. बीजेपी अपनी तरफ से अब भी शिवसेना के लिए डिप्टी सीएम का पद ऑफर कर रही है.

चुनौतियां तो शिवसेना के लिए भी नहीं बदल सकी हैं

वर्चस्व की जो लड़ाई शिवसेना 2014 में लड़ रही थी, पांच साल बाद भी सूरत-ए-हाल तकरीबन वैसा ही है. शिवसेना ने तेवर तो बरकरार रखा है लेकिन तरीका थोड़ा बदल लिया है.

काफी सख्त लहजे में पेश आने के बाद शिवसेना थोड़ी नरम पड़ी लगती है. शायद बीजेपी को भी गठबंधन पार्टनर के इस व्यवहार की आदत पड़ चुकी होगी. ऐसा इसलिए भी लगता है कि बीजेपी की तरफ से शिवसेना को तोड़ देने का संदेश एक बार फिर छोड़ा जाने लगा है.

2014 में भी शिवसेना ऐसी जद्दोजहद में पड़ी थी. जब शिवसेना को लगा कि कहीं वाकई बीजेपी पार्टी तोड़ न दे, इसलिए स्पीकर के चुनाव से आखिरी वक्त में उम्मीदवारी वापस ले ली थी.

शिवसेना की ओर से रामदास कदम ने तब चेतावनी भी दी थी, 'हम लाचार नहीं हैं, स्वाभिमान छोड़कर भाजपा के पीछे जाने की जरूरत नहीं है. अगर कोई सोचता है कि वो शिवसेना को तोड़कर बहुमत पा लेगा तो इस जन्म में ऐसा नहीं होने वाला है.'

वैसे हाल फिलहाल बीजेपी नेता संजय काकड़े दावा कर चुके हैं कि शिवसेना के 56 में से 45 विधायक उनके संपर्क में हैं - और वे सरकार में शामिल होने के लिए बीजेपी के साथ आने के लिए तैयार हैं.

बाद की बात और है, लेकिन फिलहाल तो शिवसेना को तोड़ना मुश्किल है क्योंकि दलबदल कानून से बचने के लिए दो-तिहाई विधायकों की जरूरत होगी. वरना, विधायकों से इस्तीफे दिलवाकर बीजेपी को नये सिरे से चुनाव लड़ाना होगा. गारंटी तब भी नहीं है कि ऐसा करके भी वे चुनाव जीत ही जाएंगे - सतारा का केस ताजातरीन मिसाल है.

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